Friday, December 13, 2013

गीता मोती - 13

● संसार , प्रभु से प्रभुमें प्रभुकी मायासे निर्मित है। माया तीन गुण और अपरा - परा दो प्रकृतियों से निर्मित है ।माया वह माध्यम है जहाँ हर पल हो रहे परिवर्तन से काल ( time )के रूप में परम,अब्यय , निर्विकार और निराकार प्रभुके होनें का आभाष होता है ।
● काल प्रभु की चाल है और संसारमें हो रहा परिवर्तन ही माया का संकेत है ।
● संसार मनुष्यके लिए एक उत्तम प्रयोगशाला है और अन्य जीवोंके लिए भोजन- प्रजननकी एक नर्सरी है ।
● संसारमें मनुष्यको छोड़ कर अन्य सभीं जीवोंका जीवन काम और भोजन आश्रित है लेकिन मनुष्यके लिए इस संसारमेंभोजन और काम सरल माध्यम हैं जिनके सहयोगसे वह अपनी नीचे बहनें की कोशिश कर रही उर्जा को ऊपर उठाता है और ऊर्जा जब उर्ध्वगामी हो जाती है तब रामकी अनुभूति होती है। मनुष्यकी भोजन और कामकी समझ उसे ध्यानमें प्रवेश कराती है और ध्यान रामका निवास स्थान है । ● काल प्रकृति के परिवर्तन से मायाकी सूचना देता है। ।
● माया ऊर्जा शरीर में बहा रही उर्जा को उर्ध्व गामी होनें नहीं देती और माया की यह रुकावट उर्जा को निर्विकार बना दक्ती है और निर्विकार उर्जा ही होश
है ।
● होशमें बसा हुआ मनुष्य बुद्ध होता है : जब तक होश बना है तबतक वह बुद्ध रूप में माया का द्रष्टा होता है ।
** गीतामें प्रभु श्री कृष्ण अर्जुनको यही सीख देते हैं । ~~ ॐ ~~

Sunday, December 8, 2013

गीता परिचय

<>श्रीमद्भभगवद्गीता <> 
गीता महाभारत में भीष्म पर्वके अंतर्गत 6.25 - 6.42 में दिया गया है ।महाभारतका 18 पुराणों में कोई स्थान नहीं जबकि महाभारत की रचना भागवत से पहले हुयी है और भागवत 18000 श्लोकोंवाला एक प्रमुख पुराण है । महाभारत एवं भागवतकी भाषा गीता की भाषा से भिन्न है और इन तीनों ग्रंथों को पढ़नें के बाद ऐसा लगनें लगता है जैसे गीता इनसे एक दम भिन्न है । मैं समझता हूँ , गीता एक ऐसी सिद्ध योगी की देन हो सकता है जो मूलतः सांख्य योगी रहा हो ।आइन्स्टाइन और मैक्स प्लैंकसे ले कर एक आम आदमी तकको गीता अपनी ओर आकर्षित करता है ,लोग इसे इतना क्यों चाहते हैं ? यह एक शोधका बिषय है । आइये देखते हैं गीताकी भाषाको , इसके कुछ श्लोकोंके माध्यम 
से :-- 
(1) गीता श्लोक : 2.55 + 2.70 " कमाना रहित बुद्धिको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं।" 
(2) गीता श्लोक : 5.20 " स्थिर प्रज्ञ ब्रह्म में बसता है ।" (3)गीता श्लोक : 2.57 + 5.19 " स्थिर प्रज्ञ समभाव योगी ब्रह्म जैसा होता है ।
" देखा ! गीताकी भाषाको , गीताकी भाषा गणितकी भाषा है जहाँ गागर में सागर उनको दिखता है जो खोजी हैं । गीताके शब्द हों और उन शब्दोंका आप का अर्थ हो तो वे गीता - शब्द प्राण रहित हो जाते हैं और गीताके शब्द हों और उनकी ब्याख्या गीतामें खोजी जाय तब वही शब्द आप को वह उर्जा दे सकते हैं जो कई जन्मोंके लिए पर्याप्त हो सकती है लेकिन दुःख होता है इस बात को देख कर कि गीताकी भाषा में कोई दार्शनिक अपनेंको नहीं बहाया अपितु गीता की भाषाको अपनी भाषामें बहाकर गीतामें छिपे अब्यक्त भावको समाप्त जरुर कर दिया ।गीतासे ही कुछ और उदाहरण देखते हैं। 
* गीतामें अर्जुन प्रश्नके बाद प्रश्न करते हैं,प्रभुकी हर बात में अर्जुन प्रश्न ढूढ़ लेते हैं और अर्जुनको गीता में प्रभु सीधी बात कहते 
हैं -- 
*  तामस गुण से अज्ञान है , अज्ञानसे संदेह है ; संदेह अज्ञानकी उर्जाका संकेत है और अज्ञान , संदेह , भ्रम एवं अहंकारसे प्रश्न उठते हैं , जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा प्रश्न उठेगा लेकिन यह बात प्रभु एक जगह नहीं कहते , यह प्रभुकी बात गीताके कई अध्यायोंके कई श्लोकों का भाव है ।
 * गीतामें अपनें प्रश्नोंके समाधान के लिए तैरना ,बुद्धि -योग है और गीता बुद्धि योगका सागर है ।
 * गीता , भोगसे योग , कर्मसे ज्ञान , ज्ञानसे भोग - वैराग्य और वैराग्यावस्था में परम धामकी यात्रा करवाता है । गीताको लोग जितना जल्दी पकड़ते हैं उतना ही जल्दी इसे छोड़ भी देते हैं और ऐसा करनें से वे गीता की उर्जा प्राप्त करनें से चूक जाते हैं । गीता किसी और को सुनानेंका बिषय नहीं है ,यह तो कर्मसे कर्म -योग में ,कर्म - योगमें भोग तत्त्वों से वैराज्ञ ,वैराज्ञमें ज्ञान और ज्ञान -योगमें परम धामकी यात्रा की उर्जा देता है । गीता साधनाका एक सीधा मार्ग है जीसकी यात्रा एक - एक सीढ़ी चल कर करनी होती है और इस यात्रामें हर सीढ़ी की यात्रा पूर्ण होशसे भरी होनी चाहिए । 
*** ॐ ***

