Tuesday, November 30, 2010

अहंकार की ज्वाला और ------



परमात्मा को हम दो में से किसी एक रूप में देखते हैं ;
[क] परमात्मा को खुश करके इच्छित कामाना की पूर्ति की जा सकती है ......
[ख] परमात्मा किसी के कर्म , कर्म - फल की रचना नहीं करता ।
परमात्मा सुख - दुःख का देता भी नहीं है ।

मनुष्यों में लगभग नब्बे प्रतिशाश से भी अधिक लोग यह
समझ कर प्रभु को नत मस्तक होते हैं
क्योंकि उनकी धारणा है - प्रभु के बिना कुछ संभव नहीं
अतः इनकेंन प्रकारेंन प्रभु को खुश रखनें में ही
भलाई है ।
आप ज़रा सोचना -----
एक तरफ हम यह भी समझते हैं की प्रभु बिना बताये
सब कुछ जानता है , प्रभु से कुछ भी छिपाना
संभव नहीं लेकीन इतना जानते हुए भी हम प्रभु को भी चकमा दिए बिना नहीं रहते ।
लोगों के मनोविज्ञान को समझिये ---
कोई करोड़ों का आसन भेट कर रहा है .....
कोई अपनी कंपनी की आमदनी का एक भाग नियमित रूप से
किसी निश्चित मंदिर में भेट के रूप में
चढ़ाया जाता है ।
परमात्मा यदि भौतिक बस्तुओं की प्राप्ति से खुश हो उठता है तो वह प्रभु की संज्ञा लायक नहीं ।
भोग यदि प्रभु को भी अपनी ओर खीचनें में सक्षम है तो वह खीचनें वाला प्रभु हो नहीं सकता ।
प्रभु सोना - चांदी के आभूषण नहीं चाहता , प्रभु चाहता है .....
तुम इंसान हो और इन्सार की मर्यादाओं का पालन करते रहो ।
प्रभु यह नहीं कहता ......
तुम मेरे लिए भी एक महल का निर्माण कराओ । प्रभु चाहता है ----
तुम ऐसे रहो की तेरे को देख कर अन्य जीव यह समझें की ----
हो न हो यह ब्यक्ति के रूप में प्रभु हो ॥
प्रभु के अंगों के रूप में इंसान है ।
प्रभु चाहता है की इंसान मेरे जैसा ही बन जाए और
प्रकृति - पुरुष के समीकरण को बनाए रखे ॥

===== ॐ ======

Saturday, November 20, 2010

प्रभु मय कैसे हों ?



प्रभु को सभी पाना चाहते हैं ----
प्रभु को सभी अपनें - अपनें घरों में बसाना चाहते हैं .....
लेकीन क्यों ?

क्यों की हम सब यह जानते हैं की ------
प्रभु एक बाई एक फूट की जगह में रह कर भी कुछ नहीं कहता ......
प्रभु लाची दाना खाकर भी हमारा काम करता है ......
रात को हम तो नजानें क्या - क्या खा - पी कर सो जाते हैं लेकीन प्रभु हर वक़्त जागता रहता है ....
चाहे हम कुछ भी कहें लेकीन प्रभु कोई जबाब नही देता ........

जब तक हमारी ऎसी धारणा है .....
तबतक .....
हम प्रभु मय कैसे हो सकते हैं ?
प्रभु मय होनें के लिए पहले स्वयं को गीता मय बनाना पड़ता है ....
गीता मय बननें के लिए .......
काम , कामना , क्रोध ----
लोभ , मोह , भय और ---
अहंकार की मूल को देखना पड़ता है ,
और .....
जब मूल कट जाती है , तब .....
वह ......
स्वयं प्रभु मय हो उठता है ॥

===== ॐ =====

Friday, November 19, 2010

गीता के मोती - 02



गीता के चार और मोती

गीता - 13.3

वह जिस से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , ज्ञान है ॥

गीता - 4.38

योग चाहे कोई हो , सभी योगों की सिद्धि से ज्ञान की प्राप्ति होती है ॥

गीता - 4.35

ज्ञान से मोह समाप्त होता है ॥

गीता - 5.16

ज्ञान से सत का बोध होता है ॥

ध्यान के लिए आज ये चार सूत्र आप के लिए ......

