Wednesday, May 27, 2009

Monday, May 25, 2009

मन की ऊर्जा

Aristotle said, " The energy of mind is the essence of life "
अरिस्तोटलकी इस बात को हम यहाँ गीता में देखते हैं --------
गीता-सूत्र 2.62
मनन से आसक्ति बनती है ।
गीता - सूत्र 6.4
आसक्ति से संकल्प उठता है ।
गीता - सूत्र 6.24
संकल्प से कामना आती है ।
गीता-सूत्र 2.53
मोह के साथ वैराग नही आता ।
गीता-सूत्र 15.3
वैराग के बिना संसार का बोध नही होता ।
गीता- सूत्र 4.38
योग सिद्धि से ज्ञान मिलता है ।
गीता-सूत्र 13.2
ज्ञान से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बोध होता है ।
अरिस्तोटल की बात चौथी शताब्दी ईशापुर्ब की है और गीता की बात ईशापुर्ब पाँच हजार वर्ष की है।
अरिस्तोटल अपनी बात का कोई ख़ास विस्तार नही दिया लेकिन गीता ऊपर के सात सूत्रों में पूरा विज्ञानं दिया है जिसमें कोई संशय की गुंजाइश नही है ।
गीता कहता है , कितना भाग सकते हो , भागनें की कोई सीमा नही पर तेरे शरीर की सीमा है ।
यदि तुम स्वयं को जानलो तो संसार को जान लोगो और फ़िर परमात्मा को जाननें में कोई अड़चन नही
आयेगी । जैसा तेरा शरीर है वैसा ही ब्रह्माण्ड है और तुम एवं ब्रह्माण्ड ,ब्रह्म का साकार रूप हो ।
क्षेत्र का अर्थ है विकार सहित स्थूल शरीर और क्षेत्रज्ञ का अर्थ है जीवात्मा जो शरीर को चालाता है ।
आसक्ति ,कामना , काम , संकल्प , विकल्प , भय , मोह , अंहकार, ये सब भोग के तत्व हैं जो बंधन हैं ,
जिनके साथ परमात्मा की ओर रुख करना सम्भव नहीं ।
वैराग अनुभव का फल है , यदिअनुभव सही है तो वैराग्य का आना आवश्यक है और यदि अनुभव बेहोशी
मेंहो रहा है तो वैराग कैसे आयेगा ?
भोग योग का माध्यम है , माध्यम से चिपक कर रहना जीवन को स्थिर बनाता है और जीवन की स्थिरता मृत्यु है ...जीवन तो एक धारा है --धारा अर्थात जो बहती रहे , बहते-बहते सागर से जा मिले ।
आप यदि मुक्त जीवन जीनें का आनंद लेना चाहते हैं तो एक काम करें , अपनें मन का पीछा करनें का अभ्याश करें , कुछ दिनों बाद आप भोग- तत्वों की पकड़ से मुक्त होनें लगेंगे और तब आप को आनंद की झलक मिलनें लगेगी --ज्यादा नही मात्र कुछ दिन करके देखिये , इसमें आप का क्या लगनें वाला है ?
=====ॐ========

Saturday, May 23, 2009

परमात्मा - 12

कर्म परमात्मा से जुडनें का एक सुगम माध्यम है जो सब को मिला हुआ है ----
गीता के कुछ बचनों को आप यहाँ देखें और ........
समझनें का यत्न करें की यह कैसे सम्भव हो सकता है ।
गीता सूत्र - 2.47, 2.48
आसक्ति एवं चाह रहित कर्म समत्व योग है ।
समत्व अर्थात सम भावऔर सम भाव सीधे परमात्मा में पहुंचाता है ।
गीता सूत्र - 4.22
समत्व योगी को कर्म नहीं पकड़ पाते ।
गीता सूत्र - 3.4
कर्म न करनें से सिद्धि नहीं मिलती ।
गीता सूत्र - 3.20
आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है ।
गीता सूत्र - 18.49 , 18.50
आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म-योग की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ।
गीता सूत्र 18.54 , 18.55
सम भाव योगी परा भक्त होता है जो हर समय परमात्मा से परमात्मा में होता है ।
गीता सूत्र- 2.69
ऐसे योगीके पीठ पीछे भोग होता है और उसकी आंखों में हर पल परमात्मा होता है ।
आप को यहाँ गीता के चार अध्यायों के 10 सूत्रों को दिया गया जो साधना के दृष्टि से कर्म-योग की बुनियाद हैं ।
आप इन सूत्रों पर अपना धान केंद्रित करके कर्म करें , धीरे - धीरे आप कर्म-योगी बन जायेंगे और आप को पता भी न चल पायेगा।
आसक्ति भोग का मूल तत्व है आप इसको छोड़ नही सकते लेकिन परमात्मा को केन्द्र बना कर यदि
कर्म करते रहेंगे तो एक दिन आप को पता चल जाएगा की आसक्ति क्या है ?
======ॐ=======

