आप गीता में आमंत्रित हैं , आइये देखते हैं गीता के नौ सूत्रों को जो कर्म,आसक्ति ,कर्म-फल एवं संन्यास
का एक समीकरण देते हैं ।
2.47, 2.48, 18.6, 18.9, 18.11, 6.1, 3.19, 18.49, 18.50,
ऊपर के सूत्रों का सारांश
आसक्ति रहित कर्म एवं कर्म फल-चाह रहित कर्म संन्यास में पहुंचाता है । कर्म होनें के पीछे जब आसक्ति तथा
कामना नहीं होती तो इसको आसक्ति-कामना का त्याग कहते हैं । ऐसे कर्म से नैष्कर्म - सिद्धि मिलती है
जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है । परा निष्ठा वाला ब्रह्म की खुशबू को पाता है । अब आगे देखिये गीता -सूत्र
3.34, 2.67-2.68, 2.62-2.63, 3.37 जिनसे योग का द्वार खुलता है ।
ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने बिषयों से आकर्षित होती हैं क्योंकि उनमें राग-द्वेष होते हैं जो इन्द्रियों को आकर्षित करते हैं ,इन्द्रियों का सम्मोहन मन-बुद्धि को भी सम्मोहित करता है । सम्मोहित मन बिषय पर जब मनन करता है तब कामना उठती है , कामना खंडित होनें पर क्रोध पैदा होता है जो अज्ञान- का साकार रूप है । आसक्ति कामना की जननी है , कामना क्रोध की जननी है , क्रोध अज्ञान- है जो बुद्धि में ज्ञान को छिपा कर रखता है ।
अब आप उठाइये गीता और ऊपर के सूत्रों को एक-एक करके बैठाइए अपनें अन्दर और तब आप को जो मिलेगा वह
होगा आप के जीवन का विकार रहित पथ।
Tuesday, November 17, 2009
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