Wednesday, March 30, 2011

अध्याय तीन






गीता- सूत्र 5.7



प्रभु कह रहे हैं--------



कर्म – योगी वह है जो कर्म बंधनों से मुक्त हो ।



The Supreme Lord Krishna says ------



Karma – Yogin is that who is not attached to actions .



कर्म – बंधन क्या हैं ?



सात्त्विक , राजस एवं तामस गुण जब मनुष्य को एक यन्त्र कि भाति चला रहे हों तब वह


ब्यक्ति गुणों के प्रभाव में जो कुछ भी करता है , वह उन कर्मों का गुलाम होता है



कर्म – बंधन हैं ….....


आसक्ति


कामना


क्रोध


लोभ


मोह


भय


अहंकार


और -------


जो कर्म इनके प्रभाव में होते हैं उन कर्मों में वह ऊर्जा होती है


जो करनें वाले को गुलाम बना लेती है




=====ओम=======


Thursday, March 24, 2011

कर्म के प्रकार




यहाँ गीता अध्याय – 03 के सूत्र – 3.17 – 3.18 के सन्दर्भ में आगे देखनें जा रहे हैं ----



कर्म के प्रकार :

यहाँ हमें देखना है गीत सूत्र - 18.23 से 18.25 तक के तीन सूत्रों को

सूत्र कह रहे हैं ======

आसक्ति … ...

क्रोध … ......

लोभ … .....

मोह … .....

---एवं-----

अहंकार के प्रभाव में जो कर्म होते हैं वे राजस एवं तामस कर्म होते हैं

- -- और -----जो कर्म चाह रहित , अहंकार रहित एवं किसी बंधन के बिना होते हैं वे … ....

सात्त्विक कर्म होते हैं


यहाँ इतनी सी बात ध्यान में रखनी है की-----

हम इन सूत्रों को अर्जुन के प्रश्न [ यदि ज्ञान कर्म से उत्तम है तो आप मुझ को कर्म में क्यों उतारना चाहते हैं ] के सन्दर्भ में देख रहे हैं

और ----- कर्म क्या है ? इस बात को अध्याय – 08 में पहुंचनें के पहले देख रहे है

अध्याय – 08 सूत्र

तीन में प्रभु कर्म की परिभाषा देते हैं


कर्म की परिभाषा है-----


भूत भाव : उद्भव कर : विसर्ग : इति कर्म :


===== =======



Tuesday, March 22, 2011

गुण एवं कर्म विभाग



गीता - सूत्र 3.28


गुण विभाग – कर्म विभाग का बोध ही तत्त्व – वित्तु होना है


क्या है गुण विभाग

और

क्या है कर्म विभाग ?


गुण विभाग – कर्म विभाग की चर्चा वेदों में विस्तार से है

वेद कहते हैं ------

प्रभु से प्रभु में तीन गुणों का एक माध्यम है जो साश्वत है , समयातीत है , सीमा रहित है

यह माध्यम ही माया कहा जाता है माया टाइम – स्पेस की रचना करती है और टाइम – स्पेस

में जीव – निर्जीव एवं जड़ – चेतन सभी हैं

माया तो जन्म – मृत्यु से परे है लेकिन जो माया से है वह जन्म – मृत्यु में सीमित होता है

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई सूचना नहीं और ऎसी कोई जगह नहीं जहां तीन गुणों का प्रभाव

न हो


माया से माया में दो प्रकृतियाँ हैं ; जड़ एवं चेतन या अपरा एवं परा

जड़ प्रकृति में आठ तत्त्व होते हैं ; पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार और परा प्रकृति

चेतना है

जड़ एवं चेतना प्रकृतियों से सभी सूचनाएं हैं जिनमें मनुष्य भी आत है

प्रकृति से इन्द्रियों एवं मन द्वारा जो कुछ भी ग्रहण किया जाता है उस से हमें तीन गुणों की

कुछ – कुछ मात्राएँ मिलती हैं यह मात्राएँ हमारा स्वभाव का निर्माण करती हैं एयर स्वभाव से

कर्म होता है

गुण कर्म करता है और मनुष्य तो मात्रा यंत्रवत एक माध्यम है जो लोग स्वयं को करता समझते हैं