परमात्मा -- 11

परम श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --------
इन्द्र [ 10.22 ] , वर्षा का आकर्षण [ 9.19 ] , वरुण [ 10.22 ] , वायु [ 10.31 ] , हिमालय [ 10.25 ]
गंगा नदी [ 10.31 ] , समुद्र [ 10.24 ] ....मैं हूँ । गीता के सात श्लोकों को एक जगह इसलिए दिया गया है जिनसे -------
आप के अंदर एक सोच की लहर पैदा हो और आप परमात्मा के रहस्य में डूब सकें ।
कहते हैं ------जब इन्द्र खुश होते हैं तब वरिश अच्छी होती है , भारत में इन्द्र की पूजा की जाती है जिससे अच्छी वरिश हो और अच्छी फसल हो । अब आप सोचना , जहाँ लोग इन्द्र को जानते भी नही हैं क्या वहाँ वरिश नही होती ?
सागर,नदी , पर्वत , वायु एवं ऐसा मौषम का होना जो वर्षा का कारण बनें, में एक समीकरण छिपा हुआ है जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है जिसको व्यक्त करनें की जरुरत भी नहीं दिखती । समुद्र का पानी वाष्पीकरण से आकाश में पहुंचता है , वहाँ उसमें परिवर्तन होता है जो बूँद-बूँद पहाड़ पर गिरता है , वहाँ से वह नदी का रूप धारण करके पुनः सागर की तलाश पर निकल पड़ता है --क्या आप इस प्रक्रिया को एक सरल प्रक्रिया मानते हैं ?
आप परमात्मामय होनें के लिए ऊपर दिए गए उदाहरणों में से किसी एक को पकडें धीरे-धीरे आप को सब मिलते चलेजायेंगे और आप के ह्रदय में एक लहर उठेगी जो परमात्मा में पहुंचा देगी ।
आप अभी तक परमात्मा को समझनें के लिए अनेक उदाहरण देखे जो भाव-रूप , निराकार-रूप और
साकार-रूप में परमात्मा को ब्यक्त कर चुके हैं , अब यह आप पर है की आप परमात्मा को कैसे चाहते हैं ?
=====ॐ======

Wednesday, May 20, 2009

परमात्मा --10

अभी तक हम परमात्मा को भाव रूप तथा निराकार रूप की दृष्टि से समझ रहे थे लेकिन अब हम परमात्माको साकार रूप में समझनें की कोशिश करनें जा रहे हैं ।
गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं --------------------
ब्रह्मा[13.16] , विष्णु[11.50, 13.15], शंकर[11.6], श्री राम[10.31], श्री कृष्ण[7.6, 7.7], अर्जुन[10।37],
कुबेर[10.23], कपिल मुनि एवं नारद[10.26], बृहस्पति[10.24], प्रहलाद[10.30] और मनुष्यों में
राजा[10.27] --मैं हूँ ।
यहाँ आप गीता के बारह सूत्रों में परम श्री कृष्ण के बारह रूपों को देखा , यह आप पर है की आप किस रूप
से आकर्षित होते हैं ।
यदि श्री कृष्ण अर्जुन हैं फ़िर क्या परमात्मा परमात्मा को भय-मुक्त करानें के लिए गीता-उपदेश दे रहे हैं ?
ब्रह्मा , विष्णु एवं महेश रूपों में परम मनुष्य के आदि , मध्य एवं अंत के रूप में परमात्मा को बताना चाहते हैं ।
भक्त के रूप में एक तरफ़ नारद को परमात्मा कहते हैं तो दूसरी तरफ़ स्वयं को शांख्य योगी के रूप में
कपिल मुनि कह रहे हैं । कपिल मुनि को शांख्य-योग का प्रारम्भ माना जाता है , कुबेर रावण का भाई था
जिसको धन का देवता माना जाता है ; यहाँ आप को सोचना पडेगा --धन का स्थान कहाँ है ?
बृहस्पति को असुरों का गुरु कहा जाता है , बृहस्पति के पुत्र कच जब ऋषिकुल से शिक्षा प्राप्त करके वापस
आए तो बहुत अतृप्त एवं ब्याकुल रहते थे , ब्रिहस्पतिजी पूछे की बात क्या है , तुम्हें तो पूर्ण शांत होना चाहिए था ,
पर मैं कुछ और ही देख रहा हूँ --बेटा ! शान्ति -शास्त्र पड़नें से नही मिलती , शान्ति तब आती है जब
त्याग-भाव की लहर ह्रदय में उठती है ,
वैज्ञानिक कहते हैं --यदि बृहस्पति ग्रह न होता तो पृथ्वी का अस्तित्व अब तक समाप्त हो गया होता ।
क्या आप जाने हैं ---बृहस्पति के 112 उपग्रह हैं और वहाँ 09 घंटा तथा 50 मिनट का रात-दिन होता है ।
गीता में 120 श्लोक ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में परमात्मा की ओर इशारा करते हैं , आप यदि भागना
भी चाहेंगे तबभी भाग नही पायेंगे , आप को गीता चारों तरफ़ से परमात्मा में खिचता ही रहेगा ।
जब आप में परमात्मा की लहर उठेगी तब आप मुझे क्या अपनें को भी नही पहचान पायेंगे ।
=====ॐ=======

