Saturday, November 13, 2010
गीता कहता है -------
[क ] कर्म तो करना ही पड़ेगा , कोई जीवधारी कर्म त्याग पूर्णतया नहीं कर सकता ॥
[ख] कर्म होनें के पीछे ------
[ख-१] कोई फल की आश न हो ॥
[ख-२] कोई कामना न हो ॥
[ख-३] कोई आसक्ति न हो ॥
[ख-४] कोई अहंकार न हो ॥
[ख-५] कोई क्रोध भाव न हो ॥
अब आप सोचिये , अच्छी तरफ से सोचिये ------
क्या जैसे हम हैं , उस स्थिति में ऐसे कर्म का होना संभव है ?
गीता यह भी कहता है ......
तुम कर्म करता नहीं हो , कर्म करता तीन गुणों में से कोई एक होता है ॥
गुण तत्त्व हैं .....
आसक्ति , कामना क्रोध , अहंकार , कर्म फल की आश आदि ॥
यदि कर्म गुण करते हैं ,
हम तो मात्र द्रष्टा हैं तो फिर ऐसा कर्म क्या .......
फल की आश बिना ...
कामना बिना ....
क्रोध बिना ....
अहंकार बिना हो सकता है ?
जी हाँ , हो सकता है ,
जब -----
हम भोगी से योगी बन जाते हैं ....
हमारे पीठ पीछे भोग होता है ....
हमारे सामनें प्रभु की किरण होती है ....
हमें सारा संसार ब्रह्म के फैलाव रूप में दिखता है .....
तब ऐसा कर्म ही होता है ॥
===== ॐ =======
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