उन पर अहंकार का गहरा प्रभाव होता है


कर्म और गुण का जो सम्बन्ध ऊपर अभी स्पष्ट किया गया उसे ही ------

गुण विभाग एवं कर्म विभाग की संज्ञा दी गयी है , हमारे वेदों में

गीता में यहाँ यह बात वेदों एवं सांख्य – योग से ली गयी है


==== ======


Monday, March 21, 2011

गीता अध्याय - 03

दो सूत्र और ------

गीता सूत्र - 3.17 + 3.18

आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति पूर्ण रूप से मुक्त होता है ;
वह किसी का गुलाम नहीं होता और वह कर्तब्य मुक्त भी होता है ॥

यहाँ गीता सूत्र - 4.18 को भी देखिये -----

आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति ........
कर्म में अकर्म और ----
अकर्म में कर्म देखता है ॥

कुछ देखिये ----
कुछ पढ़िए ----
और कुछ देर गीता में दुबे रहनें का अभ्यास करें ......
तब आप ----
परम सत्य में रहने का .....
आनंद उठा सकते हैं ॥
==== ॐ ======

Sunday, March 20, 2011

गीता अध्याय - 03




गीता के तीन और श्लोक -----

श्लोक .......
3.19 + 3.20 + 5.10
यहाँ श्लोक कह रहे हैं -------

आसक्ति रहित कर्म , कर्म सिद्धि के माध्यम हैं ॥
राजा जनक आसक्ति रहित कर्म करते हुए विदेह कह लाये ॥
ऐसा कर्म प्रभु - मार्ग होता है ॥

क्या कर्म जो हम करते हैं वह बिना आसक्ति हो , ऐसा संभव भी है ?
कौन और क्यों ऐसा कर्म करेगा जिसके करनें के पीछे कोई सोच न हो ?
गीता जिस कर्म की बात करता है वह कर्म - योग है
और ......
ऐसा कर्म मात्र वह कर सकता है जो गुणों के गुरुत्व से परे बसेरा बनाया हुआ हो ॥


जे कृष्णामूर्ति और चन्द्रमोहन रजनीश यही कहते रहे की ........

moment to moment जीवो ----
जीवन का हर पल होश मय होना चाहिए ------
भूत और भविष्य की सोच तो एक भ्रम है .........
वर्तमान में जीवन है .........
आदि - आदि ॥
ये जो बातें कही जा रही हैं उनका सम्बन्ध साधना से दूर - दूर तक नहीं है ,
ये बातें तो .....
साधाना के फल हैं ॥
जैसे गीता कहता है की ......
आसक्ति रहित कर्म करना चाहिए अर्थात जो कर्म हो रहा है उसमें यह होश बनाओ की -----
यह काम तुम क्यों कर रहे हो ?
इसका जो परिणाम होगा उसे तुझे ही भोगना है ,
करतेकरते यदि इस प्रकार कुछ अहम् बातों को गहराई से सोचा जाए तो ......
वह कर्म करता , वहीं पहुंचता है .......
जहां की बात ......
जे कृष्णामूर्ति और रजनीश कहते हैं ॥

===== ॐ ======


Friday, March 18, 2011

गीता अध्याय - 03

यहाँ हम इन्द्रिय , बिषय और स्वभाव के संबंधमें
गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं :

सूत्र - 2.14 + 5.22

इन्द्रिय - बिषय के सहयोग से जो सुख मिलता है उस सुख में
दुःख का बीज होता है और
ऐसा सुख या दुःख क्षणिक होता है
सूत्र - 18.38

इन्द्रिय - बिषय के सहयोग से जो सुख मिलता है वह भोग के समय
तो अमृत सा लगता है पर उसका परिणाम बिष मय होता है ॥

सूत्र - 3.8

सभी कर्म दोष युक्त होते हैं [ सूत्र - 18.48] लेकीन नियत कर्मों को करते रहना चाहिए और इनके करनें में कर्म - बंधनों के प्रति होश बनाना ही , कर्म - योग होता है ॥


TE
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यह वह जगह है जहां राजा कर्ण की सेना
महाभारत - युद्ध के समय ठहरी थी


===== ॐ ======

Thursday, March 17, 2011

गीता अध्याय - 03




गीता सूत्र - 3.5 के साथ इन सूत्रों को भी देखिये -----

सूत्र - 3.27 + 3.33 + 18.59 + 18.60

गीता के इन चार सूत्रों का भाव है .......

