Tuesday, March 1, 2011
गीता अध्याय - 03
भाग - 04
पहले अंक में बताया गया है की हम इस अध्याय को दो भागों में देख रहे हैं ;
जिसमें ----
[क]पहले भाग में अर्जुन का प्रश्न है ......
यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है फिर आप मुझको कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?
इस भाग को भी हम दो भागों में देखेंगे ; कर्म - ज्ञान सम्बंधित श्लोकों को एक साथ ले रहे हैं और
इद्रिय - बिषय सम्बंधित श्लोकों को एक साथ , ऐसा करनें से ध्यान की दृष्टि से प्रभु की बातों को समझनें
में आसानी रहेगी ।
[ख] इस भाग में अर्जुन के दुसरे प्रश्न को देखना है जो इस प्रकार से है ----
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ?
[क] कर्म एवं ज्ञान योग श्लोक
यहाँ हम देखते हैं श्लोक - 3.3 को जो कहता है ------
दो प्रकार के योगी हैं ; एक साँख्य - योगी और दुसरे कर्म योगी ।
साँख्य का अर्थ है - बुद्धि या ज्ञान जहां निराकार की साधाना होती है
और कर्म , योगका एक सहज साधन है जिसमें
कर्म के माध्यम से साधना आगे चलती है ।
जो लोग यहीं इस श्लोक पर रुक गए उनको गीता - सागर का दर्शन संभव नहीं और जो
अपनी बुद्धि को सम्पूर्ण गीता में फैलायेंगे उनको यह भी देखनें को मिलेंगे ------
गीत सूत्र - 13.25 में प्रभु कहते हैं ----
मेरी ओर रुख करनें के तीन मार्ग हैं ; साँख्य , कर्म और ध्यान ।
और यदि आप कुछ और आगे चलें तो गीता सूत्र - 18.55 - 18.56 में प्रभु कहते हैं -----
मेरा परा भक्त मुझको तत्त्व से जान कर मुझमें समा जाता है ॥
अब आप एक बार पुनः गीता की गंभीरता को देख लें ----
अध्याय तीन में दो मार्ग मिले .... ज्ञान और कर्म का
अध्याय तेरह में एक और मार्ग मिला ध्यान का और .....
अध्याय अठ्ठारह में एक और मार्ग मिला , भक्ति का ....
अब हम आगे चल कर यह देखनें वाले हैं की
इनका आपस में क्या कोई सम्बन्ध है ?
अभी आप के लिए इतना ही ------
==== ॐ ======
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