Tuesday, November 30, 2010

अहंकार की ज्वाला और ------



परमात्मा को हम दो में से किसी एक रूप में देखते हैं ;
[क] परमात्मा को खुश करके इच्छित कामाना की पूर्ति की जा सकती है ......
[ख] परमात्मा किसी के कर्म , कर्म - फल की रचना नहीं करता ।
परमात्मा सुख - दुःख का देता भी नहीं है ।

मनुष्यों में लगभग नब्बे प्रतिशाश से भी अधिक लोग यह
समझ कर प्रभु को नत मस्तक होते हैं
क्योंकि उनकी धारणा है - प्रभु के बिना कुछ संभव नहीं
अतः इनकेंन प्रकारेंन प्रभु को खुश रखनें में ही
भलाई है ।
आप ज़रा सोचना -----
एक तरफ हम यह भी समझते हैं की प्रभु बिना बताये
सब कुछ जानता है , प्रभु से कुछ भी छिपाना
संभव नहीं लेकीन इतना जानते हुए भी हम प्रभु को भी चकमा दिए बिना नहीं रहते ।
लोगों के मनोविज्ञान को समझिये ---
कोई करोड़ों का आसन भेट कर रहा है .....
कोई अपनी कंपनी की आमदनी का एक भाग नियमित रूप से
किसी निश्चित मंदिर में भेट के रूप में
चढ़ाया जाता है ।
परमात्मा यदि भौतिक बस्तुओं की प्राप्ति से खुश हो उठता है तो वह प्रभु की संज्ञा लायक नहीं ।
भोग यदि प्रभु को भी अपनी ओर खीचनें में सक्षम है तो वह खीचनें वाला प्रभु हो नहीं सकता ।
प्रभु सोना - चांदी के आभूषण नहीं चाहता , प्रभु चाहता है .....
तुम इंसान हो और इन्सार की मर्यादाओं का पालन करते रहो ।
प्रभु यह नहीं कहता ......
तुम मेरे लिए भी एक महल का निर्माण कराओ । प्रभु चाहता है ----
तुम ऐसे रहो की तेरे को देख कर अन्य जीव यह समझें की ----
हो न हो यह ब्यक्ति के रूप में प्रभु हो ॥
प्रभु के अंगों के रूप में इंसान है ।
प्रभु चाहता है की इंसान मेरे जैसा ही बन जाए और
प्रकृति - पुरुष के समीकरण को बनाए रखे ॥

===== ॐ ======

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