तीन गुण मिल कर स्वभाव का निर्माण करते हैं -------
स्वभाव से मनुष्य कर्म करता है ----
कर्म में मैं का होना अहंकार का सूचक है ॥

As mentioned above , the gita - four verses say .......

three natural modes form the nature of beings ,
nature of an indivisual is resposible for the type of action he performs .
presence of feeling in the action that i did this or that, is the indication of
ego .

गीता का यह अध्याय कर्म - योग की बुनियादी बातों को बताता है
अतः आप यहाँ एक - एक सूत्र को गंभीरता
से पकडनें का अभ्यास करें ॥

यहाँ हम मात्र अध्याय तीन पर आश्रित नहीं है कर्म - योग से सम्बंधित
सम्पूर्ण गीता के सूत्र
आप को यहाँ मिलनें वाले हैं ,
यह आप पर निर्भर है की ......
आप इन सूत्रों से क्या निकालते हैं ॥

View Larger Map==== ॐ ======

Tuesday, March 15, 2011

गीता अध्याय - 03




गीता सूत्र - 3.5

सूत्र कहता है :----
मनुष्य कर्म करता है गुणों की ऊर्जा से ; गुण कर्म करता हैं ॥
this gita - verse says :----
three natural modes - the vital components of the nature ,
are producing the energy
in human beings which compels every one for action .

अब यहाँ गीता के दो और सूत्रों को देखते हैं :

सूत्र - 18.11 + 18.48

सूत्र कहते हैं ;----
कर्म - त्याग तो संभव नहीं लेकीन कर्म में कर्म - फल का न होना
कर्म करता को कर्म त्यागी बनाता है ॥
और अगला सूत्र कहता है :
ऐसा कोई कर्म नहीं जिसमे दोष न हों लेकीन फिरभी सहज कर्मों को तो करना ही चाहिए ॥
here Gita says :
no boby can escape from action because action is due to
three natural modes and there is nothing without modes,
these are always in all beings .
action without the hope of its fruit , makes one karm - sanaasi.
all actions are having sins but normal actions should not be avoided
which are the requirement of the nature .
action which are the essential requirement of the nature must not be avoided .
अब आप जो भी करते हैं उनको अपनें कर्म - योग का माध्याम बना सकते हैं यदि आप
गीता के कर्म - योग सूत्रों को अपनाते हैं , तब ॥

===== ॐ ======

Monday, March 14, 2011

गीता अध्याय - 03

 

अध्याय के सूत्रों से मैत्री स्थापित करो

 

कुछ दिन आप गीता को अपनें पास रखें और अपनें अन्तः करण में यही सोचते रहें की :------

जब ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझको कर्म में क्यों डालना चाहते हैं ?

यह प्रश्न अर्जुन की बुद्धि में कैसे और क्यों आया होगा ?

प्रश्न का बुद्धि में होना इस बात का संकेत हैं की बुद्धि में संदेह है ;

संदेह अज्ञान का लक्षण है . भ्रमित बुद्धि भगाती है और भ्रम तामस गुण का एक असरदार तत्त्व है /

प्रभु श्री कृष्ण अध्याय - दो में ऎसी कौन सी बात कहते हैं की अर्जुन

अध्याय - तीन के प्रारम्भ में ही ज्ञान को कर्म से उत्तम समझ बैठते हैं ?

आइये , देखते हैं एक झलक अध्याय - दो की और फिर अध्याय - तीन के उन श्लोकों से मैत्री स्थापित करेंगे जो कर्म - ज्ञान योग से सम्बंधित हैं /

अध्याय - दो में प्रभु के 63 श्लोक हैं जिनमें से -------

[क] आत्मा के सम्बन्ध में पन्द्रह श्लोक हैं ……..

[ख] स्थिर प्रज्ञ से सम्बंधित अट्ठारह श्लोक हैं ……

[ग] इन्द्रिय , बिषय एवं मन साधना से सम्बंधित क्रम - योग के बाईस

श्लोक हैं …….

