गीता श्लोक 3.3 कहता है ---------
गीता का यह श्लोक कर्म एवं ज्ञान के सम्बन्ध में है क्योंकि अर्जुन का दूसरा प्रश्न इन दोनों को समझनें
के लिए होता है ।
गीता के इस सूत्र के माध्यम से परम श्री कृष्ण कहते हैं ........
दो प्रकार के योगी हैं ; एक का केन्द्र बुद्धि होती है और दूसरे का केन्द्र कर्म होता है ।
जो लोग बुद्धि मार्ग से साधना करते हैं उनको तत्व-ज्ञानी , सांख्य-योगी या ज्ञान - योगी का नाम दिया जाता है ।
प्रोफ़ेसर एल्बर्ट आइन्स्टाइन के सम्बन्ध में कहा जाता है की वे कई घंटे अपनें बाथ-टब में गुजारते थे जहाँ साबुन की झांक में उनको तारे दीखते थे और बाथटब में ब्रह्माण्ड दिखता था । यह महानतम वैज्ञानिक कहता है ----ज्ञान दो प्रकार का होता है ; एक मुर्दा ज्ञान है जो किताबों से मिलता है और दूसरा सजीव ज्ञान होता है जो चेतना से बुद्धि में बूँद-बूद टपकता है ।
बुद्धि का आधार है - तर्क और तर्क संदेह आधारित होता है । संदेह से श्रद्धा तक की ज्ञान मार्ग की यात्रा
बहुत कठिन यात्रा है और इस यात्रा में कामयाब होनें वालों को शादियों बाद देखा जाता है जो दुर्लभ योगी
होते हैं । शाश्रों को पढनें से ज्ञान की प्राप्ति होती है - यह कहना पुर्णतः सत्य नहीं है क्योकि गीता श्लोक
13.2 में परम श्री कृष्ण ज्ञान के सम्बन्ध में कहते हैं -------
क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है। अब आप परम के छोटे से सूत्र को समझिये , जिसमें योग का प्रारम्भ ,
मध्य एवं अंत है । क्षेत्र क्या है ? विकारों के साथ अपरा- परा प्रकृतियों का योग , तीन गुनतथा आत्मा- परमात्मा से क्षेत्र की रचना है जिसमें निर्विकार आत्मा- परमात्मा को क्षेत्रज्ञ बताया गया है ।
गीता कहता है -----
परिधि से केन्द्र तक की अनुभूति से ज्ञान मिलता है अर्थात हम भोग से भोग में हैं , संसार भोग का माध्यम है , मनुष्य का जीवन भोग के चारों तरफ़ घूमता रहता है और इस चक्कर में वह आत्मा - परमात्मा से अपनें को दूर करता चला जाता है तथा इस भाग-दौर में एक दिन जीवन लीला का अंत आजाता है ।
भोग से बैराग्य तथा बैराग्य में आत्मा- परमात्मा की झलक पाना , मनुष्य के जीवन का उद्धेश्य है ।
कर्म - योग में कर्म की पकड़ की साधना, भोक कर्म को योग-कर्म में बदल देती है और योग कर्म के माध्यम से बैराग्य में योग - सिद्धि मिलनें पर आत्मा- परमात्मा का बोध होता है ।
====ॐ=======
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