Sunday, December 5, 2010

गीता अध्याय - 02



भाग - 03

प्रभु कहते हैं ------
हे अर्जुन !
तुम सबके ह्रदय में आत्मा रूप में , मैं हूँ और साथ में यह भी कहते हैं -------
आत्मा सर्वत्र है .......
आत्मा अविज्ञेय है ....
आत्मा अज्ञेय है ......
आत्मा असोच्य भी है ॥
अर्जुन बिचारा , क्या करे ; पहिली जमात के बिद्यार्थी को क्या theory of relativity
को समझाया जा
सकता है ?
अर्जुन एक तरफ तो बिचारा बना हुआ है , अपनें मोह के कारण और उपरसे प्रभु
उसे और गर्म कर रहे हैं आत्मा के सम्बन्ध में बता कर ॥

गीता अध्याय - दो में हम बहत्तर श्लोकों में से कुल मात्र पचपन श्लोकों को
देखनें जा रहे हैं जो इस प्रकार से होंगे ।
अर्जुन के श्लोक :---
2.7 , 2.8 , 2.54
प्रभु के श्लोक :---
2.2 , 2.11 , 2.12 , 2.14 , 2.15 , 2.38 , 2.41 , 2.47 ,2.48 , 2.49
2.51 , 2.52 , 2.53 , 2.42 , 2.43 , 2.44 , 2.45 , 2.46 , 2.13 , 2.15
2.17 - 2.30 तक
2.55 से 2.72 तक
यहाँ हम इन पचपन श्लोकों को चार भागों में बर्गीकृत करके देखनें वाले हैं -
कुछ इस प्रकार ----
[क] सामान्य योग सम्बंधित सूत्र .....
[ख] गीता योगी और वेदों का सम्बन्ध ....
[ग] आत्मा क्या है ?
[घ] स्थिर प्रज्ञावाला योगी कौन होता है ?
आज इतना ही ....
आगे कल चर्चा होगी ....
==== ॐ =====

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