Sunday, November 7, 2010

वह योगी जिसमें ब्रह्म की खुशबू हो

यहाँ हम प्रभु श्री कृष्ण के दो सूत्रों को देख रहे हैं -------

[क]
मां च यः अभ्यभिचारेन भक्तियोगेन सेवते ।
स गुनान समतीत्य एतांन ब्रह्म - भूयाम कल्पते ॥
गीता - 14.26

[ख]
ब्राह्मणः हि प्रतिष्ठा अहम् अमृतस्य अब्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्य एकान्तिकस्य च ॥
गीता - 14.27

दोनों श्लोक कहते हैं .......

वह जिसका मन - बुद्धि अडिग मुझ पर केन्द्रित है ,
वह गुणातीत - योगी ब्रह्म स्तर का है ॥
ब्रह्म जो अमर्त्य , अविनाशी ,
शाश्वत एवं निराकार है , उसका आश्रय , मैं हूँ ॥

गीता में ज्यादा भाषण की जरुरत नहीं , जितना बोला जाएगा , सत्य के ऊपर असत्य का पर्दा
और घना होता जाएगा ।

ऐसा नहीं की .....
मेरा ब्लॉग पढनें वालों के पास मुझ से कम समझ है ......
ऐसा नहीं की ......
मैं अधिक बुद्धिवान हूँ ......
जैसे आप , वैसे मैं हूँ ॥

एक कदम आप आगे बढ़ें
एक कदम मैं आगे बढ़ा रहा हूँ , और ....
एक दिन मैं और आप , दोनों जहां होंगे , वह होगा --
गीता

===== ॐ =====

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