Friday, November 12, 2010

कर्म - योग , ज्ञान - योग और भक्ति

गीता में योग के सम्बन्ध में निम्न शब्द मिलते हैं ------

सांख्य - योग .....
ज्ञान - योग ......
बुद्धि - योग .....
ध्यान .........
भक्ति ........
परा - भक्ति ......

छः बाँतें जो गीता कहता है , जैसा ऊपर दिया भी गया है , उनका आपसी क्या कोई समीकरण है ,
क्या कोई ऎसी स्थिति भी आती है , जहां सभीं मिलते भी हों ?

ऐसे लोग जिनका केंद्र है - बुद्धि , जो , जो करते हैं , उसके पीछे
तर्क - वितर्क की एक लम्बी फौज होती है ।
ऐसे लोग वैज्ञानिक बुद्धि वाले होते हैं ।
जब ऐसे लोग प्रभु की खोज में चलते हैं जैसे बुद्ध और महाबीर , जे कृष्णमूर्ति और ओशो ,
तब उनके पास
उनके आगे - आगे उनकी बुद्धि चलती है और उसके पीछे उनका तन होता है ।
कर्म तो सभी करते हैं - जो संन्यासी की वेश - भूषा में भिखारी बन कर
घर - घर भीख मांग रहे हैं , वह भी एक कर्म ही है , जो लोग फैक्ट्री में मशीनों के ऊपर
लगे हैं , वह भी कर्म है और जो रात में चोरी करनें का ब्लू - प्रिंट तैयार
कर रहे होते हैं , वह भी कर्म ही है ।
कुछ लोग कर्म को प्रभु मार्ग खोजनें का माध्यम बनाना चाहते हैं
जिसकी चर्चा प्रभु श्री कृष्ण , गीता में अर्जुन के साथ करते हैं ।
प्रभु कहते हैं - अर्जुन ! तूं इस युद्ध में भाग ले या न ले लेकीन यह युद्ध तो होना ही है ,
लेकीन भाग न लेकर तूं एक ऐसा मौक़ा गवा रहा है जो
किसी - किसी को कई जन्मों के बाद मिलता है ।

कर्म में उन तत्वों को समझना जिनके कारण वह कर्म हो रहा होता है ,
उस कर्म को भोग कर्म से योग - कर्म में बदल देता है ।
भोग कर्म जब योग - कर्म में
बदल जाता है तब वह करता रूप में दिखनें वाला , कर्म - योग में होता है
जहां वह कर्म के उन तत्वों की पकड़ को स्वतः छोड़ देता है जिसको
कर्म संन्यास कहते हैं और उन तत्वों का वह त्यागी बन जाता है ।
कर्म - तत्वों के प्रति जो होश होता है ,
उसे कहते हैं - ज्ञान अर्थात ------
कर्म - योग का परिणाम है ज्ञान और गीता कहता है ......
योग , चाहे कोई भी हो , सब की सिद्धि पर ज्ञान मिलता है ,
ज्ञान वह है जिस से ----
प्रकृति - पुरुष .....
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ ......
सत - असत .....
रात - दिन ......
रोशनी - अँधेरे का पता चलता है ॥

==== शेष अगले अंक में =====

------- ॐ --------

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