गीता कहता है-------
भूत भावः उद्भव करः विसर्गः इति कर्मः … ..... गीता - 8.3
गीता के इस सुत्रांश का अर्थ एक नहीं अनेक हैं , सबके अपनें अपने अर्थ हैं जैसे प्रभुपाद जी इस का अर्थ कुछ लगाते हैं और सर्वपल्ली राधाकृषनन अपना अर्थ लगाते हैं लेकिन जब सभीं के अर्थों के आत्मा को देखेंगे तो यह आप को स्पष्ट दिखनें लगेगा ------
वह जिसके करनें के अभ्यास से भावातीत की यात्रा हो , कर्म है /
गीता कहता है-------
ऐसा कोई कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो ----- गीता - 18.48
कोई भी जीवधारी एक पल के लिए भी कर्म मुक्त नहीं हो सकता ------ गीता - 18.11
बिषय एवं इंद्रियों के सहयोग से जो होता है वह भोग है
जिसके सुख में दुःख का बीज होता है ------ गीता - 5.22 , 18.38
अब आगे-------
गीता में प्रभु कहते हैं-----
कर्म कर्ता प्रकृति के तीन गुण हैं न की मनुष्य ---- गीता - 3.5
तीन गुणों के भाव मुझसे उठते हैं लेकिन उन भावों में मैं नहीं होता ----- गीता - 7.12
ऊपर आप गीता में प्रभु के कर्म सम्बंधित सात सूत्रों को देखा , इन सूत्रों के सम्बन्ध में यदि आप गीता में कुछ और तैरना चाहते हैं तो आप को लगभग 80 सूत्र और मिलेंगे जिनका सीधा सम्बन्ध
कर्म से है / प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं -------
कर्म में दोष न हो यह तो संभव नहीं क्योंकि कर्म होते हैं गुणों की ऊर्जा से और गुणों की ऊर्जा ही भोग ऊर्जा है / दैनिक सहज कर्मों में भोग ऊर्जा के तीन तत्त्वों [ सात्त्विक , राजस् एवं तामस ] के प्रति होश उपजाना ही भोग कर्म को योग में बदल देता है जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें की उर्जा से मन – बुद्धि को भर देता और ऐसे मन – बुद्धि तंत्र में जो होता है वह अब्यक्त ही होता है /
=====ओम्=====
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