Monday, December 20, 2010

गीता अध्याय - 02

भाग - 12

हमारी अध्याय - दो की यह यात्रा अब भाग - 12 पर आ पहुंची
है , अगला श्लोक है - 2.38 लेकीन इस
श्लोक में उतरनें से पहले हम आप सब को याद दिलाना चाहते हैं की -------
इस अध्याय की यात्रा को हम चार भागों में देखनें जा रहे हैं ,
जिनमे पहला भाग है - ध्यानोपयोगी श्लोकों का ।
यहाँ हम इस अध्याय के 21 श्लोकों को और
अन्य अध्यायों के 23 श्लोकों को देखनें जा रहे हैं ।

चलिए अब चलते हैं गीता श्लोक - 2.38 में ------

सुख - दुःख लाभ - हानि , विजय - पराजय का
विचार किये बिना , तुम इस युद्ध में भाग लो क्योंकि

इस भाव से जो युद्ध करेगा उसे किसी भी पाप का भागी नहीं बनना पड़ेगा ।

treating alike - pleasure - pain , gain - loss , victory - defeat , get ready for this battle।
a man with such feeling एंड
full of pure enery can not commit sin .

अब वक़्त है इस सूत्र पर सोचनें का :

एक ब्यक्ति जो गले तक मोह में डूबा हुआ है ......
एक ब्यक्ति जो मोह में अपनों के समाप्त हो रहे जीवन की सोच
में धीरे - धीरे नीचे सरकता जा रहा है ....
एक ब्यक्ति जो इस युद्ध का एक प्रमुख नायक जाना जाता है ......
एक ब्यक्ति जिसको स्वयं प्रभु समझा रहे हों ......
क्या वह युद्ध के लिए तैयार हो सकेगा ?
क्या कारण है की प्रभु अर्जुन को इतना जोर दे रहे हैं युद्ध के लिए ,
कुछ तो कारण होगा ही ?

प्रभु श्री कृष्ण गीता में एक सांख्य - योगी के रूप में है
और सांख्य - योगी बुद्धि - योगी होता है जो हर वक़्त को अहम् समझता है ।
प्रभु त्रिकाल दर्शी हैं , उनको यह स्पष्ट है की इस युद्ध को टालना अब संभव नहीं तो क्यों न ----
इस योद्ध को ध्यान - बिधि की
तरह प्रयोग में लाया जाए और .....
विशेष तौर पर अर्जुन को एक समभाव - योगी के रूप में रूपांतरित
करनें में इसका प्रयोग किया जाय ।
जैसे वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रयोग करते हैं ठीक उसी तरह प्रभु
यहाँ इस युद्ध को एक प्रयोगशाला की भाँती
प्रयोग करना चाहते हैं ॥

प्रभु आप को सद्बुद्धि दे ॥

==== ॐ =====

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