Wednesday, December 29, 2010

गीता अध्याय - 02



भाग - 16

गीता श्लोक - 2.47 के सन्दर्भ में गीता श्लोक - 3.5

न हि कश्चित् क्षणं अपि जातु तिष्ठति अकर्म - कृत ।
कार्यते हि अवश : कर्म सर्व : प्रकृति - जै : गुनै : ॥

गीता सूत्र - 2.47 में प्रभु कहते हैं :
कर्म करना सब का अधिकार है लेकीन -----
कर्म न करना और ....
कर्म - फल की चाह रखना अधिकार नहीं ॥

कर्म करना क्यों अधिकार है ?

इस सम्बन्ध में गीता सूत्र - 3.5 कह रहा है :

कर्म रहित होना मनुष्य के बश में नहीं क्योंकि ----
कर्म करता मनुष्य तो है नहीं , कर्म होते हैं गुणों के प्रभाव के कारण ॥

To remain without work is not the will of a being ,
one has to work because doers are the
three natural modes , infact , beings are just the witnessers .

गीता न इधर जानें देता है न उधर ,
कहता है ......
जब आ ही गए हो तो सीधे चलो ॥
सीधे चलनें का भाव है -----
इन्द्रिय - मन - बुद्धि का गुलाम बन कर न चलो ......
अहंकार के नशे में न चलो ..............
- काम - कामना , मोह - लोभ की ऊर्जा से न चलो .....
जब चल ही रहे हो तो .....
अल मस्ती में चलो जैसे सम्राट चलते हैं , न की भीखारी ॥
सम्राट के कदम दस इंच के होते हैं और भीखारी दौड़ता हुआ चलता है क्यों की ......
उनको कम समय में अधिक से अधिक घरों को कबर करना होता है ॥

==== ॐ =====

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