Tuesday, December 3, 2013

गीता मोती -12

गीता -परिचय 
<> गीता महाभारत में भीष्म पर्वके अंतर्गत 6.25 - 6.42 में दिया गया है ।महाभारतका 18 पुराणों में कोई स्थान नहीं जबकि महाभारत की रचना भागवत से पहले हुयी है और भागवत एक प्रमुख पुराण है । महाभारत एवं भागवतकी भाषा गीता की भाषा से भिन्न है और इन तीनों ग्रंथों को पढ़नें के बाद ऐसा लगनें लगता है जैसे गीता इनसे एक दम भिन्न है । मैं समझता हूँ , गीता एक ऐसी सिद्ध योगी की देन हो सकता है जो मूलतः सांख्य योगी रहा हो ।आइन्स्टाइन और मैक्स प्लैंकसे ले कर एक आम आदमी तकको गीता अपनी ओर आकर्षित करता है ,लोग इसे इतना क्यों चाहते हैं ? यह एक शोधका बिषय बन सकता है । आइये देखते हैं गीताकी भाषाको , यहां इसके कुछ श्लोकोंके माध्यम से :-- (1) गीता श्लोक : 2.55 + 2.70 
" कमाना रहित बुद्धिको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं।"
 (2) गीता श्लोक : 5.20
 " स्थिर प्रज्ञ ब्रह्म में बसता है ।
(3)गीता श्लोक 2.57 + 5.19 
" स्थिर प्रज्ञ समभाव योगी ब्रह्म जैसा होता है ।" 
देखा ! गीताकी भाषाको , गीताकी भाषा गणित की भाषा है जहां गागर में सागर उनको दिखता है जो खोजी हैं । गीताके शब्द हों और उन शब्दोंका आप का अर्थ हो तो वे शब्द प्राण रहित हो जाते हैं और गीता के शब्द हों और उनकी ब्याख्या गीतामें खोजी जाय तब वही शब्द आप को वह उर्जा दे सकते हैं जो कई जन्मों के लिए पर्याप्त हो सकती है लेकिन दुःख होता है इस बात को देख कर की गीता की भाषा में कोई दार्शनिक अपनें को नहीं बहाया अपितु गीता की भाषाको अपनी भाषामें बहाकर गीतामें छिपे अब्यक्त भावको समाप्त जरुर कर दिया ।गीता से ही अब एक और उदाहरण देखाए हैं । 
* गीतामें अर्जुन प्रश्नके बाद प्रश्न करते हैं,प्रभु की हर बात में अर्जुन प्रश्न ढूढ़ लिये हैं और अर्जुनको गीता में प्रभु सीधी बात
 कहते हैं -- --- 
तामस गुण से अज्ञान है , अज्ञानसे संदेह है ; संदेह अज्ञानकी उर्जाका संकेत है और अज्ञान , संदेह , भ्रम , अहंकार से प्रश्न उठते हैं , जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा प्रश्न उठेगा लेकिन यह बात प्रभु एक जगह नहीं कहते , यह प्रभुकी बात गीताके कई अध्यायोंके कई श्लोकों का भाव है । 
* गीतामें अपनें प्रश्नोंके समाधान के लिए तैरना ,बुद्धि -योग है और गीता बुद्धि योगका सागर है ।
 * गीता , भोगसे योग , कर्मसे ज्ञान , ज्ञानसे भोग - वैराग्य और वैराग्यावस्था में परम धामकी यात्रा है गीता करवाता है । गीता को लोग जितना जल्दी पकड़ते हैं उतना ही जल्दी इसे छोड़ भी देते हैं और गीता की उर्जा प्राप्त करनें से चूक जाते हैं । गीता किसी और को सुनानेंका बिषय नहीं रखता ,यह तो कर्मसे कर्म -योग में ,
कर्म - योगमें भोग तत्त्वों से वैराज्ञ ,वैराज्ञमें ज्ञान और ज्ञान -योगमें परम धामकी यात्रा की उर्जा देता है ।
 *** ॐ ***

Thursday, November 28, 2013

गीताके मोती - 11

●गीता के मोती - 11 ●
* गीता श्लोक 6.11 से 6.20 तकके सार ।
** ध्यान वह मार्ग है जो मनको निर्मल करके ऐसे दर्पण जैसा बनता है जिसपर जो प्रतिबिंबित होता है वह परमात्मा होता है ।
* गीताके ऊपर संदर्भित श्लोकों के माध्यम से प्रभु अर्जुनको दो बातें बता रहे हैं - ध्यान करनें की विधि और ध्यानसे मिलनें वाली स्थिति ।
** ध्यान कैसे करें :
1- शुद्ध और समतल जगह पर कुशा या मृगछाल या कोई अन्य वस्त्र बिछा हो ।
2- कोई ऐसे आसनका चयन करें जिसमें बैठनें में कोई कठिनाई न हो ।
3- शरीर तनाव रहित पृथ्वी पर लम्बवत रहना चाहिए ( सीधी रेखा में ) ।
4- शरीर , इन्द्रियों और मनकी चालका दर्शक बनें । 5- नासिकाके अग्र भाग पर अपनी दृष्टि स्थिर रखें । 6- नासिका में आते -जाते श्वासोंके उस जगह पर उर्जा केन्द्रित करें जहां दोनों श्वासे मिलती हैं ।
7- अधिक भोजन करना ,या उपवास रखना ,अधिक निद्रा करना या निद्रा न करना ध्यान के लिए उपयुक्त नहीं ,सबकुछ सामान्य होना चाहिए ।
# जब यह अभ्यास योग पकेगा तब :--
* मन ऐसे शांत होगा जैसे वायु रहित स्थान में दीपक जी ज्योति स्थिर रहती है ।
* इन्द्रियाँ करता नहीं द्रष्टा बन जाती हैं ।
* सम्पूर्ण शरीर,इन्द्रियों ,मन और बुद्धि में जो ऊर्जा प्रवाहित हो रही होती है वह आत्माके माध्यम से परमात्माकी अनुभूति से गुजारती है और वह योगी :-* सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको ब्रह्मके फैलाव स्वरुप देख कर धन्य हो जाता है ।।
~~ ॐ ~~