====ॐ =======

Thursday, November 18, 2010

गीता के मोती



आप को गीता के चार मोतियों को आज मैं देनें का प्रयत्न कर रहा हूँ ,
आप देखना - यदि आप के काम लायक हो
तो रख लेना अन्यथा , मुझे वापस कर देना , वह भी बिना धन्यबाद के ॥

[क] श्लोक -5.10

आसक्ति रहित कर्म करनें वाला ठीक उस तरह से भोग तत्वों से
प्रभावित नहीं होता जैसे कमल के फूल की
पंखुड़ियां पानी से प्रभावित नहीं होती ॥

[ख] श्लोक - 5.11
कर्म - योगी अपनें तन , मन और बुद्धि से जो कुछ भी करता है ,
वह उसको और पवित्र बना देता है ॥

[ग] श्लोक - 3.7

कर्म - योगी वह है जो अपने इन्द्रियों का नियोजन मन से करता हो
और कर्म अनासक्त - भाव मवन करता हो ॥

[घ] श्लोक - 4.22

कर्म - योगी जो करता है , वह उसका गुलाम नहीं होता ॥

चार श्लोक और आप , अब आप इनको जैसे प्रयोग करना चाहें कर सकते हैं ॥

===== ॐ ======

Wednesday, November 17, 2010

कर्म और गीता - 03

गीता हम कुछ ऐसे सूत्रों को देख रहे हैं
जिनका सीधा सम्बन्ध कर्म से है ।

आज यहाँ ऐसे ही कुछ और सूत्रों को देखते हैं जो इस प्रकार हैं -----
गीता सूत्र -----
3.8
3.27
3.28
3.33
18.59
18.60

गीता के इन छः सूत्रों में प्रभु अर्जुन को बताते हैं ..........
कर्म के बिना तो कोई रह नहीं सकता ॥
कर्म तो करना ही है ॥

यदि कर्म में आसक्ति , कामना , क्रोध ,
लोभ , मोह और अहंकार के प्रभाव को धीरे - धीरे
कम करनें का अभ्यास किया जाए तो
एक दिन ऎसी स्थिति आ सकती है जब ----

कर्म में अकर्म ....
अकर्म में कर्म का बोध होनें लगे , और ऐसा बोध ही ......
कर्म -योग है ॥
कर्म करता मनुष्य नही होता , मनुष्य के
अंदर जो हर पल बदलता गुण समीकरण
होता है ,
वह कर्म - करता है लेकीन अहंकार
की ऊर्जा के प्रभाव में मनुष्य स्वयं को कर्म करता मान लेता है
जो एक
बुनियादी भ्रम है ॥
तीन गुण मिलकर .....
स्वभाव बनाते हैं ....
स्वभाव का मनुष्य गुलाम होता है .... और
स्वभावतः
कर्म होता है ॥

मनुष्य तो मात्र जो उससे हो रहा है .....
उसका द्रष्टा भर है ॥
द्रष्टा भाव ही होश है जिसको अंगरेजी में अवेयरनेस कहते हैं ॥

==== ओम ======

Sunday, November 14, 2010

कर्म और गीता - 02




पिछले अंक में हमनें कुछ गीता सूत्रों को देखा ,
अब यहाँ कुछ और सूत्रों को हम ले रहे हैं ॥

सूत्र - 2.45

वेदों में गुण आधारित कर्मों के सम्बन्ध में बहुत प्रशंसा की गयी है
लेकीन ऐसे कर्मों को गीता बंधन कहता है
और यह कहता है .......
कर्म बंधनों से मुक्ति पाना ही निर्वाण है ॥