Tuesday, May 19, 2009

परमात्मा ----9

हम जिसको जीवन समझते हैं वह जीवन का एक अंश मात्र है ।
हम जिस से ब्यक्त होते हैं वह अब्यक्त है और अंत के साथ पुनः अब्यक्त जीवन प्रारंभ होता है ।
ब्यक्त जीवन में अब्यक्त जीवन को जानना , साधना है और ब्यक्त जीवन में सिमट कर रह जाना , अज्ञान- है । आईये अब गीता के 10 श्लोकों से परमात्मा के ब्यक्त - अब्यक्त रहस्य को समझते हैं जिसका सीधा सम्बन्ध हमारे जीवन से है ।
गीता-सूत्र 10.32, 10.39, 9.18
परम कह रहे हैं -------------
तुम्हारा मैं आदि , मध्य और अंत हूँ ।
गीता-सूत्र 7.9
परम कह रहे हैं ------------------
मैं तुम्हारा जीवन हूँ ।
गीता-सूत्र 10.29
परम कह रहे हैं ------------------
यमराज मैं हूँ ।
गीता-सूत्र 10.33, 11.32
परम कह रहे हैं -----------
महा काल मैं हूँ ।
गीता-सूत्र 10.35
परम कह रहे हैं -----------
मृत्यु मैं हूँ ।
गीता-सूत्र 13.16
परम कह रहे हैं ------------
भरण-पोषण करता मैं हूँ ।
गीता-सूत्र 13.31
परम कह रहे हैं -------------
शरीर में परमात्मा है पर करता कुछ नही है ।
गीता के इन सूत्रों में जो राज छिपा है वह उसका कोई अंत नही है , सीमित सूत्रों में अनंत को पकडनें का
यह गीता का प्रयत्न केवल एक बात कहना चाहता है ......सोचो जितन सोच सकते हो लेकिन कुछ मिलनें
वाला नही जिसको तूम अपनें संशय बुद्धि में बाँध सको --हाँ सोच - सोच कर सोचके बाहर जब तुम
पहुंचोगे तब सत्य स्वतः दिखनें लगेगा ।
जीवन क्या है ? नानक कहते हैं ....नानक दुखिया सब संसार , मीरा की नम आँखें जीवन को क्या बताती हैं ? ,
बुद्ध ध्यान में मिली परम शून्यता को जीवन कहते हैं और एक भोगी काम में डूबे रहने को जीवन समझता है ।
गीता कहता है भाग लो जितना भागना चाहता है , लेकिन इतना समझो की जहाँ भी जाओगे तुम परमात्मा में
ही अपनें को पाओगे ।
जीवन एक अंतहींन यात्रा है जो अब्यक्त से निकल कर ब्यक्त होता है और धीरे-धीरे अब्यक्त की ओर सरकता रहता है पर तुम्हे इसका पता नही लगता ।
ब्यक्त जीवन में अब्यक्त को खोजना , साधना है और ब्यक्त जीवन में भोग में उलझ कर रह्जाना पशुवत जीवन है ।
इतना सोचो की हम मनुष्य हैं अतः हमें कुछ तो ऐसा करना ही है जो पशुओं से भिन्न हो ।
पशु भोजन की तलाश करते हैं , बच्चे पैदा करते हैं और उनको पालते हैं , रहनें के लिए घर की ब्यवस्था भी करते हैं यदि नही करते तो एक परमात्मा का स्मरण जो हम मनुष्य कर सकते हैं ।
परमात्मा से अस्तित्व को समझो उसकेलिए अपनें ह्रदय में जगह बनाओ तब पता चलेगा की तूम कौन हो ?
स्व से परिचय होना ही परमात्मा के आयाम में पहुंचाता है ।
=====ॐ=======

Monday, May 18, 2009

परमात्मा --8

क्या आप जानते हैं -----
भगवान् राम सूर्य वंशी क्षत्रिय थे ?
मिस्र के फराह राजा लोग सूर्य की पूजा करते थे ?
मक्सिको के आदि मानव सूर्य की पूजा करते थे ?
मिस्र - सुडानके मध्य लगभग सुडान की राजधानी खातुमसे 200 किलो मीटर उत्तर पश्चिम में नील नदी - घाटी में
कुश राजाओं की पिरामिड्स मिली हैं जो 2700BCE-350 CE की मानी जाती हैं । ये कुश राजा लोग भी
सूर्य बंशी राजा थे । क्या यह सम्भव नही की ये लोग भगवान् राम के बंसज रहें हो ?
आइये ! अब हम गीता के कुछ और सूत्रों को देखते हैं जो परमात्मा से सम्बंधित हैं ।
गीता-सूत्र 10.21 , 7.8
परम कहते हैं .....मैं सूर्य - चन्द्रमा हूँ और इनका प्रकाश भी मैं ही हूँ ।
गीता-सूत्र 9.19, 15.12
यहाँ परम कहते हैं .....सूर्य-चन्द्र और अग्नि का तेज मैं हूँ ।
गीता सूत्र 7.9, 9.16
परम कहते हैं ....अग्नि और अग्नि का तेज मैं हूँ ।
अब आप भारत की स्थिति को देखना------
हम लोग कब से गीता को पढ़ रहे हैं और कब से सूर्य को जल चढ़ा रहे हैं पर इस पूजा से क्या पाया ?
Carl Max Planck नें अग्नि के तेज में वह विज्ञान पाया जो उनको 1918 में नोबल पुरस्कार दिलवाया । संभवतः आप को नही मालुम होगा की प्लैंक भी गीता पढ़ते थे ।
आधुनिक विज्ञान के महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन सूर्य के प्रकाश के आधार पर आधुनिक विज्ञान
की वह गणीत तैयार किया जो मानव को चन्द्रमा पर पहुंचा दिया , ये भी गीता पढ़ते थे ।
भारत में एक सर सी.वी.रमन को छोड़ कर क्या कोई सूर्य के प्रकाश में परमात्मा को देखनें की कोशिश किया है ?
शायद कोई ऐसा वैज्ञानिक भारत में और नही पैदा हुआ ।
हम भारतके लोग कुछ करना नही चाहते पर पाना सब चाहते हैं , क्या बिना किए पाना सम्भव है ?
हमारी सोच यह है की ----हम करें कुछ भी नही और परमात्मा हमारी सभी कामनाओं को पूरा करता रहे । हम परमात्मा की पूजा करते हैं उसको बदलनें के लिए , हम चाहते हैं की हमारी पूजा परमात्मा को गुलाम बनाकर हमें देदे और हम उसे मोटर बाईक की तरह इस्तेमाल करते रहें ।
परमात्मा क्या उतना ही बेवकूफ है जितना हम सब हैं ?
हमारे योगिओं नें खुली आँख से पूरे ब्रह्माण्ड को देखा और आज का भारतीय वैज्ञानिक सभी साधनों के होते हुए भी कुछ नही देख पा रहा , हाँ जब भी देखता है तब पश्चिम की तरफ़ देखता है ।
परमात्मा सब कुछ दिया है , लेकिन करना तो हमें ही पडेगा ।
=======ॐ========

