Wednesday, December 22, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 13
गीता अध्याय दो के प्रथम खंड में ध्यानोपयोगी - सूत्रों में अब हम देखनें जा रहे हैं ------
गीता सूत्र - 2.41
ब्यवसाय -आत्मिका बुद्धि :
एका इह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा : हि अनंता :
च बुद्ध्य : अब्यवसायिनाम
प्रभु यहाँ बुद्धि के दो रूपों को बता रहे हैं , कहते हैं -------
एक बुद्धि होती है वह ......
जो मात्र मेरी ओर चलाती है ,
और .....
दूसरी बुद्धि है , वह जो चलती नहीं फुदुकती है ,
कहीं किसी भोग बिषय पर तो कभी किसी और पर ॥
गीता सूत्र - 2.42 से 2.44 तक को यदि आप बार - बार पढ़ें तो
जो मकरंद आप को मिलेगा वह कुछ इस प्रकार का होगा ----
भोग - भगवन को एक साथ एक समय में एक बुद्धि में नहीं रखा जा सकता ॥
ध्यान , योग , तप एवं अन्य साधाना श्रोतों का मात्र एक उद्देश्य होता है , और वह होता है ......
अस्थिर बुद्धि को स्थिर बुद्धि में बदलना और यह तब संभव होता है ,
जब .....
बिषयों के प्रति होश हो ------
इन्द्रियों से मैत्री हो .........
मन को अकेले न छोडनें का अच्छा अभ्यास हो ........
अगले अंक में हम इस सूत्र के सम्बन्ध में निम्न सूत्रों को भी देखेंगे :
7.10
2.44
आज इतना ही
===== ॐ ======
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