सूत्र - 3.5 , 18.11

कर्म मुक्त होना तो संभव नहीं क्यों की हर ब्यक्ति गुणों
द्वारा विवश किया जाता है ,
कर्म करनें के लिए लेकीन
कर्म में कर्म - फल की चाह न हो तो वह कर्म ,
मुक्ति का द्वार बन सकता है ॥

सूत्र - 8.3

वह जो निर्वाण का द्वार दिखाए , गीता का कर्म है ॥
आगे अगले अंक में कुछ और सूत्रों को दिया जाएगा ॥

===== ॐ ======

Saturday, November 13, 2010

कर्म के सम्बन्ध में गीता की क्या राय है ?



गीता में प्रभु श्री कृष्ण कर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कह रहे हैं
उनमें से कुछ श्लोकों को हम यहाँ ले रहे हैं ॥
[क] श्लोक - 18.23
प्रभु कह रहे हैं :
गुणों के आधार पर कर्म तीन प्रकार के हैं ,
जबकी गीता सूत्र - 8.3 में प्रभु कहते हैं .....
भूत - भाव - उद्भव करः बिसर्ग: कर्म संज्ञित: अर्थात .....
प्रकृति में बनें रहनें के लिए जो किया जाए , वह है - कर्म ॥
[क-१]
भोग भाव के बिना प्रभु को समर्पित जोकर्म होते हैं , वे हैं - सात्विक कर्म ॥
[ख] श्लोक - 18.24
भोग भाव से परिपूर्ण कामना , क्रोध , मोह , भय , अहंकार की उर्जाओं से
जो कर्म होते हैं , वे हैं - राजस - कर्म ॥
[ग] श्लोक - 18.25
यहाँ प्रभु कहते हैं ......
ऐसे कर्म जिनके पीछे तामस गुण की ऊर्जा हो जैसे - मोह , भय
और आलस्य , उनको तामस कर्म कहते हैं ॥
गीता के सभी श्लोक इतनें मुलायम हैं की उनको भोगी जितना चाहे
उतना अपनी तरफ झुका सकता है ॥
अब आप देखिये गीता सूत्र - 8.3 को जिसमें प्रभु कहते हैं ----

भूत भाव उद्भव कर: विसर्ग: कर्म संज्ञित: --- इस श्लोकांश का आप
जो चाहें वह अर्थ लगा सकते हैं ॥
सर्ब्पल्ली राधाकृष्णन जो अर्थ लगाते हैं , उसे आपनें ऊपर देखा और मैं इसका जो अर्थ लगाता हूँ
वह है ---
वह कृत्य जो भावातीत की स्थिति में पहुंचाए , उसे कर्म कहते हैं ॥
कर्म एक सहज माध्यम है जो सब को मिला हुआ है जैसे .....
भूख लगनें पर पेट के लिए कुछ चाहिए , और इस कामना की पूर्ति अनेक तरह से हो सकती है ।
अपनी पीढी आगे बढानें के लिए काम का सहारा लेना पड़ेगा अतः काम का प्रयोग भी अनेक ढंगों से
हो सकता है । तन को नंगेपन से बचानें के लिए वस्त्र का प्रयोग करनें के भी अनेक ढंग हैं ।
सुरक्षा के लिए इस्तेमाल करनें की सामग्रियां भी अनेक हो सकती हैं ।
अब देखिये और समभिये ----
आप मनुष्य योनी में हैं , पशु योनी में नहीं जो मात्र भोग - योनी ही है ।
मनुष्य इस संसार में निराकार प्रभु को अपने कर्मों से साकार रूप में प्रदर्शित कर सकता है और
दूसरी ओर पशुओं की लाइन में खडा हो कर पशु भी बन सकता है ।
सारे बिकल्प हैं - मनुष्य के लिए , जो चाहे वह , वह चुन सकता है ॥
कर्म करता गुण हैं , गुणों में भावात्मक उर्जायें हैं जो कर्म करने की भी उर्जायें हैं अतः ......
कर्म माध्य से भावातीत कीस्थिति होगी - गुनातीत कीस्थिति जो ब्रह्म - ऊर्जा से भर देती है ॥
आप जो अर्थ चाहें गीता सूत्र - 8.3 का वह अर्थ लगा सकते हैं ,
बश इतनी होश बनी रहे की -----
आप प्रभु के आयाम से ज्यादा दूर नहीं हैं ॥