Thursday, May 14, 2009

परमात्मा ---7

यहाँ हम गीता के परमात्मा को बुद्धि स्तरपर समझनें की कोशिश कर रहे हैं जिसको नहीं समझा जा सकता
अतः हमें दिक्कत तो होगी लेकिन और कोई रास्ता भी नही दिखता, आईये अब हम गीता के कुछ
सूत्रों को देखते हैं ।
सूत्र - 5.14- 5.15 परमात्मा किसी के कर्म , कर्म- फल , कर्तापन की रचाना नही करता और किसी के अच्छे- बुरे कर्मों को ग्रहण भी नही करता ।
सूत्र - 13.31 परमात्मा हमारे शरीर में है पर कुछ करता नही है ।
सूत्र - 7.12 , 7.14 हमारे शरीर में परमात्मा एक द्रष्टा की भाति है ।
सूत्र - 9.4 , 9.5 भूतों में परमात्मा की आत्मा नही होती ।
सूत्र - 9.17 मनुष्य के कर्म-फल का दाता परमात्मा है ।
गीता के चार अध्यायों से आठ सूत्रों को एक जगह रखनें का एक मात्र कारण है की आप स्वयं इस बिरोधाभाषी
बात को समझनें की कोशिश करें , जब तक आप दूसरों की बात को पढ़ते रहेंगे तब तक आप को कुछ मिलनें
वाला नही , यहाँ सबकी अपनीं-अपनीं अलग-अलग यात्राएं हैं ।
J krishanamurti कहते हैं ---Truth is a pathless journey.
साधना में दो रास्ते हैं ---या तो सब को स्वीकारा जाए या सम को नक्कारा जाए , कभी हाँ और कभी ना
के मार्ग पर चलकर कही भी नही पहुंचा जा सकता । उपनिषदों में नेति -नेति की बात कही गयी है अर्थात
यह भी नहीं और वह भी नहीं । घड़ी की सुयी को सीधी दिशा में चलाओ या उलटी दिशा में दोनों स्थितिओं में
सुयी एक ही जगह पहुंचती है , साधना में भी कुछ ऐसा ही होता है । गीता साधक को कोई रूकनें का मौका
नही देता , कहता है -- चलते रहो जब समय आयेगा तूं पहुँच ही जाएगा ।
विचारों से विचार-शून्यता की स्थिति में पहुंचनें का और क्या मार्ग हो सकता है ?
विचारोंसे विचार-शून्यता , भावों से भावातीत , गुणों से गुनातीत , कर्म से अकर्म , राग से वैराग की यात्रा
का नाम ही गीता-साधना है ।
======ॐ======

