पतंजलि साधन पाद सूत्र - 1 क्रियायोग के 03 अंगों में से अंग - 2 और अंग - 3 को यहाँ देखा जा रहा है ।
स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान
क्रियायोग के इन दो अंगों का आपसी गहरा संबंध है । साधना में स्वाध्याय से पूर्व एक और आयाम मिलता है जिसे प्रत्याहार कहते हैं और जो अष्टांगयोग का पांचवां अंग है । जबतक प्रत्याहार की सिद्धि नहीं मिलती , स्वाध्याय में प्रवेश पाना संभव नहीं । जबतक यम , नियम , आसन और प्राणायाम की सिद्धि नहीं मिलती तबतक प्रत्याहार में पहुंचना संभव नहीं - यह है साधना की सीधी रेखा का नियम ।
लेकिन साधन पाद के पहले सूत्र में क्रियायोग के अंग के रूप में स्वाध्याय को हम यहाँ देख रहे हैं ।
हम कौन हैं ? सांख्य सुत्रों के आधार पर यह प्रश्न बिषयाकार चित्त में स्थित पुरुष स्वयं से पूछता है । पतंजलि योग सूत्र में पुरुष तो वही है जो सांख्य दर्शन का पुरुष है लेकिन पुरुष विशेष के रूप में ईश्वर को देखते हैं , महर्षि पतंजलि । यहाँ ईश्वर प्रेणना से बिषयाकार पुरुष स्वयं से पूछता रहता है कि मैं कौन हूँ । पुरुष की यही सोच स्वाध्याय है।
स्व + अध्याय अर्थात स्वयं के मूल अस्तित्व की तलाश पर चित्त को केंद्रित बनाये रखना । ईश्वर प्रणिधान का सम्बन्ध भक्ति योग से है। यहाँ कुसह और नहीं करना है केव्वल चित्त को बिषयाकार से ईश्वराकार बनाना है जो एक कठिन काम है । जहाँ सांख्य , योग , तंत्र और अन्य साधनाएं जा कर रुक सी जाती हैं वहां सामने एक तख्ती लटकती दिखती है , जिस पर लिखा होता है - आपका भक्ति में स्वागत है ।
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