Tuesday, November 26, 2013

गीता मोती - 10

● भक्ति ●
1-भक्ति कहीं मिलती नहीं , भक्ति मनुष्यका मूल स्वभाव है जो कालके प्रभावमें स्वतः फूटती है , जल प्रपातकी तरह ।
2- भक्त प्रकृतिमें जो देखता है उसे प्रभुकी रचनारूप में देखता है और रचनामें रचनाकार को समझ लेता है लेकिन भोगी जो भी प्रभुकी रचना देखता है वह उसपर अपनी मोहर लगाकर देखता है । भोगीकी यह बेहोशी भरी सोच उसे प्रभुसे दूर रखती है तथा भक्त प्रभुमें बसेरा पाजाता है ।
3- भक्तकी बुद्धमें सोच नहीं होती ,चाह नहीं होती और भोगी सोच -चाह बिना स्वयंको मुर्दा समझता
है ।
4- भोग दुनियामें सोच और चाह आगे बढनें के मूल तत्त्व हैं और प्रभु मार्गी के लिए ये अवरोध हैं ।
5- भोगी आँखें खोल कर जो नहीं देख पाता ,भक्त उसे आँखें बंद करके देख लेता है ।
6- भोग दुनियामें भोगी का भार इतना अधिक होजाता है की अंत समयमें उसे कहीं जाना नहीं
पड़ता , आस -पासमें ही उसे किसी अन्य जीव की योनि मूल जाती है और भक्त अंत समय तक अपनेंको हवा जैसा हल्का कर लेता है और इशारा मिलते ही प्रभुसे मिल जाता है ।
7- भक्तके लिए द्वैत्यकी भाषा नहीं होती , वह दुःख से सुख ,रातसे दिन,गरीब से अमीर और दानव से देवको नहीं समझता , वह तो सबको उसका ही अंशरूप में देखता है ।
8- भागवत : 7.1.27 : युधिष्ठिर नारदको बता रहे है > मनुष्य वैरभावमें प्रभु से जितना तन्मय हो जाता है भक्ति योग से उतनी तन्मयता नहीं मिल पाती ।
9- गीता -18.54-18.55 > समभाव पराभक्तिकी पहचान है और पराभक्त प्रभु जो तत्त्वसे सामझता है । 10- गीता -9.29> पराभक्त मुझमें और मैं उसमें रहता हूँ ,कृष्ण कह रहे हैं ।
11- गीता -6.30 > समभावसे सबमें प्रभु के होनें की समझ ,निराकार प्रभुको साकार में दिखाती है । 12- गीता -10.7> अभ्यास योग से विभूतियोंका बोध अविकल्प योग है ।
13- साकार उपासना निराकारका द्वार खोलती है । 14- निराकारकी तन्मयता समाधिमें पहुँचाती है । 15- समाधि ब्रह्म और मायाके एकत्व की अनुभूति
है ।
16- समाधिकी अनुभूति अब्यक्तातीत होती है ।
17-गीता - 12.3-12.4 > अब्यक्त -अक्षरको भजनें वाले प्रभुको प्राप्त करते हैं ।
18-परमात्मा मिले तो कैसे मिले ? हम स्व निर्मितमें उसे कैद तो करना चाहते हैं लेकिन बिना कुछ किये ,यह कैसे संभव है ?
19 -उसका निर्माण हम करते हैं ,विभिन्न रूप उसे देते हैं ,विभिन्न तरीकोंसे उसे अपनी ओर खीचना चाहते हैं लेकिन अपनी बुद्धिको अपनें हृदय के साथ नहीं जोड़ पाते , फलस्वरुप सदैव चूकते रहते हैं और मैं और तूँ की दूरी कम नहीं हो पाती ।
20- भक्ति का रस सत है ।
~~ ॐ ~~

Tuesday, November 19, 2013

गीता मोती - 09

* गीता तत्त्व ज्ञान-1*
1- कर्मवासनाओंसे मुक्त कर्म , कर्मयोग है ।
2- आसक्ति ,कामना , क्रोध ,लोभ ,मोह ,भय , आलस्य और अहंकार ये आठ तत्त्व कर्म - वासना कहलाते हैं ।
3- प्रभुसे प्रभुमें माया है ।
4- तीन गुणोंका माध्यम माया है ।
5- तीन गुण कर्म -उर्जा देते हैं ।
6- गुण कर्म कर्ता हैं , कर्ता भावका उदय अहंकारकी छाया है ।
7- राजस गुण साधना -मार्गकी बड़ी रुकावट है । 8- तामस गुणमें अहंकार अन्दर सिकुड़ा होता है और इन्तजार करता रहता है ।
9- राजस गुणमें अहंकार बाहर होता है और दूरसे चमकता रहता है ।
10- कर्म योग ब्रह्मसे एकत्व स्थापित करता हैं । 11- कर्म योगी परा भक्त , स्थिर प्रज्ञ , ब्रह्म वित् होता है ।
12- दुःख संयोग वियोगः योगः ।
13- कर्म जव योग बन जाता है तब ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।
14- ज्ञानमें क्षेत्र -क्षेत्रज्ञका बोध होता है ।
15- अनेक जन्मोंकी तपस्याओं का फल है ज्ञान । 16- ज्ञान समदर्शी -समभाव और द्रष्टा बनाता है । 17- ज्ञान और संदेह एक साथ नहीं रहते ।
18- ज्ञान अनन्य भक्ति पैदा करता है ।
19- वैराज्ञ ज्ञानकी पहचान है ।
20- भोग -तत्त्वोंके प्रभावोंकी अनुपस्थिति ,वैराज्ञ
है ।
~~ ॐ ~~