Wednesday, May 13, 2009

परमात्मा ---- 6

गीता की चर्चा हो और उस चर्चा में काम [ sex ] शब्द का प्रयोग किया जा रहा हो , बात कुछ अलग सी
दिखती है ।
गीता में कुल 700 श्लोक हैं जिनमें 556 श्लोक परम श्री कृष्ण के हैं और उनमें से 100 श्लोकों से कुछ अधिक
श्लोक परमात्मा को ब्यक्त करते हैं । यहाँ हम परमात्मा श्रृंखला के अर्न्तगत गीता के कुछ चुनें हुए सूत्रों को
देखनें जा रहे हैं ।
गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं -----------
गीता सूत्र 7.8 ---पुरुषों में पुरुषत्व , मैं हूँ ।
गीता सूत्र 10.28---कामदेव , मैं हूँ ।
गीता सूत्र 7.10----सृष्टि का बीज , मैं हूँ ।
गीता सूत्र 7.11----काम[sex] , मैं हूँ ।
ऊपर के चार सूत्रों को आप गीता में बार-बार पढ़ें और इनको अपनें ध्यान का माध्यम बनाएं ।
जब आप इन सूत्रों को समझ लेंगे तब आप को निम्न सूत्रों को भी देखना चाहिए ...........
गीता सूत्र 3.37--3.47 , 5.23 , 5.26--5.28 , 16.21
गीता में [सूत्र 3.36 ] अर्जुन का तीसरा प्रश्न इस प्रकार से है -------
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ?
परम श्री कृष्ण कहते हैं .....
मनुष्य काम के सम्मोहन में पाप करता है ।
काम के सम्बन्ध में जो 12 सूत्र दिए गए हैं उनसे निम्न बातें सामनें आती हैं ..........
काम राजस गुन का मुख्य तत्व है । राजस गुन के साथ परमात्मा से जुड़ना असंभव है [6।27] , काम , क्रोध
और लोभ नरक के द्वार हैं । काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है । मन के माध्यम से इन्द्रीओं से
मैत्री स्थापित करनी चाहिए , जब ऐसा होजाए तब आत्मा को केन्द्र बनाना चाहिए क्योंकि आत्मा पर
काम का सम्मोहन नही होता । आत्मा जब केन्द्र बन जाता है तब परमात्मा अधिक दूर नही होता ।
विकार सहित स्थूल शरीर में निर्विकार जीवात्मा ही परमात्मा है ।
अब समय आगया है की आप ऊपर के सन्दर्भों के आधार पर गीता के इस रहस्य को समझेंकी परम
क्यों कह रहें हैं ...मैं काम हूँ ?
गुणों के तत्वों जैसे कामना, आसक्ति , क्रोध , लोभ , मोह , भय , अंहकार का जब काम में अभाव होता है
तब वह काम परमात्मामय होता है ।
काम एक ऊर्जा है जो विकार रहित ऊर्जा होती है लेकिन जब उस ऊर्जा में गुणों का प्रभाव पड़ जाता है तब
वह ऊर्जा वासना-ऊर्जा में बदल जाती है । वासना-ऊर्जा नरक की ओर खिचती है और निर्विकार काम-
ऊर्जा --जिसको प्यार कहते हैं , परमात्मा में पहुंचाती है ।
=====ॐ=======

क्या यही सत्य है ?

जब हम मंदिर में होते हैं तब ऐसा क्यो दिखतेहै जैसे जेल में हैं ?
मन्दिर जाते समय हम एक अपराधी जैसा स्वयं को क्यों दिखाते हैं ?
घर में जब कभी कोई धार्मिक कार्य होता है तब हम जल्दी में क्यों होते हैं ?
जब हम पूजा में बैठे होते हैं तब शरीर के उस भाग में भी खुजली होनें लगाती हैं जहाँ कोई उम्मीद नही होती ---ऐसा क्यों होता है ?
जब पूजा-कार्य समाप्त हो जाता हैं तब हमें सकूंन क्यों मिलता है ?
मन्दिर में पत्थर की मूरत न देखती है , न सुनती है और न ही बोलती है फ़िर भी हम उसके सामनें
ऐसे होते हैं जैसे थानेदार के सामनें खड़े हो --ऐसा क्यों ?
कहीं ऐसा तो नही की हम भय से मुक्त होनें के लिए परमात्मा को खोजते हैं ?
परमात्मा को हम कामना पूर्ति - करता के रूप में क्यों देखते हैं ?
कामना करते समय क्या कभी हम यह सोचते हैं की यह हमारी कामना किस प्रकार की है --क्या ऐसी
कामना परमात्मा के सामनें रखनें लायक भी है ?
हम ऐसा क्यों सोचते हैं --पड़ोसी का बेटा या बेटी फेल हो और मेरा बेटा या बेटी पास हो ?
हम ऐसा क्यों सोचते हैं की जो हमें मिले वह किसी और को न मीले ?
इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं जिन पर हम सब को सोचना चाहिए , क्या आज से हम इस सोच पर चलेंगे ?
यदि ऐसा हुआ तो हममें एक क्रांति की लहर दौड़नें लगेगी और तब हमें परमात्मा को खोजना
नही पडेगा ।
=====ॐ======

