मनुष्य भोग एवं भगवान दोनों को क्यों चाहता है?
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं -----
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिन:अर्जुन/
आर्तो जिज्ञासु अर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ//
मुझे जो लोग भजते हैं उनकी चार श्रेणियाँ हैं ; आर्त [ वे जी भयनिवारण के लिए मुझे भजते हैं ] जिज्ञासु [ वे लोग जो मुझे तत्त्व से बुद्धि स्तर पर समझाना चाहते हैं ] अर्थार्थी [ ऐसे लोग जो धन प्राप्ति के लिए मुझे भजते हैं ] और ज्ञानी लोग भी मुझे भजते हैं /
गीता में ज्ञान शब्द का क्या अर्थ है ?
गीता श्लोक –13.2में प्रभु कहते हैं------
वह जिससे क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ [ प्रकृति - पुरुष ] का बोध हो , ज्ञान है /
मनुष्यों में ऐसे लोग जो भक्ति भाव में डूबे दिखते हैं उनमें अधिकाँश लोग या तो भय के कारण भक्ति को पकड़ते हैं ; या फिर कामना पूर्ति में कोई बिघ्न न आये , यह सोच उनको मंदिर की ओर खीचती रहती है / ज़रा आप अपनी निगाह उठा के देखना , क्या आप को कोई ऐसा भी दिखा आज तक जो मंदिर नित्य जाता हो और उसके इस कृत्य के पीछे कोई चाह न हो ? मनुष्य तन , मन , बुद्धि एवं भाषा सबका ब्यापारी है और जैसे - जैसे ब्यापार आगे निकलता जाता है वह उसी हिसाब से पीछे सरकता चला जाता है और बाहर से भरा हुआ दिखता तो है लेकिन अंदर से एकदम खाली हो गया होता है /
भगवान से जुडनें का अर्थ है संसार की ग्रेविटी के बिपरीत की यात्रा पर उतरना और यह कम है बहुत कठिन ; गीता में प्रभु कहते हैं ------
गीता सूत्र – 9.25 , सकाम पूजा अज्ञान है
गीता सूत्र –7.3 + 7.19
हजारों लोग मेरी पूजा करते हैं , उनमें से कई जन्मो के बाद कोई मुझे तत्त्व से जान पाता है और ऐसे ज्ञानी दुर्लभ होते हैं /
भोग से उठ कर योग में पहुँचना साधना है और योग में स्थित प्रभु की अनुभूति में होना समाधि है/
===== ओम्========
No comments:
Post a Comment