Thursday, November 14, 2013

गीता मोती - 8

● गीता मोती - 8 ●
1- नाना प्रकारके भाव मुझसे हैं पर उन भावों में मैं नहीं ।
गीता - 7.12+10.4+10.5
2- भावोंसे संसार मोहित है और मोहितकी पीठ मेरी तरफ होती है ।
गीता - 7.13
3- सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें ऐसी कोई जगह और वस्तु नहीं जिस पर गुणोंका प्रभाव न हो ।
गीता - 18.40
4- तीन गुणोंका सर्वत्र ब्याप्त सनातन माध्यम का नाम है माया और माया प्रभावित ब्यक्ति असुर स्वभावका होता है ।
गीता - 7.15
5- माया अप्रभावित ब्यक्ति संसारसे मुक्ति प्राप्त करता है ।
गीता - 7.14
~~ ॐ ~~

Monday, November 4, 2013

गीता मोती - 07

● गीता सूत्र - 17.2 ●
गुणोंके आधार पर श्रद्धा तीन प्रकार की होती है और श्रद्धा - स्वभागका गहरा सम्बन्ध है । इस सूत्रके साथ दो और गीता - सूत्रोंको देखिये :----
1- सूत्र 3.27 > गुण कर्म कर्ता हैं , कर्ता भाव अहंकारकी उपज है ।
2- सूत्र 18.60 > स्वभावसे कर्म होता है । अब सूत्र - 17.2 , 3.27 और 18.60 जो एक साथ देखो और इनको देखनें से जो भाव उठता है वह इस प्रकार होता है :---
" मनुष्यके अन्दर तीन गुण सदैव होते हैं जो बदलते रहते हैं और इन तीन गुणोंके प्रभावसे स्वभाव बनता
है , स्वभावसे श्रद्धा बनती है और श्रद्धाके जीवनका मार्ग बनता है ।"
Gita says :
" Three natural modes which always exist in all of us , form our nature and nature controls our actions . " Read Gita and use its energy in your day to day working .
~~~ ॐ ~~~

Tuesday, October 29, 2013

गीता मोती - 06

●गीता सूत्र - 4.1 ●
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तावान् अहम् अब्ययम् । विवश्वान् मनवे प्राह मनु: इक्ष्वाकवे अब्रवीत् ।।
** प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :---
मैनें इस अविनाशी योगको सूर्यको बताया ,सूर्य अपनें पुत्र वैवश्वत मनुको बताया और वैवश्वत मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकुको बताया ।
** यहाँ दो बातें सोचमें के लिए हैं :---
1- बताया गया बंश क्या है ?
2- प्रभु किस योगकी बात कह रहे हैं ?
1- सूर्य बंश ब्रह्मासे मरीचि ऋषि हुये ,मरीचिसे कश्यप ऋषि हुए ,कश्यप से विवाश्वन् ( सूर्य ) हुए , सूर्यसे सातवें मनु श्राद्धदेव हुए जिनको वैवश्वत मनु भी कहते हैं ।श्राद्ध देव मनुके बड़े पुत्र इक्ष्वाकुसे 100 पुत्र हुए जिनमें विकुक्षि बंश में श्री राम हुये और निमि बंश में सीता हुयी थी ।श्राद्धदेव मनुसे इस कल्पका प्रारंभ हुआ है ।श्राद्ध देव मनु सातवें मनु थे और पिछले कल्प में ये द्रविण देश के राजर्षि सत्यब्रत हैं । एक कल्प में 14 मनु होते हैं । 2- प्रभु जिस योगकी बात कह रहे हैं वह योग कौन सा है ?
गीता अध्याय - 4 अध्याय -3 का क्रमशः है और अध्याय - 3 में श्लोक - 3.36 से अर्जुन का प्रश्न है ,अर्जुन कहा रहे हैं कि मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों कर देता है ? प्रभु उत्तर में श्लोक -3.37 से 4.3 तक ( अर्थात 10 श्लोक ) बोलते हैं जिनमें अध्याय - 3 के अंतिम 07 श्लोक कामसे सम्बंधित हैं जिनमें काम नियंत्रणके बारे में प्रभु बताते हैं । प्रभु जिस योग की बात कह रहे हैं उसका सीधा सम्बन्ध काम उर्जा को नियंत्रित करना है । काम योगके सम्बन्धमें गीताके निम्न श्लोको को देखना चाहिए :---
3.37 से 3.43 तक + 5.23+ 5.26+ 7.11+ 10.28+14.12+ 16.18+16.21
~~ ॐ~~

Wednesday, October 23, 2013

कर्म से कर्म योगमें प्रवेश

● गीता मोती - 6 ●
सन्दर्भ : गीता श्लोक :
* 2.67+2.60+2.62+2.63 *
** गीता - मनोविज्ञान **
पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और प्रत्येक इन्द्रियका अपना विषय प्रकृति में है । इन्द्रियोंका स्वभाव है
अपनें - अपनें विषयोंको खोजते रहना । जब कोई इन्द्रिय अपना विषय पा लेती है तब अपनी कामयाबी की सूचना मन तक पहुँचती है । उस समय , मन जिस गुणके प्रभाव में होता है , उस गुण के अनुकूल उस विषय के सम्बन्ध में मनके मनन से वैसे भाव उठते है । मननसे आसक्ति बनती है , आसक्ति से कामना उठती है । कामना जब खंडित होनें का भय आनें लगता है तब कामनाकी उर्जा क्रोध में बदल जाती है । क्रोध में स्मृति खंडित हो जाती है फलस्वरुप वह ब्यक्ति गलत काम कर बैठता है और बादमें पछताता रहता है ।
°° गीता -मनोविज्ञानका यह सूत्र कर्मसे
कर्मयोग - सिद्धि तक की यात्रा का प्रमुख अंश है °°
~~~ ॐ ~~~