Tuesday, May 12, 2009

परमात्मा------5

परमात्मा को जाननें वालों की दो श्रेणियां हैं------यातो भय निवारण के लिए हम परमात्मा का
सहारा चाहते हैं या फ़िर लोभ के प्रभाव में आकर परमात्मा को याद करते हैं ।
परमात्मा को समझनें के दो मार्ग हैं ---यातो हमारे में पूर्ण समर्पण का भाव हो या फ़िर हम इतना सोंचे की
सोच-सोच कर अपनें बुद्धिको थकाकर स्थिर करदें ...इन दोनों परिस्थितिओं में एक ही स्थिति मिलती है --
जिसमें बुद्धि स्थिर हो जाती है । बुद्धि स्थिर हो तथा उसपर अंहकार की छाया न हो तब समर्पण -भाव आता है ।
बुद्धि थक कर स्थिर ह गयी हो और उस पर अंहकार की छाया हो तब समर्पण-भाव नही आ सकता । सदिओं बाद
कोई एक नानक,मीरा या कबीर आते हैं जिनमें जन्मसे समर्पण-भाव होता है , समर्पण के बिना परमात्मा
की खुशबूं पाना असंभव है और समर्पण भाव आनें पर उस ब्यक्ति का नया जन्म हो जाता है ...वह वह नही रह जाता
वह भिन्न हो जाता है ।
अब हम गीता में बुद्धि के आधार पर परमात्मा को समझनें की कोशिश करते हैं ।
गीता कहता है ------------
मन [10.22] बुद्धि [ 7.10 ] ध्रितिका [ 10.34 ] चेतना [ 10.22 ] समय [ 10.30 ] और आत्मा [ 10.20, 15.7]
परमात्मा हैं । अब समय आगया है की हम अपनें बुद्धि को गीता के इन श्लोकों पर केंद्रित करें ।
बिषय , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्रज्ञा , चेतना , आत्मा और परमात्मा शब्द साधना में बार-बार हमें मिलते हैं पर
हम इनको जाननें की कोशिश ही नही करते --क्यो नही करते ? क्यों की हमें जल्दी है , हम कुछ पानें के लिए
साधना से जुड़ते हैं और जहाँ चाह है वहाँ भगवान् हो नही सकता ।
अब हम कुछ वैज्ञानिकों किसोच को देखते हैं फ़िर गीता पर वापिस आयेंगे ।
John Eccles says," Consciousness is extra-cerebral located within the human skull along the
brain somewhere where orthodox hindus keep their crest. This area is called supplementry
motor area[ SMA] where fusion of consceousness with the physical brain takes place . Consciousness survives even after the death of the physical brain . " Jonh Eccles[1903-1997]
got noble prize in neuro science in 1963.
Penfield[1891-1976], Wilder Penfield was a known nuro scientist and he expressed his
experiences as such----The mind is not brain , the mind works indepndent of the brain in the same way as a computer programmer works .
Roger Wolcott Sperry[ 1913-1994] got noble prize in neuro science in 1981 and he says,"Bodydoes not create the mind; the mind evolves much before the physical body and it composes the biochemical and neuronic brain mechanism for its help ."
C G Gung [ 1875-1961 ] a noted psychologist says --mind can be understood in four groups;
conscious mind, unconscious mind, collective mind and cosmos mind . All these mindsare interconnected .
सी जी ज़ंग का कोस्मिक माइंड वह है जिसके बारे में गीता सूत्र 7.7 के माध्यम से परम श्री कृष्ण कहते हैं---
संसा एक माला है और मैं उस माला का सूत्र हूँ।
ऊपर आप को गीता के सात श्लोक दिए गए हैं आप गीता प्रेस गोरखपुर का कोई गीता ले कर इन सूत्रों को
उसमें बार-बार पढ़ें , जब आप ऐसा करेंगे तो आप को ऐसा लगेगा ------इन सूत्रों के माध्यम से आप की
एक यात्रा प्रारंभ हो आरही है जो बाहर [संसार ] से अंदर की तरफ़ की है ।
हम समय के चक्र में हैं , हमारा मन संसार में रूचि रखता है , मन के इस कार्य में बुद्धि उसका साथ देती है --
यहाँ तक तो बाहर की यात्रा है लेकिन इसके बाद प्रज्ञा, चेतना , आत्मा और परमात्मा की यात्रा तो अन्दर की
यात्रा है । याद रखनें की बात है ...अन्दर की यात्रा बाहर से प्रारंभ होती है अर्थात हमारी यात्रा बाहर से अन्दर
की यात्रा है । जब तक बिषय को नही समझा जाता , जब तक इन्द्रीओं से मैत्री स्थापित नही होती और जब
तक मन संशय रहित नही होता तब तक अन्दर की यात्रा हो नही सकती ।
संसार का होश पूर्ण अनुभव हमें स्वतः अन्दर की यात्रा पर ला देता है ....संसार को अनुभव का क्षेत्र समझना चाहिए ।
मन, बुद्धि , चेतना से आत्मा को जानो और यह ज्ञान आपको परमात्मा से मिलादेगा ।
=======ॐ=========