====== ॐ ======

गीता कहता है -------



[क ] कर्म तो करना ही पड़ेगा , कोई जीवधारी कर्म त्याग पूर्णतया नहीं कर सकता ॥

[ख] कर्म होनें के पीछे ------

[ख-१] कोई फल की आश न हो ॥
[ख-२] कोई कामना न हो ॥
[ख-३] कोई आसक्ति न हो ॥
[ख-४] कोई अहंकार न हो ॥
[ख-५] कोई क्रोध भाव न हो ॥

अब आप सोचिये , अच्छी तरफ से सोचिये ------
क्या जैसे हम हैं , उस स्थिति में ऐसे कर्म का होना संभव है ?

गीता यह भी कहता है ......
तुम कर्म करता नहीं हो , कर्म करता तीन गुणों में से कोई एक होता है ॥
गुण तत्त्व हैं .....
आसक्ति , कामना क्रोध , अहंकार , कर्म फल की आश आदि ॥
यदि कर्म गुण करते हैं ,
हम तो मात्र द्रष्टा हैं तो फिर ऐसा कर्म क्या .......
फल की आश बिना ...
कामना बिना ....
क्रोध बिना ....
अहंकार बिना हो सकता है ?
जी हाँ , हो सकता है ,
जब -----
हम भोगी से योगी बन जाते हैं ....
हमारे पीठ पीछे भोग होता है ....
हमारे सामनें प्रभु की किरण होती है ....
हमें सारा संसार ब्रह्म के फैलाव रूप में दिखता है .....
तब ऐसा कर्म ही होता है ॥

===== ॐ =======

Friday, November 12, 2010

गीता तत्त्व विज्ञान - Gita Tatva Vigyan: मोह की ऊर्जा क्या है ?

गीता तत्त्व विज्ञान - Gita Tatva Vigyan: मोह की ऊर्जा क्या है ?

कर्म - योग , ज्ञान - योग और भक्ति

गीता में योग के सम्बन्ध में निम्न शब्द मिलते हैं ------

सांख्य - योग .....
ज्ञान - योग ......
बुद्धि - योग .....
ध्यान .........
भक्ति ........
परा - भक्ति ......

छः बाँतें जो गीता कहता है , जैसा ऊपर दिया भी गया है , उनका आपसी क्या कोई समीकरण है ,
क्या कोई ऎसी स्थिति भी आती है , जहां सभीं मिलते भी हों ?

ऐसे लोग जिनका केंद्र है - बुद्धि , जो , जो करते हैं , उसके पीछे
तर्क - वितर्क की एक लम्बी फौज होती है ।
ऐसे लोग वैज्ञानिक बुद्धि वाले होते हैं ।
जब ऐसे लोग प्रभु की खोज में चलते हैं जैसे बुद्ध और महाबीर , जे कृष्णमूर्ति और ओशो ,
तब उनके पास
उनके आगे - आगे उनकी बुद्धि चलती है और उसके पीछे उनका तन होता है ।
कर्म तो सभी करते हैं - जो संन्यासी की वेश - भूषा में भिखारी बन कर
घर - घर भीख मांग रहे हैं , वह भी एक कर्म ही है , जो लोग फैक्ट्री में मशीनों के ऊपर
लगे हैं , वह भी कर्म है और जो रात में चोरी करनें का ब्लू - प्रिंट तैयार
कर रहे होते हैं , वह भी कर्म ही है ।
कुछ लोग कर्म को प्रभु मार्ग खोजनें का माध्यम बनाना चाहते हैं
जिसकी चर्चा प्रभु श्री कृष्ण , गीता में अर्जुन के साथ करते हैं ।
प्रभु कहते हैं - अर्जुन ! तूं इस युद्ध में भाग ले या न ले लेकीन यह युद्ध तो होना ही है ,
लेकीन भाग न लेकर तूं एक ऐसा मौक़ा गवा रहा है जो
किसी - किसी को कई जन्मों के बाद मिलता है ।

