कर्म-त्याग असंभव है ---------
गीता-श्लोक 3.4- 3.5 कहते हैं ..........
मनुष्य गुणों के प्रभाव में कर्म करता है अतः भौतिक स्तर पर कर्म रहित होना सम्भव नहीं और कर्म न करनें से कर्म की सिद्धि नहीं मिलती जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
गीता के इन श्लोकों में कर्म-योग का एक समीकरण है जिसको समझनें से गीता का कर्म स्पष्ट होता है और जो इस प्रकार से है ............
गुणों का प्रभाव कर्म-उर्जा को पैदा करता है तथा उसका संचालन भी करता है ।
कर्म रहित होना सम्भव नहीं , सभी गुणों के प्रभाव में होनें वाले कर्म भोग- कर्म होते हैं और ऐसे कर्म दोष पूर्ण भी होते हैं ।
कर्म गीता में संन्यास का माध्यम है और यह एक सहज माध्यम है । कर्म से बैराग्य तक की यात्रा तब
सम्भव है जब यह समझ आए की --------
[क] गुन क्या हैं ?
[ख] हम जो करनें जा रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ?
[ग] कर्म करनें के भाव से गुणों को समझनें का गहरा अभ्याश होना चाहिए ।
अब कुछ और बातों को भी देखते हैं ---------
मनुष्य के अंदर तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है [गीता 14.10] जो मनुष्य को कर्म
करनें की उर्जा देता है । गुन एवं कर्म के संभंध को समझनें के लिए देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ........
2.14, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 18.11, 18.38 और अब आगे -----------
कर्म जब बिना आसक्ति के होते हैं तब उन कर्मों से सिद्धि मिलती है तथा जिस से ज्ञान की प्राप्ति होती है,यहाँ देखिये गीता श्लोक 18.49- 18.50, 3.19- 3.20 को ।
आसक्ति का कर्म में न होना बिषय पर आप खूब सोच सकते हैं और आप की सोच जितनी गहरी होगी ,परिणाम
उतना ही अच्छा होगा ।
कर्म-योग की सिद्धि क्या है ?
कर्म होनें के पीछे जब कर्म-तत्वों जैसे चाह, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह , भय आदि की अनुपस्थिति हो तब उस कर्म से सिद्धि का द्वार खुलता है ।
गीता-सूत्र 8.3 में परम श्री कृष्ण कर्म की परिभाषा इस प्रकार से देते हैं -------
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः अर्थात ------
जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है ....अब आप उस परिभाषा पर नजर डालें जो
आप की अपनी परिभाषा है ।
====ॐ=======
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