Wednesday, October 16, 2013

उसे देखना चाह रहे हो ?

● गीता मोती - 6 ● 
* मनुष्य - परमात्मा * 
मनुष्य परमात्माको कैसे समझना चाह रहा है , देखिये एक झलक उन दृश्योंका जिनके माध्यमसे मनुष्य परमात्माको समझ रहा है। ** महाकालके रूपमें शिवके एक विशेष रूप जो भय का प्रतिक है , उसके माध्यम से मनुष्य प्रभुको समझना चाह रहा है ।
 ** काली माँ दुर्गाके भयानक रूपमें भय माध्यमसे प्रभुको मनुष्य समझ रहा है । 
** कन्हैया श्री कृष्णके बाल रूप यशोदाके वात्सल्य प्यार माध्यमसे मनुष्य प्रभुको समझ रहा है ।
 ** महाभारतके श्री कृष्ण चक्रधारीके रूपमें परम शक्तिधरके रूपमें मनुष्य प्रभुको समझ रहा है ।
 ** राधाके कृष्ण रागरूपमें प्रभुको मनुष्य समझ रहा है । 
** धनुषधारी मर्यादा पुरुषोत्तमके रूप में श्री रामके रूप में मनुष्य प्रभुको समझ रहा है । 
** परशुराम रूपमें क्रोध माध्यम से मनुष्य प्रभुको समझ रहा है । और ---
 ° फूलोंके सुगंध और कोमलता में प्रभु को मनुष्य खोज रहा है ।
 ° तितिलियोंके विभिन्न रंगों और उनकी बनावटमें मनुष्य प्रभुको समझाना चाह रहा है। 
° चन्दनकी मादक गंधमें प्रभुको मनुष्य देखना चाह रहा है ।
 और --- 
^ तत्त्व दर्शी परम शून्यतामें प्रभुकी छाया देखना चाहते हैं ।
 ^ मायापतिको मायासे परे पहुँच कर देखना चाहते हैं ।
 ^ एक ओंकारमें प्रभुकी आवाज सुनना चाहते हैं । 
<> बहुत कम लोग ऐसे हैं जो स्वयं में प्रभुके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 
<> बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनको अपनें घर के छोटे - छोटे किलकारियां भरते हुए बच्चों में प्रभु को देखनें की जिज्ञासा हो । <> बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनको अपनें माँ - पितामें प्रभु झाँकता हुआ दिखता हो ।
 <> ● <> 
 * भाग लो जितना भागना हो --- 
* चाह लो जितना चाहना चाहते हो ---
 * सोच लो जितना सोचना चाहते हो ---
 कुछ न होगा लेकिन --- 
जब तुम अपनें मन पर पड़े धब्बोंको साफ़ कर लोगे तब -- 
°° आपको उसके बारेमें सोचना नहीं पड़ेगा , वह आपमें ही अवतरित हो उठेगा ।
 ~~~ ॐ ~~~

Sunday, October 13, 2013

गीता यात्रा का एक अंश

● गीता मोती - 06 ●
 <> गीता यात्राका एक अंश <> 
* गीता पर जो लोग भाष्य लिखे हैं उनमें अधिकाँशलोग भक्ति मार्गी हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनका मार्ग भक्तिका तो नहीं है पर उनकी बुद्धि भक्ति मार्गियों से पूर्ण प्रभावित है । 
* गीताको कर्मयोगकी गणित समझा जाता है ,यह बात तो समझमें आती है , इतनी सी बात को लोग पकड़ कर बैठ जाते हैं , रात-दिन भोग कार्य में ऐसे जुड़ जाते हैं कि उनको सामनें खड़ी मौतका भी आभाष नहीं हो पाता और एक दिन उनकी जीवात्मा उनके शरीरका त्याग कर देती है । 
* गीता -2.49 में प्रभु कह रहे हैं - ---
 बुद्धियोगात् कर्मः दूरेण अवरं 
 बुद्धौ शरणं अन्विच्छ हि फलहेतवः कृपणा: 
अर्थात :- 
बुद्धि योगसे कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का होता है अतः तुम बुद्धि योगके शरण में जाओ , कर्म फलकी कामना वाले कृपण होते हैं । * भागवतमें वैदिक कर्म दो प्रकार के होते हैं ; प्रबृत्ति परक और निबृत परक । प्रबृत्ति परक भोगआश्रित कर्मोंको कहते हैं और निबृत परक वे कर्म हैं जो ब्रहकी अनुभूतिमें पहुँचाते हैं ।
 * गीता कहता है बुद्धि योग और कर्म योग की यात्रा अलग -अलग नहीं होती प्रबृत्तिपरक कर्म एक माध्यम हैं जिनमें भोग तत्त्वों की परख संभव है । भोग तत्त्वों की परख हो जानें के बाद उनके सम्मोहन का प्रभाव नही होता और वह प्रवृत्तिपरक कर्म निबृत्तिपरक कर्म हो जाते हैं जहाँ नैष्कर्म्य की सिद्धिके साथ ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानप्राप्ति, ज्ञान योग है जो ब्रह्मऔर जीवात्माके एकत्वकी अनुभूति कराता है । 
 * जिसे हम भक्ति कहते हैं वह स्थूल (अपरा ) भक्ति है । अपरा भक्तिसे पराका द्वार खुल सकता है । परा भक्ति में पहुंचा योगी राम कृष्ण परम हंस जैसा हो जाता है और वह पूर्ण होशमय स्थिति में ज्ञान में बसेरा बनाया होता है । 
 ~~~ ॐ~~~