कर्म में उन तत्वों को समझना जिनके कारण वह कर्म हो रहा होता है ,
उस कर्म को भोग कर्म से योग - कर्म में बदल देता है ।
भोग कर्म जब योग - कर्म में
बदल जाता है तब वह करता रूप में दिखनें वाला , कर्म - योग में होता है
जहां वह कर्म के उन तत्वों की पकड़ को स्वतः छोड़ देता है जिसको
कर्म संन्यास कहते हैं और उन तत्वों का वह त्यागी बन जाता है ।
कर्म - तत्वों के प्रति जो होश होता है ,
उसे कहते हैं - ज्ञान अर्थात ------
कर्म - योग का परिणाम है ज्ञान और गीता कहता है ......
योग , चाहे कोई भी हो , सब की सिद्धि पर ज्ञान मिलता है ,
ज्ञान वह है जिस से ----
प्रकृति - पुरुष .....
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ ......
सत - असत .....
रात - दिन ......
रोशनी - अँधेरे का पता चलता है ॥

==== शेष अगले अंक में =====

------- ॐ --------

Wednesday, November 10, 2010

ब्रह्म मय मार्ग



ब्रह्म के सम्बन्ध में हम गीता के सूत्रों को देख रहे हैं और इस श्रृंखला में
यहाँ कुछ और सूत्रों को देखते हैं ॥

गीता श्लोक - 13.13

अनादि मत परमं ब्रह्म न सत न असत ॥
अनादि ब्रह्म न सत है न असत है ॥

गीता - श्लोक - 13.31

यदा भूत पृथक - भावं एक स्थंम अनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तथा ॥
सभी जीवों को एक के फैलाव रूप एन जो देखता है , वह ब्रह्म मय होता है ॥

गीता श्लोक - 8.3

अक्षरं ब्रह्म परमं
अविनाशी ब्रह्म परम है ॥


==== ॐ ====

ब्रह्म को तत्त्व से जानो



अब हम गीता से ब्रह्म से सम्बंधित कुछ ऐसे श्लोकों को
ले रहे हैं जिनको गहराई से समझना
चेतन मय बना सकती है , तो आइये ! आप आमंत्रित हैं ,
गीता की इस पावन यात्रा के लिए ॥

गीता श्लोक - 7.5
अपरा इयं इतः तु अन्यां प्रकृतिं विद्धि में परां ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत ॥

प्रभु कह रहे हैं -----
मेरी दो प्रकृतियाँ हैं ; एक अपरा और दूसरी परा , परा प्रकृति जिसको चेतना नाम से भी जाना जाता है ,
वह संसार में जितनें जीव हैं , सबके जीवों को धारण करती है ॥

गीता श्लोक - 14.3
मम योनिः महत ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधामि अहम् ।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
ब्रह्म सभी जीवों का बीज है , जिसको गर्भ में मैं रखता हूँ ।

गीता श्लोक - 14.4

सर्व - योनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति या: ।
तासां ब्रह्म महत योनिः अहम् बीज प्रद: पिता ॥
ब्रह्म निः संदेह जीवों के बीजों को धारण करता है लेकीन बीजों को उसे मैं ही देता हूँ ॥

गीता के यहाँ चार सूत्रों को एक क्रम में इस प्रकार से
आप को दिया गया है जिस से आप को
प्रभु , ब्रह्म एवं समस्त जीवो के सम्बन्ध को
समझनें में कोई कठिनाई न हो ॥

===== ॐ ======

Monday, November 8, 2010

ब्रह्म योगी की एक झलक


यहाँ हम देखनें जा रहे हैं गीता के पांच सूत्रों को :

सन्दर्भ सूत्र -----
18.51
18.52
18.53
18.54
18.55

सूत्र कह रहे हैं -----

** बिषयों के सम्मोहन - राग - द्वेष से अछूता , स्थिर बुद्धि वाला ......
** अल्प अहारी , तन , मन , वचन पर नियंत्रण हो जिसका ,
एकांत बासी हो जो ,बैराग्य में जो पहुंचा हुआ हो
और जिसको समाधी की अनुभूति हुई हो .......