और -----

[घ] गीता - वेदों के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं पांच श्लोक

अब आप ऊपर दिए गए 60 सूत्रों में झाँक कर देखें की क्या इनमें अर्जुन

के प्रश्न - उठनें की संभावना है ?

अर्जुन का ज्ञान क्या है ?

प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन कहते हैं ------

ज्ञान दो प्रकार का होता है ; एक मुर्दा ज्ञान जो किताबों से मिलता है और

दूसरा प्राण मय ज्ञान होता है जो बूँद - बूँद चेतना से बुद्धि में कभी – कभी

टपकता है /

आइन्ताइन की यह बात ऎसी है जैसे आइन्स्टाइन के रूप में प्रभु श्री कृष्ण बोल रहे हों /

अर्जुन शात्रों की बातों को मात्र रटने को ज्ञान समझते हैं जबकि -----

प्रभु उसे ज्ञान कहते हैं जो -----

साधना के फल के रूप में मिलता है --- देखें गीता – 4.38 श्लोक को /

आगे अब हम अध्याय - तीन के साधना - सूत्रों से मैत्री स्थापित करेंगे //

===== ओम =======

Saturday, March 12, 2011

गीता अध्याय - 03

कर्म -योग सूत्र - 01

यहाँ गीता के कुछ सूत्र अध्याय तीन से तथा उनके समर्थन में कुछ सूत्र अन्य अन्य अध्यायों से एकत्रित करते
यह कर्म - योग का एक मार्ग साधाना की दृष्टि से तैयार किया जा रहा है , तो आइये देखते हैं उन सूत्रों को ॥

सूत्र - 3.4
प्रभु कहते हैं :
कर्म - त्याग से नैष्कर्म - सिद्धि पाना असंभव है -----
प्रभु की यह बात अनेक प्रश्नों को खडा करती है अतः प्रश्न रहित इस सूत्र को बनानें के लिए आप निम्न
श्लोकों को भी देखें :-------
सूत्र - 18.49 - 18.50
आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म - सिद्धि मिलती है ॥
सूत्र - 2.48
आसक्ति रहित कर्म , समतत्व - योग है ॥
सूत्र - 18.20
समतत्व - योगी सब को प्रभु से प्रभु में देखता है और सात्त्विक - गुनी होता है ॥
सूत्र - 2.57
समतत्व - योगी ग्यानी होता है ॥
सूत्र - 6.29 - 6.30
जो सब को प्रभु से प्रभु में देखता है प्रभु उसके लिए निराकार नहीं रहता ॥
सूत्र - 13.28 - 13.29
जो सब में प्रभु को देखता है वह सीधे परम धाम यात्रा पर होता है ॥
दस सूत्रों को आप आज अपनाओ और प्रभु में अपनें मन - बुद्धि को स्थिर करो और आगे अगले अंक में
गीता के कुछ और मोतियों को देखेंगे ॥

==== ॐ =====

Friday, March 11, 2011

गीता अध्याय - 03

 

कर्म - योग सूत्र

इस अध्याय में कर्म - योग सूत्रों के सम्बन्ध में हम यहाँ निम्न सूत्रों को देखनें जा रहे हैं :--------

3.4 , 3.5 , 3.8, 3.17 , 3.18 ,

3.19 , 3.20 , 3.27 , 3.28 , 3.33

18.49 – 18.50 , 2.48 , 18.20

2.57 , 6.29 , 6.30 , 13.28 – 13.29

18.11 , 14.48 , 18.59 – 18.60

2.14 , 8.3 , 5.22 , 18.38 , 5.10 , 4.18

18.23 , 18.24 , 18.25

इस अध्याय में अर्जुन का प्रश्न है :----

मनुष्य हठात न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ?