Wednesday, October 2, 2013

गीता मोती -5

● गीतासे गीतामें ●
~ पहले गीतासे गीतामें को समझते हैं ~
गीता पढ़ना , गीतासे है और इस पढ़ाईसे खोजकी जो प्यास उठती है वह यदि गीतामें अपनीं तृप्तिके तत्त्वको खोजती है तो उसे कहेंगे गीतामें ।
* गीता मात्र एक ऐसा माध्यम है जिसमें संदेह और भ्रम उठनें के श्रोत हैं और उनकी औषधि भी गीतामें कहीं न कहीं मिलती है । वह जो गीताका प्रेमी है , बुद्धिसे गीतामें प्रवेश करता तो है लेकिन धीरे -धीरे उसकी बुद्धि शांत होनें लगती है और ह्रदयका कपाट खुलनें लगता है ।
* दर्शनमें दो मार्ग हैं ; एक है मन -बुद्धि और दूसरा है हृदय । निश्चयात्मिका बुद्धि अर्थात ध्यान -बुद्धिसे ह्रदयका द्वार खुलता है और अनिश्चयात्मिका बुद्धि है भोग बुद्धि जो हृदय के द्वारको बंद रखती है और मैं और मेराके भावसे बाहर होनें नहीं देती ।
* गीता से गीता में पहुंचा कभीं गीतासे बाहर निकलता ही नहीं ..
और
* बुद्धि स्तर पर गीताको ऊपर - ऊपरसे देखनें वाला कभीं गीतामें प्रवेश करता ही नहीं ।
~~~ ॐ ~~~

Sunday, September 29, 2013

तीन लोक कहा हैं ?

● गीता मोती - 05 ●
 गीता श्लोक - 3.22 , 11.20 , 15.17 
* गीताके ऊपर दिए गए तीन श्लोकोंमें तीन लोकोंके होनेंकी बात कही गयी है ,ये तीन लोक कौन - कौन से हैं ? 
 > पहले इन तीन श्लोकोंको देखते हैं ।
 * श्लोक - 3.22 > कृष्ण कहते हैं ,तीन लोकों में मेरा कोई कर्तव्य नहीं है और कोई अप्राप्य वस्तु नहीं है फिर भी मैं कर्म करता हूँ । 
* श्लोक - 11.20 > अर्जुन कह रहे हैं - स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका आकाश आपके इस अद्भुत उग्र रूपसे भरा हुआ है और तीन लोकों के लोग आपके इस रूपकों देख कर दुखी हो रहे हैं । 
* श्लोक -15.17 > परमात्मा ,अब्यय और ईश्वर जिसे कहते हैं वह परम पुरुष है , जो तीन लोकों में प्रवेश करके सबको धारण किये हुए है तथा सबका पोषण करता है । 
# अब सोच उठती है कि ये तीन लोक कहाँ हैं ?
 * इस प्रश्नके लिए देखते हैं भागवत - 5.21 जहां बताया गया है कि भू-लोक और ऊपर द्युलोक के मध्य है अंतरिक्ष लोक जिसका केंद्र है सूर्य और जहाँ अन्य सभीं ग्रह एवं नक्षत्र भी हैं । सूर्य तीनों लोकोंमें प्रकाश देता है । 
<> अब आप समझ सकते हैं कि गीता और भागवतकी cosmology क्या बता रही है ?
 * भू लोक , अंतरिक्ष लोक और द्यु लोक तीन लोकों में सारा ब्रह्माण्ड है जो सीमा रहित सनातन , गतिमान और मायामय तीन गुणों की उर्जा से परिपूर्ण है ।
 ~~~ ॐ ~~~

