Friday, December 24, 2010
गीता अध्याय - 02
भाग - 14
पीछले अंक में गीता सूत्र - 2.41 को स्पष्ट किया गया
और यहाँ आप दो और सूत्रों को देखें
जो
पिछले सूत्र के समर्थन में हैं ॥
गीता सूत्र - 2.44
यहाँ प्रभु कहते हैं ----
बुद्धि में जब भोग - भाव भरता है तब यह अस्थिर हो जाती है ,
अपनी दृढ़ता खो देती है और
इसकें संदेह की लहर भी उठनें लगती है ॥
गीता - सूत्र - 7.10
यहाँ प्रभु कह रहे हैं -----
बुद्धिमानों में , बुद्धि , मैं हूँ ॥
गीता में बुद्धि के दो रूपों को दिखाया गया है ; एक रूप है -
संदेहयुक्त बुद्धि का
जिसको भोग - बुद्धि कह सकते हैं जो रह -रह कर अपना रंग बदलती
रहती है
और दूसरी बुद्धि वह है जो स्थिर होती है ,
जिसमे मात्र प्रभु की ऊर्जा होती है ,
जो ब्यक्ति को केवल प्रभु पर केन्द्रित रखती है और वह
ब्यक्ति स्वयं को परमा नन्द में समझ कर खुश रहता है ॥
बुद्धि तो एक है लेकीन ----
जब यह गुणों के प्रभाव में होती है तब इसका झुकाव होता है
भोग की ओर
और ...
निर्विकार बुद्धि एक प्रभु पर केन्द्रित रहती है ॥
आज इतना ही
====ॐ====
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