Monday, March 14, 2011

गीता अध्याय - 03

 

अध्याय के सूत्रों से मैत्री स्थापित करो

 

कुछ दिन आप गीता को अपनें पास रखें और अपनें अन्तः करण में यही सोचते रहें की :------

जब ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझको कर्म में क्यों डालना चाहते हैं ?

यह प्रश्न अर्जुन की बुद्धि में कैसे और क्यों आया होगा ?

प्रश्न का बुद्धि में होना इस बात का संकेत हैं की बुद्धि में संदेह है ;

संदेह अज्ञान का लक्षण है . भ्रमित बुद्धि भगाती है और भ्रम तामस गुण का एक असरदार तत्त्व है /

प्रभु श्री कृष्ण अध्याय - दो में ऎसी कौन सी बात कहते हैं की अर्जुन

अध्याय - तीन के प्रारम्भ में ही ज्ञान को कर्म से उत्तम समझ बैठते हैं ?

आइये , देखते हैं एक झलक अध्याय - दो की और फिर अध्याय - तीन के उन श्लोकों से मैत्री स्थापित करेंगे जो कर्म - ज्ञान योग से सम्बंधित हैं /

अध्याय - दो में प्रभु के 63 श्लोक हैं जिनमें से -------

[क] आत्मा के सम्बन्ध में पन्द्रह श्लोक हैं ……..

[ख] स्थिर प्रज्ञ से सम्बंधित अट्ठारह श्लोक हैं ……

[ग] इन्द्रिय , बिषय एवं मन साधना से सम्बंधित क्रम - योग के बाईस

श्लोक हैं …….

और -----

[घ] गीता - वेदों के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं पांच श्लोक

अब आप ऊपर दिए गए 60 सूत्रों में झाँक कर देखें की क्या इनमें अर्जुन

के प्रश्न - उठनें की संभावना है ?

अर्जुन का ज्ञान क्या है ?

प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन कहते हैं ------

ज्ञान दो प्रकार का होता है ; एक मुर्दा ज्ञान जो किताबों से मिलता है और

दूसरा प्राण मय ज्ञान होता है जो बूँद - बूँद चेतना से बुद्धि में कभी – कभी

टपकता है /

आइन्ताइन की यह बात ऎसी है जैसे आइन्स्टाइन के रूप में प्रभु श्री कृष्ण बोल रहे हों /

अर्जुन शात्रों की बातों को मात्र रटने को ज्ञान समझते हैं जबकि -----

प्रभु उसे ज्ञान कहते हैं जो -----

साधना के फल के रूप में मिलता है --- देखें गीता – 4.38 श्लोक को /

आगे अब हम अध्याय - तीन के साधना - सूत्रों से मैत्री स्थापित करेंगे //

===== ओम =======

No comments:

Post a Comment

Followers