Sunday, September 22, 2013

गीता मोती - 4

● गीता - 4.38 ●
न हि ज्ञानेन सदृशं
पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसन्सिद्धम्
कालेन आत्मनि विन्दति ।।
" कर्म योग सिद्धिसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है " " Karma Yoga is the source of wisdom"
* ज्ञान और विज्ञान को समझें :
कर्म योग एक सहज माध्यम है क्योंकि कोई भी जीव एक पल भी कर्म रहित नहीं रह सकता और कोई कर्म ऐसा नहीं जो दोष रहित हो । कर्म में उठा होश कर्म बंधनों से मुक्त करता है और कर्म बंधनों की कर्ममें अनुपस्थिति उस कर्मको कर्म योग बनाती है । आसक्ति रहित कर्म ज्ञान योगकी परानिष्ठा है ( गीता 18.48-18.49 ) ।
* कर्मका अनुभव जब कर्म-करता रूप में गुणों को देखता है तब वह अनुभव वैराज्ञ में ले जता है । वैराज्ञमें सम्पूर्ण के केंद्रके रूप में ब्रह्मकी अनुभूति ही विज्ञान है और वैराज्ञ ज्ञानका फल है । ज्ञान से विज्ञान में पंहुचा जाता है ।
~~~~ ॐ ~~~~

Wednesday, September 11, 2013

गीता मोती - 03

● गीता मोती - 03 ● 
 <> गीता - 2.69 <>
 या निशा सर्व भूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
 यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने।। 
" वह जो सभीं भूतों केलिए रात्रि जैसा है उसमें संयमी लोग जागते रहते हैं और जो भूतों के लिए दिन जैसा है उसे मुनि लोग रात्रिके रूपमें देखते हैं "
 That what is night to all beings in that self controlled one keeps awake and that what is day for all beings , the self controlled one considers it as a night .
 °° भोगी और योगी की सोचमें 180° का अंतर होता है : भोगी जिसे रात्रि समझ कर उसके प्रति बेहोश रहता है ,योगी उसे परम समझ कर उसीमें होशमय बसा रहना चाहता है ।
 ** वह है क्या ? ** 
गीतामें प्रभु श्री कृष्ण अर्जुनको बता रहे हैं , भोगीके लिए मूलतः मैं रात्रि जैसा हूँ जिसके प्रति वह सो रहा है , वह मुझे मात्र कामना पूर्ति का एक माध्यम समझता है और योगीकी सोच भोगीकी सोचसे ठीक विपरीत होती है ।योगीके लिए मैं दिन हूँ जिसमें उसकी सभीं क्रियाएं होश में होती रहती हैं और वह उन क्रियाओं का द्रष्टा वना रहता है । भोगीके लिए भोग दिन जैसा होता है ; जिसके जीवन का केंद्र भोग होता है ,भगवान नहीं ,वह जो भी करता है उसके पीछे भोग प्राप्तिका लक्ष्य होता है । 
<> भोगी भोग केन्द्रित जीवन जीत है और सुख - दुःखके मध्य उसके जीवनकी नौका चलती रहती है और योगीके जीवनका आधार समभाव और समभावसे उपजा परमानन्द होता है , वह स्वयं केलिए होता ही नहीं जो कुछ भी उसकी इन्द्रियाँ समझती 
है ,देखती हैं वह सब प्रभु ही होते हैं । योगी के लिए माया निर्मित यह संसार प्रभुका फैलाव है और भोगी केलिए यह संसार उसके मन का फैलाव है ।
 ~~~ ॐ ~~~