इस प्रश्न के सम्बन्ध में हम निम्न सूत्रों को देखेंगे :----

सूत्र – 3.36 – 3.43 तक और ------

सूत्र – 5.23 , 5.26 , 2.62 , 16.21 , 10.28 , 7.11

अब आप उठाइये गीता और ऊपर दिए गए सूत्रों को एक साथ देखें

और उन पर मनन करें , आगे हम इन सूत्रों पर चर्चा करनें वाले हैं /

परमात्मा आप को सत बुद्धि दे //

Wednesday, March 9, 2011

अध्याय - 03

 

अध्याय तीन में हमनें तीन सूत्रों को देखा - सूत्र 3.6 , 3.7 , 3.34 //

ये  सूत्र कर्म- योग के अहम सूत्र हैं ; इनके माध्यम से प्रभु कहते हैं ----

इन्द्रियों को हठात नियोजित नहीं करना चाहिए ….

इन्द्रियों से मैत्री बना कर उनको बश में रखना चाहिए ----

सभी बिषयों में राग - द्वेष होते हैं जो -----

इन्द्रियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं //

 

अब इन तीन सूत्रों के साथ इनको भी देखते हैं -----

 

सूत्र – 2.64 – 2.65

नियोजित इन्द्रियों वाला प्रभु प्रसाद रूप में स्थिर प्रज्ञता पाता है और ----

परम आनंद में रहता है //

 

सूत्र 4.10 , 2.56

यहाँ प्रभु कहते हैं ----

राग भय क्रोध रहित ब्यक्ति ज्ञानी - मुनि होता है //

आज इतना ही

==== ओम ======

Monday, March 7, 2011

गीता अध्याय - 03

 

 

अध्याय की एक झलक

 

[क] ध्याय का प्रारंभिक सूत्र अर्जुन के प्रश्न रूप में है , अर्जुन कहते हैं -----

यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो आप मुझे कर्म में क्यों उतार रहे हैं ?

[ख] उत्तर के प्रारम्भ में प्रभु कहते हैं -----

दो प्रकार के योगी हैं जो मुझसे जुड़ते हैं ; सांख्य योगी ज्ञान के माध्यम से

और अन्य योगी कर्म के माध्यम से मुझ से जुड़ते हैं .

[ग] प्रश्न एक के सम्बन्ध में रभु जो कुछ भी बताए हैं उनमें दो बातें प्रमुख हैं ……..

** इन्द्रिय - बिषय ध्यान ----

** कर्म – योग

[घ ] मनुष्य पाप कर्म क्यों करता है ?

इस अध्याय में यह अर्जुन का दूसरा प्रश्न है .

अब हम आगे इस अध्याय में इन बातों पर चर्चा करेंगे

आज इतना ही

 

===== ओम ========

Sunday, March 6, 2011

गीता अध्याय - 03

 

भाग – 06

इन्द्रिय - बिषय योग सूत्र

गीता के इस अध्याय में निम्न तीन सूत्र इन्द्रिय एवं बिषय साधना से संबंद्धित हैं -----

3.6 , 3.7 , 3.34

सूत्र – 3.6

सूत्र कहता है -----

जो लोग कर्म - इन्द्रियों को हठात बश में रखते हैं उनमें अहंकार पूर्ण सघन होता है

सूत्र – 3.7

यहाँ यह सूत्र कहता है ------

नियोजित इन्द्रियों के माध्यम से होनें वाला कर्म आसक्ति रहित होता है जिसको कर्म - योग कहते हैं

सूत्र – 3.34

सूत्र कहता है -----

सभी बिषयों में राग - द्वेष भरे हैं जो इन्द्रियों को सम्मोहित करते हैं

गीता के तीन सूत्र कर्म - योग की तीन बातों को बताते हुए कहते हैं ……….

पहले ………

अपनें ज्ञानेन्द्रियों की चाल आर नज़र रखो ------

फिर

उस इन्द्रिय के उस बिषय को समझो जो उसे अपनी ओर खीच रहा है

फिर

यह समझो की ------

यह इन्द्रिय - बिषय का योग जो होनें जा रहा है , वह …..

[क] क्या क्षणिक सुख देगा ?

[ख] क्या उस सुख का परिणाम दुःख होगा ?

[ग] क्या यह इन्द्रिय - बिषय मिलन भोग है जो इन्द्रिय तृप्ति तक   सीमित होगा या ……

[घ] यह मिलन प्रकृति की जरूरतों को पूरा करनें वाला है ?

बिषय - इन्द्रिय मिलन की परख ------

[क] भोग में पहुंचाती है -----

या

[ख] योग में पहुंचा कर …..

