क्य है कर्म ? और क्य है कर्म – योग ?
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं----
गीता श्लोक –5.22
ये हि स्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते/
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः//
मनुष्य इंद्रिय एवं बिषय के संयोग से जो करता है वह भोग है जिसमें जो सुख मिलता है उसमें दुःख का बीज पल रहा होता है //
whatsoever is performed with the help of senses and their objects is passion [ bhoga ] which gives pleasure during the progress of the action but this pleasure contains the seeds of pain .
गीता की भाषा में कर्म उस क्रिया को कहते हैं जो आसक्त मन – बुद्धि तंत्र के माध्यम से आसक्त इंद्रियों के माध्यम से होता है / जिस कृत्य के होनें के पीछे तीन गुणों के तत्त्वों की उर्जा एवं अहँकार काम कर रहा हो वह कृत्य भोग कर्म है /
वह कृत्य जिसको अनासक्त मन – बुद्धि तंत्र के माध्यम से अनासक्त इन्द्रियाँ कर रही हो वह कृत्य कर्म – योग कहलाता है/
Action done by the impetuous mind – intelligence frame through impetuous senses is passionate – action [ Bhoga Karma ] nd action performed without attachment is Karma – Yoga .
गीता कहता है------
कोई भी जीवधारी किसी भी पल बिना कर्म नहीं रहता , जब कर्म करना ही है चाहे कोई संन्यासी जैसा बन कर हिमालय पर रहे या किसी गाँव में तो फिर कर्म में होश पैदा करके उसे प्रभु का मार्ग क्यों न बना लिया जाए , क्या जरुरत है न चाहते हुए भी समाज की ओर पीठ करके खडा होना ?
गीता में प्रभु अर्जुन को मना रहे हैं कि अर्जुन ऐसा युद्ध न कभीं हुआ और आगे न होगा , यह मौक़ा तुमको फिर नहीं मिलनें वाला , तुम इस युद्ध को अपनें ध्यान की विधि बना लो और उतर जाओ उस पार जहाँ आज नहीं तो कल , इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में जाना ही है जो मेरा परम
धाम है /
भोग से योग में
योग से वैराज्ञ में
और
वैराज्ञ से समाधि में पहुंचनें वाला ब्यक्ति गुणातीत योगी होता है जो कृष्ण मय होता है//
===== ओम्=======
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