Thursday, December 16, 2010

गीता अध्याय - 02

भाग - 10

मात्रा स्पर्शा : तु कौन्तेय ----
शीत - उष्ण सुख - दुःख दा : ।
आगम अपायिनः अनित्या : -----
तां तितीक्षस्व भारत ॥
गीता श्लोक - 2.14
इन्द्रियों के माध्यम से जो सुख - दुःख मिलते हैं वे जाड़ा - गरमी ऋतुओं की तरह आनें - जानें वाले होते हैं ।
ऐसे क्षणिक सुख - दुःख को हे अर्जुन तुम समझनें की कोशिश करो ॥

pleasure and pain as sensed by our senses do not last foeever , they come and go ,
arjuna ! you should try to understand them and you should not take them seriously .

हम सब की समझ है क्या ?

हम सब के पास और क्या है - इन्द्रियों के अलावा , जिनसे हम समझनें का काम कर सकें ?
गीता के परम श्री कृष्ण ऐसा समझो की हिमायल की सबसे ऊंची छोटी पर खडा हो कर बोल रहे हैं
और अर्जुन तराई में कहीं किसी गहरे खाई में बैठ कर सुन रहे हैं , क्या ऎसी स्थिति में पूर्ण रूप से
सूना जाना संभव है ? जी नहीं ॥
अर्जुन अन्धकार में बैठे हैं ,
उठना नहीं चाहते ,
बाहर निकलना नहीं चाहते ,
बाहर निकल कर
पूर्ण खिले हुए चाँद को देखना नहीं चाहते
और प्रभु ----
अर्जुन में उस ऊर्जा को भरा रहे हैं जिस से अर्जुन स्वतः उठ कर बाहर निकालें और .......
पूर्णिमा के चाँद का लुत्फ़ उठायें ।
आज इतना ही .....

enjoy Krishna - Consciousness

=== ॐ =====

No comments:

Post a Comment

Followers