Monday, May 11, 2009

त्याग को समझो

त्याग स्व का कृत्य नही , यह साधना-यात्रा का फल है
गीता-कर्म योग का सारांश है ---------------------
चाह एवं अंहकार रहित कर्म , कर्म-योग है ।
भोग से भोग में हम हैं और जिवधारिओंमें मनुष्य एक मात्र ऐसा जिव है जो भोग को समझ कर आगे की यात्रा
कर सकता है जिसको योग कहते हैं । योग का अर्थ है वह जो परम - प्रीतिकी लहर दिल में उठाये ।
जब परम प्रीति की लहर उठती है तब मन-बुद्धि में शब्द एवं चाह से परिपूर्ण भाव नही होते ।
चाह तथा अंहकार के साथ परम-प्रीति की लहर नही उठ सकती - परम-प्रीति की लहर एक बवंडर है जिसमें
दिशा तो होती है लेकिन उस दिशा को वही समझता है जो उसमें होता है , बाहरी ब्यक्ति उस की दिशा को नही
समझ सकता ।
राग, आसक्ति, कामना, क्रोध, संकल्प, विकल्प, लोभ, भय , मोह एवं अंहकार बंधन हैं इनको छोड़ना इतना
आसान नही , ये स्वतः छूट जाते हैं तब जब भोग-कर्म योग कर्म में बदल जाते हैं और ऐसा तब होता है जब
शरीर के कण-कण में परम की ऊर्जा भर जाती है ।
कर्म-योग की साधना जैसे-जैसे आगे बढती है वैसे-वैसे भोग तत्व स्वतः समाप्त होनें लगते हैं , उनकी पकड़
ढीली पड़नें लगाती है , मैं- तूं का भेद मिट जाता है ।
हम आम खाते हैं पर यह नहीं सोचते की यह आम क्या है , क्या कभी आप इस बात पर सोचे हैं ?
आम जो आज हमें उपलब्ध है वह एक बीज की लम्बी यात्रा का फल है ।
एक बीज धीरे-धीरे एक पेंड बनता है , जब पेंड तैयार होता है तब प्रकृत उसपर फल देती है , वह फल सभी
तरह के जीवों को आकर्षित करता है , उसमें एक अलग तरह की खुशबूं आजाती है जो अन्य जीवों को
आकर्षित करती है । आम के बीज की ही तरह एक साधक जब साधना में आगे बढ़ता है तब प्रकृत उसमें
भी फल खिलाती है , फल के रूप में उसे वैराग मिलता है , वैरागी के शरीर से भी एक खुशबूं निकलती है जो
भोगी एवं योगी दोनें को अपनी तरफ़ खीचती है । वैरागी से भोगी अपनें भोग -प्राप्ति की कामना के कारण
आकर्षित होता है और योगी अपनें योग को और आगे बढानें के लिए आकर्षित होता है ।
गुनातीत योगी एक पके आम जैसा होता है , वह जहाँ भी होता है उसके चारों तरफ़ एक ऐसी खुशबूं होती है जो .......
लोगों को अपनी तरफ़ खीच लेती है ।
हमें अपनें को देखना है , आप ज़रा सोचना क्या वह जिसको हम त्यागी कहतेहैं , उसमें मैं का भाव नही होता,
क्या उसमें सूक्ष्म अंहकार की छाया नही होती ? होती है और जब तक कर्म में मैं एवं अहंकार है , वह कर्म
त्याग हो नही सकता ।
त्याग - भाव का आना शुभ लक्षण है बश इतना होश बना कर रखना है की यह मैं नही कर रहा , मुझसे
हो रहा है , मैं तो एक माध्यम हूँ ।
=====ॐ=======

Sunday, May 10, 2009

परमात्मा क्या है ? ----4

क्या आप जानते हैं की परम श्री कृष्ण के बासुरी की धुन आज भी गूँज रही है ?
क्या आप उस धुन को सुनना चाहते हैं ?
यदि आप का उत्तर हाँ है तो आप अपनें मन-बुद्धि को इन बातों पर बसायें
कहते हैं -------
जब परम की बासुरी बजती थी तब उस क्षेत्र के सभी पशु , पंछी तथा पेड़-पौधे भी मंत्र मुग्ध हो जाते थे ।
परम की बासुरी जहाँ गूंजती थी उस क्षेत्र में एक अलग प्रकार की ऊर्जा प्रवाहित होती थी जिसमें सम्मोहन
की शक्ति होती थी ।
आज विज्ञान कहता है ---संगीत के प्रभाव में जो फूल खिलते हैं उनमें कुछ अलग पन होता है तथा
संगीत से गायों की दूध देने की क्षमता बढजाती है ।
आइये अब हम धुन - संगीत के माध्यम से गीता में परमात्मा को समझते हैं ।
यहाँ आप को गीता के निम्न श्लोकों को गहराई से पकड़ना पडेगा ।
गीता-सूत्र 10.26, 7.8, 9.17, 17.23, 10.25, 10.35, 10.33, 8.20, 8.21, 10.22
गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं --------
पीपल का पेंड , आकाश में शब्द , ओंकार , गायत्री-मन्त्र मैं हूँ ।
कभी आप पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर देखना --पीपल के पत्ते हवा की अनुपस्थित में भी नाचते रहते हैं ।
पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर आप उसके पत्तों के संगीत को सुनना , उस संगीत में आप को ॐ की धुन
मिलेगी । कभी आप अकेले एकांत में अपनें कमरे में गायत्री-मन्त्र को एक लय में आँखे बंद करके
गुनगुनाना , जब आप कई दिन ऐसा करेंगे तो बाद में आप को गुनगुनाना नही पडेगा, कमरे की दीवारों से
गायत्री की धुन स्वतः निकलती होगी --आप ऐसा करके देखें ।
संगीत की धुन भी एक माध्यम है और माध्यम माध्यम है जो रोकनें का काम नही करता , आगे खीचता
रहता है , आप को भी कही रुकना नही है , आगे चलते रहना है ।
संगीत की धुन के साथ एक भाव अंदर उठाता है इस भाव को आप बुद्धि में न आनें दे , इसको पकड़ कर
आप भावातीत में कदम रख सकते हैं जो परमात्मा का आयाम होता है । गीता कहता है ----
ब्यक्त से अब्यक्त , अब्यक्त से अब्याक्तातीत की यात्रा का नाम साधना है और अब्यक्त-भाव ही परम धाम है
गीता को लोग रखते तो हैं लेकिन समझनें में उनको अड़चन आती है क्योंकि गीता से भोग साधनों की
प्राप्ति तो होती नही , भोग-भावों का उठना ही बंद हो जाता है ।
आप ज़रा सोचो ----
भोग को कौन छोड़ना चाहता है ? और गीता भोग से दूर करता है यह बता कर की ------
तुम भोग से भोग में तो हो ही फ़िर परेशान क्यों हो , यदि भोग में परेशानी है तो भोग से बाहर की भी
यात्रा करके देखो क्या पता वहाँ तुझे वह मिल जाए जिसकी तुझे तलाश है ।
क्या बात है की संगीत शरीर में एक लहर पैदा कर देता है ?
=====ॐ========

