Thursday, December 3, 2009

गीता ज्ञान - 12

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात
स्वधर्मे निधनं श्र्येय: पर धर्मो भयावह:----गीता सूत्र 3.35
हे अर्जुन! गुण रहित अपना धर्म सगुण पराये धर्म से उत्तम है , अपनें धर्म में मरजाना भी उत्तम है और
दूसरे के धर्म को धारण करनें में भय है ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्टितात
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम ---गीता सूत्र 18.47
हे अर्जन! विगुण स्व धर्म सगुण पर धर्म से उत्तम है , अपनें धर्म में स्वभाव के अनुकूल कर्म होते हैं जिनमें
कोई पाप की संभावना नहीं होती ।
दोनों श्लोकों की पहली लाइन एक हैं और अंत का अक्षर हलंत है तथा दूसरे श्लोक की दूसरी लाइन का आखिरी अक्षर भी हलंत है ।
परम श्री कृष्ण का श्लोक 3.35 अर्जुन के प्रश्न - २ के सन्दर्भ में बोला गया है और प्रश्न कर्म एवं ज्ञान
से सम्बंधित है । गीता श्लोक १८.४७ अर्जुन के आखिरी प्रश्न [प्रश्न - १६ ] से सम्बंधित है और जिसका सम्बन्ध संन्यास-त्याग से है ।
आइये ! अब हम बुद्धि के आधार पर परम श्री कृष्ण की बातों को समझनें के लिए गीता के इन सूत्रों को देखते हैं -----
2.14, 2.45, 3.5, 3.17, 3.27, 3.33, 5.22, 8.3, 14.10, 18.38, 18.59, 18.60
गीता कह रहा है ---
मनुष्य में तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है जो प्रकृति से ग्रहण की जानें वाली बस्तुओं से बदलता है । गुण कर्म के श्रोत हैं , ऐसे सभी कर्म भोग कर्म होते हैं ,जिनके सुख में दुःख का बीज होता है ।
गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है । मन्दिर का निर्माण करवाना , यज्ञ करवाना से ले कर मदिरा पीनें तक - सभी गुण आधारित कर्म भोग कर्म हैं ।
गीता कहता है -----
भूतभावोद्भवकरो स: कर्मः और यह भी कहता है -------
स्वभावोअध्यातंम उच्यते --------
जो भावातीत की स्थिति दे , वह कर्म है और मनुष्य का मूल स्वभाव , अध्यात्म है ।
भावातीत में पहुँचा ब्यक्ति करता नहीं द्रष्टा होता है , द्रष्टा के अन्दर बहनें वाली उर्जा निर्विकार होती है जो
तब मिलती है जब अध्यात्म स्वभाव बन चुका होता है । निर्विकार उर्जा का संचारण तब होता है जब
भोग कर्मों में भोग तत्वों को जाना जाता है और साधना का यही काम है ।
महाभारत - युद्ध कौरव-पांडव के बीच हो रहा है , दोनों के अन्दर एक खून बह रहा है , दोनों एक परिवार के हैं , फ़िर वहाँ कौन अपना और कौन पराया है , दोनों के गुण समीकरण तथा मूल स्वभाव भी एक जैसा ही होना चाहिए
कौरव - पांडव में सभी राजस-तामस गुणों से प्राभावित हैं , कोई लोभ में है तो कोई मोह में , वहाँ मात्र एक
श्री कृष्ण ऐसे हैं जो सम भाव में हैं फ़िर परम श्री कृष्ण क्यों चाहते हैं की अर्जुन एक झेन फकीर के रूप में
भावातीत की स्थिति में युद्ध करें ।
श्री कृष्ण के लिए यह युद्ध एक नर्सरी है अर्जुन एक क्यारी हैं जिसमे परम श्री कृष्ण भावातीत का बीज रोपना चाहते हैं और यह भी समझते हैं की ऐसा मौका बार - बार नहीं मिलता तो क्यों न इसका प्रयोग किया जाए ।
आप और हम सब के लिए गीता परम श्री कृष्ण के सांख्य - योग का बीज देना चाहता है , क्या हमें उसे
अपनें में उगाना है ? यदि हाँ तो हो जाइए तैयार , यह गीता ज्ञान आप के साथ है ।
====ॐ=========

No comments:

Post a Comment

Followers