Monday, September 9, 2013

गीता मोती - 02

●● गीता श्लोक - 6.3 ●●
आरुरुक्षो : मुने : योगं कर्म कारणं उच्यते ।
योग रूढ़स्य तस्य एव शमः कारणं उच्यते ।।
" कर्मयोगमें आरूढ़ होनेंके लिए कर्म माध्यम है और कर्मयोगका लक्ष्य है बुद्धिका केंद्र प्रभु को बनाना ।"
" Action is the mean for Karma - Yoga . When he elevates in yoga , tranguality of mind becomes the mean of the realization of Consciousness "
** शम के लिए भागवत 11.19.36 देखें जहाँ शम मन -बुद्धि की वह स्थिति है जहाँ प्रभु इस तंत्रका केंद्र होता है ।
** गीतामें कृष्ण कह रहे हैं :-----
अर्जुन ! कर्म तो सभीं करते हैं ,बिना कर्म कोई जीवधारी एक पल नहीं होता लेकिन इनमें कर्म योगी हजारोंमें कोई एक हो सकता है । कर्म जब योगका माध्यम हो जाता है तब उस योगी की बुद्धिका केंद्र मैं हो जाता हूँ ।
°° बुद्धिमें जो उर्जा होगी , वह ब्यक्ति वैसा ही होगा । अर्थात - कृष्णमय होनेंमें कर्म आप की मदद कर सकता है ।
~~~ ॐ ~~~

Wednesday, September 4, 2013

गीताके मोती ( भाग - 01 )

●● गीताके मोती ( भाग - 01 ) ●●
1- गीता सूत्र - 2.60 > मन आसक्त इन्द्रियोंका गुलाम है ।
2- गीता सूत्र - 2.67 > प्रज्ञा आसक्त मन का गुलाम है ।
3- गीता सूत्र -3.6 > हठसे इन्द्रियोंका नियंत्रण करना दम्भी बनाता है ।
4- गीता सूत्र - 2.59 > इन्द्रियोंको हठात बिषयोंसे दूर रखनेंसे क्या होगा , मन तो बिषयोंका मनन करता ही रहेगा ।
5- गीता सूत्र -2.58 > इन्द्रियाँ ऐसे नियंत्रित होनी चाहिए जैसे कछुआ अपनें अंगो पर नियंत्रण रखता
है ।
6- गीता सूत्र -3.34 > सभीं बिषय राग -द्वेष की उर्जा रखते हैं ।
7- गीता सूत्र -3.7 > इन्द्रिय नियोजन मन से होना चाहिए ।
8- गीता सूत्र - 2.15+2.68 > इन्द्रिय नियोजनसे स्थिर प्रज्ञता मिलती है जो मोक्ष का द्वार है ।
9- गीता सूत्र - 2.55 > कामनारहित मन आत्मा केन्द्रित करता है ।
°° गीताके 10 श्लोक ध्यानके 09 सीढियोंको दिखा रहे हैं , गीता ध्यानकी यात्रा आपकी अपनी यात्रा है और कर्म - ज्ञान योगकी साधनाके ये मूल सूत्र हैं । आप इन सूत्रोंको अपना कर ध्यान में डूब सकते हैं । ~~~ ॐ~~~

Tuesday, August 27, 2013

सृष्टि प्रलय सृष्टि

●● सृष्टि - प्रलय - सृष्टि ●●
°° सन्दर्भ - भागवत :-- 2.5+3.5+3.6+3.25-3.27+11.24+11.25 * ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्णके सांख्य तत्त्व ज्ञानका सार :----
^ माया पर कालका प्रभाव हुआ फलस्वरुप
^ 03 अहंकार उपजे
> सात्त्विक अहंकारसे कालके प्रभावसे  मन + 10 इन्द्रियोंके अधिष्ठाता 10 देवता उपजे
> राजस अहँकारसे कालके प्रभावसे ---
10 इन्द्रियाँ + बुद्धि + प्राण उपजे
> तामस अहंकारसे कालके प्रभावसे ----
° शब्द उपजा
° शब्दसे आकाश उपजा
° आकाशसे स्पर्श उपजा
° स्पर्शसे वायु उपजी
° वायुसे रूप उपजा
° रूपसे तेज उपजा
° तेजसे रस की उत्पत्ति हुयी
° रससे जल बना
° जल से गंध की उत्पत्ति हुयी
° गंधसे पृथ्वी उपजी
अर्थात तामस अहंकारसे ---
** 05 तन्मात्र और 05 बिषय उपजे
और जब तत्त्व प्रलय होती है तब -----
* वायु पृथ्वीसे गंध छीन लेती है
* पृथ्वी जलमें बदल जाती है
# जलका रस वायु ले लेती है
# जल अग्निमें बदल जाता है
¢ अँधकार अग्निसे रूप ले लेता है
¢ अग्नि वायुमें वदल जाती है
^ आकाश वायुसे स्पर्श छीनता है
^ वातु आकाशमें विलीन हो जाती है
> काल आकाशसे शब्द ले लेता है
> आकाश तामस अहंकारमें बदल जाता है
* राजस अहंकारमें 10 इन्द्रियाँ , बुद्धि , प्राण विलीन हो जाते हैं
** सात्त्विक अहंकारमें मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता विलीन हो जाते हैं
° तीन अहंकारको काल महत्तत्त्वमें विलीन कर देता है ° महत्तत्त्वको काल मायामें विलीन कर देता है
° माया ब्रह्ममें सिमट जाती है ।
इस तत्त्व प्रलयको प्रकृति या महा प्रलय कहते हैं । °°°° ॐ °°°°

Thursday, August 22, 2013

मैत्रेयका सृष्टि दर्शन

●●मैत्रेयका सृष्टि सांख्यदर्शन
●● सन्दर्भ : भागवत : 3.5+3.6
°° मैत्रेयका आश्रम गंगाके तट पर हरिद्वारके निकट था जिसका नाम कुशावर्त था ।महाभारत युद्ध समाप्त हो गया था , यह सनाचार विदुर को प्रभास क्षेत्र में मिला और विदुर अपनी तीएथ यात्रा समाप्त कर वापिस चल पड़े । विदुर पहले बृंदावनमें उद्धवसे ज्ञान प्राप्ति की फिर हस्तिनापुर बी जा कर सीधे मैत्रेय के पास पहुंचे । मैत्रेयजी जब द्वारकाके अंत और यदुकुलके अन्तके समय प्रभु के पास प्रभास क्षेत्रमें
थे । ओरभु को परमधाम जाते हुए मैत्रेयजी देखे थे । >> मैत्रेयका सृष्टि सांख्य दर्शन ब्रह्माके सांख्य दर्शनसे कुछ भिन्न है ,आइये ,  पहले इस सांख्य -गणित को देखते हैं :------
            [ माया ]
                 |
         माया + काल
                 |
             महत्तत्त्व ^
                  |
         महत्तत्त्व + काल
                   |
            तीन अहंकार ^
                    |
          तीन अहंकार + काल
                     |
    [1] सात्त्विक अहंकार + काल
                     |
            [इन्द्रियोंके देवता + मन ]^

    [2]     राजस अहंकार  + काल
                     |
     [10 इन्द्रियाँ + बुद्धि + प्राण]^

    [3]       तामस अहंकार + काल
                        |
                    [ शब्द ] ^
                        |
                 शब्द + काल
                        |
                    आकाश ^
                         |
                आकाश + काल
                          |
                        स्पर्श ^
                          |
                °° स्पर्श + काल °°
                          |
                     [ वायु ] ^
                         |
                    वायु + काल
                          |
                      [ रूप ]^
                          |
                    रूप + काल
                          |
                      ( तेज )^
                          |
                    तेज + काल
                          |
                       (रस )^
                          |
                      रस+ काल
                          |
                       [ जल ] ^
                           |
                      जल + काल
                           |
                        [ गंध ]^
                           |
                     गंध + काल
                           |
                     °° पृथ्वी °° ^
● मैत्रेय की सांख्य गणितमें महाभूतोकी उत्पत्ति उनके विषयों( तन्मात्रों ) से हो रही है जैसे शब्द से आकाश ,स्पर्श से वायु ,रूप से तेज ( अग्नि ) , रस से जल और गंध से पृथ्वी ।
● प्रकृत प्रलयमें क्या होता है ? वायु पृथ्वी की गंध खीच लेती है और पृथ्वी जल बन जाती है । जल जा रस जब वायु ले लेती है तब जल अग्नि बन जाता है । अग्नि से उसका रूप अन्धकार द्वारा ले लिया जाता है और अग्नि वायु में बदल जाती है । अब सर्वत्र वायु ही वायु है और वातु से काल स्पर्श छीन लेता है , फलस्वरूप वायु आकाशमें विलीन हो जाता है और आकाशसे काल शब्द ले लेता है और आकाश तामस अहंकार में लीं हो जाता है ।
● इसी प्रकार राजस एवं सात्त्विक अहंकारों से उसके तत्त्वों को छीन किया जाता है और तब तीन अहंकार रह जाते हैं ।
● तीन अहंकार कालके प्रभावसे महत्तत्त्वमें विलीन हो जाते हैं और महत्तत्त्व मायामें और माया ब्रह्म का फैलाव है अतः वह सिकुड़ कर ब्रह्ममें समाजाती है । °°° ॐ °°

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