परम सत्य में स्वयं को स्वयं से परिचय कराती है

जो किसी भी को ……

परम आनंद से भर सकती है

===== ओम ======

Friday, March 4, 2011

गीता अध्याय - 03

भाग - 05

गीता अध्याय तीन का प्रारम्भ अर्जुन के इस प्रश्न से हो रहा है -----
यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो ----
आप मुझको कर्म में क्यों लगाना चाहते हैं ?
और .....
अध्याय पांच का प्रारम्भ अर्जुन के इस प्रश्न से होता है -------
कभी आप कर्म योग की बात करते हैं .....
और .....
कभी कर्म - संन्यास की ....
आप मुझे यह बाताएं की इन दोनों में कौन सा मेरे हित में है ?

कर्म
कर्म - योग
कर्म संन्यास
और
ज्ञान का आपस में गहरा सम्बन्ध है :------
कर्म अभ्यास का एक मार्ग है जहां ....
कर्म - बंधनों के प्रति होश बनाया जा सकता है , यह होश ----
आम कर्म को कर्म - योग में बदल देता है ,
और कर्म योग में गुण तत्त्वों की पकड़ों को ढीला करनें का अभ्यास
कर्म - फल , आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय
और ....
अहंकार का त्याग होता है
और ....
जो कर्म संन्यास के नाम से जाना जाता है ...
कर्म संन्यास का अर्थ कर्म - त्याग से नहीं है ,
कर्म संन्यास का अर्थ है कर्म तत्त्वों की पकड़ का त्याग हो जाना ।
कर्म त्याग में ज्ञान की प्राप्ति होती है , जिसको
कर्म के अनुभव से जोड़ कर देखा जाना चाहिए ॥

====== ॐ ======

Tuesday, March 1, 2011

गीता अध्याय - 03




भाग - 04

पहले अंक में बताया गया है की हम इस अध्याय को दो भागों में देख रहे हैं ;
जिसमें ----
[क]पहले भाग में अर्जुन का प्रश्न है ......
यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है फिर आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?
इस भाग को भी हम दो भागों में देखेंगे ; कर्म - ज्ञान सम्बंधित श्लोकों को एक साथ ले रहे हैं और
इद्रिय - बिषय सम्बंधित श्लोकों को एक साथ , ऐसा करनें से ध्यान की दृष्टि से प्रभु की बातों को समझनें
में आसानी रहेगी ।
[ख] इस भाग में अर्जुन के दुसरे प्रश्न को देखना है जो इस प्रकार से है ----
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ?
[क] कर्म एवं ज्ञान योग श्लोक
यहाँ हम देखते हैं श्लोक - 3.3 को जो कहता है ------
दो प्रकार के योगी हैं ; एक साँख्य - योगी और दुसरे कर्म योगी ।
साँख्य का अर्थ है - बुद्धि या ज्ञान जहां निराकार की साधाना होती है
और कर्म , योगका एक सहज साधन है जिसमें
कर्म के माध्यम से साधना आगे चलती है ।
जो लोग यहीं इस श्लोक पर रुक गए उनको गीता - सागर का दर्शन संभव नहीं और जो
अपनी बुद्धि को सम्पूर्ण गीता में फैलायेंगे उनको यह भी देखनें को मिलेंगे ------
गीत सूत्र - 13.25 में प्रभु कहते हैं ----
मेरी ओर रुख करनें के तीन मार्ग हैं ; साँख्य , कर्म और ध्यान ।
और यदि आप कुछ और आगे चलें तो गीता सूत्र - 18.55 - 18.56 में प्रभु कहते हैं -----
मेरा परा भक्त मुझको तत्त्व से जान कर मुझमें समा जाता है ॥
अब आप एक बार पुनः गीता की गंभीरता को देख लें ----
अध्याय तीन में दो मार्ग मिले .... ज्ञान और कर्म का
अध्याय तेरह में एक और मार्ग मिला ध्यान का और .....
अध्याय अठ्ठारह में एक और मार्ग मिला , भक्ति का ....
अब हम आगे चल कर यह देखनें वाले हैं की
इनका आपस में क्या कोई सम्बन्ध है ?
अभी आप के लिए इतना ही ------

==== ॐ ======

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