** अहंकार रहित हो जो , शारीरिक बल का अभिमानी जो न हो , काम - क्रोध से अछूता हो जो ....
** समभाव वाला , परा भक्त हो जो ......
** ऐसा भक्त या योगी ब्रह्म स्तर का होता है
और मुझको तत्त्व से समझता है ।

===== ॐ =======

Sunday, November 7, 2010

वह योगी जिसमें ब्रह्म की खुशबू हो

यहाँ हम प्रभु श्री कृष्ण के दो सूत्रों को देख रहे हैं -------

[क]
मां च यः अभ्यभिचारेन भक्तियोगेन सेवते ।
स गुनान समतीत्य एतांन ब्रह्म - भूयाम कल्पते ॥
गीता - 14.26

[ख]
ब्राह्मणः हि प्रतिष्ठा अहम् अमृतस्य अब्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्य एकान्तिकस्य च ॥
गीता - 14.27

दोनों श्लोक कहते हैं .......

वह जिसका मन - बुद्धि अडिग मुझ पर केन्द्रित है ,
वह गुणातीत - योगी ब्रह्म स्तर का है ॥
ब्रह्म जो अमर्त्य , अविनाशी ,
शाश्वत एवं निराकार है , उसका आश्रय , मैं हूँ ॥

गीता में ज्यादा भाषण की जरुरत नहीं , जितना बोला जाएगा , सत्य के ऊपर असत्य का पर्दा
और घना होता जाएगा ।

ऐसा नहीं की .....
मेरा ब्लॉग पढनें वालों के पास मुझ से कम समझ है ......
ऐसा नहीं की ......
मैं अधिक बुद्धिवान हूँ ......
जैसे आप , वैसे मैं हूँ ॥

एक कदम आप आगे बढ़ें
एक कदम मैं आगे बढ़ा रहा हूँ , और ....
एक दिन मैं और आप , दोनों जहां होंगे , वह होगा --
गीता

===== ॐ =====

Friday, November 5, 2010

ब्रह्म - योगी

यहाँ हम गीता के चार श्लोकों को देखनें जा रहे हैं :

श्लोक - 18.51
प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं -------
बिषयों के सम्मोहन से मुक्त , राग - द्वेष बिमुक्त
और स्थिर मन - बुद्धि वाला , ब्रह्म मय होता है ॥

श्लोक - 18.52
यहाँ प्रभु कहते हैं .......
अल्प अहारी , देह , मन , बचन पर नियंत्रण रखनें वाला ,
एकांत बासी , बैराग्य में पहुंचा
समाधि की अनुभूति वाला , ब्रह्म से परिपूर्ण होता है ॥

श्लोक - 18.53
प्रभु कहते हैं ......
अहंकार रहित , झूठे शक्ति शाली होने का प्रदर्शन न करनें वाला ,
काम - क्रोध से अप्रभावित ,
स्वामित्व - भाव से परे वाला योगी - ब्रह्म में होता है ॥

श्लोक - 18.54
यह श्लोक कहता है ......
जिनमें ऊपर बताई गयी बातें होती हैं ,
वह परा ,भक्त प्रभु को तत्त्व से समझता है ॥

गीता के इन सूत्रों को पकड़ कर आप ब्रह्म की ओ र एक कदम और चल सकते हैं ॥

आज दीपावली के दिन आप की यह ब्रह्म की यात्रा .......
खुशियों से भरी रहे ॥

==== ॐ ====

Thursday, November 4, 2010

ब्रह्म और योग


गीता कह रहा है :

