Saturday, December 4, 2010

गीता अध्याय - 02

भाग - 02

अध्याय सारांश

अध्याय एक में अर्जुन की दो बातें ऎसी हैं जो प्रभु को आगे उपदेश के लिए आकर्षित करती हैं ;
मोह के लक्षण और कुल- धर्म एवं जाती धर्म की बातें ।
अध्याय एक में तीन श्लोक - 1.28 , 1.29 , 1.30 अर्जुन के ऐसी श्लोक हैं जिनमें मोह के लक्षणों को
अप्रत्यक्ष रूप में बोला गया है ।
प्रभु श्री कृष्ण गीता में एक साँख्ययोगी के रूप मेंहैं और वैज्ञानिक का दूसरा नाम ही है - सांख्य - योगी ॥
अर्जुन जब प्रभु के सामनें कुल - धर्म एवं जाती - धर्म की बातें रखते हैं तब प्रभु कुछ बोलते तो नहीं हैं लेकीन
इन दो बांतों से हट कर कर्म - योग , ज्ञान - योग , संन्यास , त्याग एवं अन्य बाँतें उनकी चर्चा के बिषय बन जातेहैं ।
मोह गीता का बीज है और प्रभु मोह में डूबे अर्जुन को सबसे पहले बता रहे हैं -
आत्मा के सम्बन्ध में , यह
कहते हुए की .....
आत्मा अब्यक्त है , असोच्य है और इस को वह समझता है जो .....
मन - बुद्धि से परे की यात्रा पर हो ॥
आत्मा गुनातीत योगी का बिषय है और ....
प्रभु इसे ऐसे ब्यक्ति से बता रहे हैं जो .....
पूर्णरूप से मोह में डूबा हुआ है ॥
एक मोहित ब्यक्ति कैसे गीता ज्ञान में वह भी आत्मा को समझनें में रूचि दिखा सकता है ?
यह आप के लिए एक सोच का बिषय है ....
आप इस पर सोचना प्रारंभ करें .....
कल फिर मिलेंगे ॥

===== ॐ =====

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