## योगयुक्त योगी को ब्रह्म की अनुभूति होती है लेकीन -----
योग में बिना उतरे, संन्यासी बनना कष्ट प्रद होता है ॥
गीता सूत्र - 5.6

## योग युक्त योगी कर्म बंधनों से मुक्त रहता हुआ ----
निर्विकार रहता है ॥
गीता सूत्र - 5.7

## सम भाव में उतारा योगी -----
ब्रह्म की अनुभूति वाला होता है ॥
गीता सूत्र - 5.19

गीता के तीन सूत्र , आप के लिए जो ....
आप के आज को कल की चिंता से मुत्क्त कर सकते हैं .....
तो ----
आप इनको अपनाईये ॥

==== ॐ ====

Tuesday, November 2, 2010

ब्रह्म से सम्बंधित तीन और सूत्र


गीता के तीन सूत्र यहाँ आप को सेवार्पित हैं , जो .....
यह स्पष्ट करते हैं की ........
ब्रह्म क्या है ?
[क] सूत्र - 4.23
गुण तत्वों के प्रभाव के बिना जो कर्म होते हैं वे ब्रह्म में पहुंचाते हैं ॥
[ख] सूत्र - 12.3 और 12.4
निराकार ब्रह्म की अनुभूति ....
मन - बुद्धि सीमा में नही है ॥

गीता सोच का विज्ञान है .....
गीता योगी बुद्धि मार्ग पर चलता - चलता ऎसी बुद्धि वाला हो जाता है ....
जिसकी बुद्धि और मन - दोनों .......
सोच से परे हो जाते हैं .....
और ....
साक्षी भाव में विश्राम करते रहते हैं ॥
गुण विभाग और कर्म विभाग का ज्ञाता -----
साक्षी होता है ॥
साक्षी तन , मन , बुद्धि से प्रभु में रहता है ॥

==== ॐ ======

Monday, November 1, 2010

क्या ब्रह्म कोई सूचना है ?

मन - बुद्धि स्तर पर .......
साकार - निराकार कल्पना के स्तर पर .....
गीता में ब्रह्म क्या हो सकता है ? इस प्रश्न पर
हम गीता सागर में तैर रहे हैं ,
तो आइये ! देखते हैं , आगे क्या है ?

गीता सूत्र - 7.7
प्रभु कहते हैं -----
ससार की स्थिति एक माले जैसी है जिसका न दिखनें वाला सूत्र [ धागा ] , मैं हूँ ॥

गीता सूत्र - 13.14
वह सर्वत्र है , उसकी इन्द्रियाँ सभी जगह हैं और वह सब में है ॥

गीता सूत्र - 13.15
वह सबके अन्दर- बाहर , दूर - नजदीक समान रूप से है ॥

गीता सूत्र - 13.15
स्वयं इन्द्रिय - गुण रहित लेकीन सब का श्रोत , वह स्वयं है ॥

गीता सूत्र - 10.22
इन्द्रियाणां मनश्चाष्मी ॥

गीता सूत्र - 7.12
सभी गुण एवं उनके भाव मुझसे हैं लेकीन मैं भावातीत - गुनातीत हूँ ॥

गीता सूत्र - 7.14
तीन गुणों की माया जिस से यह संसार की रचना है , उसे समझना संभव नहीं ॥
गीता सूत्र - 7.13
गुनाधींन गुनातीत को नहीं समझ सकता ॥

गीता के कुछ ऐसे सूत्रों को मैं गीता से चुन कर लाया हूँ जो आप के
मन - बुद्धि की दिशा को बदलनें वाले हैं ।
मैं अपनें तरफ से कुछ कह नहीं रहा , हमें गीता से जो कुछ मिलता है ,
उसे मैं आप को देना अपना
धर्म समझता हूँ ,
आगे उसका प्रयोग आप कैसे करते हैं , यह आप पर निर्भर है ॥

===== ॐ =======

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