Saturday, May 9, 2009

परमात्मा क्या है ? ----3

गीता कहानियों की किताब नही यह तत्व - ज्ञान की गणित है
अब आप गीता के परमात्मा को बुद्धि स्तरपर जाननें की कोशिश करें
१- गीता के निम्न सूत्रों को आप अच्छी तरह से समझ लें ----------
2.28, 2.16, 2.17, 9.19, 1312
ऊपर केसुत्रों का भावार्थ कुछ इस प्रकार हो सकता है .............
आज का ब्यक्त अपनें अब्यक्त से अब्यक्त की यात्रा का मध्य है । सत-असत दोनें परमात्मा से हैं पर
परमात्मा न तो सत है और न ही असत है । सत की कोई कमी नही और असतकी कोई सत्ता नही है ।
२- गीताके निम्न तीन सूत्रों को और देखें ............
8.20, 8.21, 8.3
ऊपर के तीन सूत्र कहते हैं की ...........
अभ्यक्त अक्षर ,परम अक्षर तथा अब्यक्त भाव , परमात्मा हैं ।
अक्षर का अर्थ है --जिसका कभी भी अंत न हो अर्थात सनातन लेकिन अब्यक्त भाव क्या है ? इस बात को हम
आगे चल कर देखेंगे ।
३- गीता के पाँच और सूत्र जो परमात्मा को ब्यक्त करते हैं .........
9.18, 10.3, 10.8, 10.32, 1039
गीता यहाँ कह रहा है - सृष्टि का आदि,मध्य, अंत परमात्मा है जो अजन्मा तथा आदि-अंत रहित है ।
४- गीता-सूत्र 13.15 कहता है ---सभी चर - अचर परमात्मा हैं और सब के अंदर -बाहर , समीप तथा
दूर में परमात्मा है ।
५- गीता के पाँच और परमात्मासे सम्बंधित सूत्र ..........
2.42, 2.43, 2.44, 12.3, 12.4
जब आप बार-बार इन सूत्रों को पड़ेंगे तो आप को एक बात दिखेगी ------
परमात्मा तथा भोग-भाव को एक साथ एक बुद्धि में नहीं रखा जा सकता और परमात्मा को मन-बुद्धि
स्तर पर नहीं समझा जा सकता ।
६- गीता सूत्र 7.3 बताता है ---परमात्मा को समझनें वाले लोग दुर्लभ होते हैं ।
गीता के 20 श्लोकों को आपनें ऊपर देखा --अब वक्त आगया है आप को सोचनें का की -------
परमात्मा को कैसे समझा जा सकता है ?
ऊपर जो कुछ भी गीता आप को बताता है उनसे आप के अंदर एक भाव बनता है । जब इन भावों के
माध्यम से आप भाव रहित हो जायेंगे तब आप में परमात्मा की किरण फूटेगी । शब्दों या भावों में
जो रुक जाता है उसकी परम की यात्रा खंडित हो जाती है । पूरे वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड में कोई सूचना स्थिर नही है
और कोईभी क्रिया कभी रूकती नही है अतः हमारी परम की यात्रा भी अंतहीन यात्रा है जिसमें एक समय
ऐसा भी आजाता है जब हमें अपना शरीर भी छोड़ना पड़ता है ।
परम-प्यार में डूबा योगी जब अपना शरीर त्यागता है तब उसे भी धन्य बाद करता है ----कहता है .....
हे शरीर ! तेरा धन्य बाद , यदि तूं न होता तो हमें आत्मा को बोध कैसे होता , सुख-दुःख का पता कैसे चलता
और हम संसार को कैसे समझते ?
गुणों से गुनातीत
भावों से भावातीत
भोग से योग
समय से समयातीत
शब्दों से निःशब्द -----
को समझना ही परम की यात्रा है
आप का सारा वक्त अपनें परिवार को सजानें और सवारने में गुजरता है कभी----
घड़ी दो घड़ी अपनें लिए भी लिकला करो जिसमें एकांत में बैठ कर यह जाननें की कोशिश करे की -----
मैं कौन हूँ ? किस से हूँ ? और किधर जाना था पर जा किधर रहा हूँ ? इस घड़ी दो घड़ी में हो सकता है आप को
सत्य की अनुभूति मिल जाए ।
======ॐ========

परमात्मा क्या है ?

प्यार ही परमात्मा है
प्यार ह्रदय में धड़कता है
ह्रदय का प्यार इन्द्रीओं से मिलकर ----
वासना बन जाता है
आत्मा - परमात्मा ---
ह्रदय में बसते हैं [10।20, 15.7, 15.15, 18.61, 13.17 ]
परम प्यार में डूबा ----
परा भक्त होता है
परा भक्त -----
साकार में निराकार देखता है
परा भक्त के लिए
परमात्मा निराकार नहीं रहता [6.30, 9.29, 18.54, 18.55 ]
आसक्ति रहित कर्म
पारा भक्त का होता है
ध्यान माध्यम से ----
परमात्मा की आवाज ----
ह्रदय में सुनाई पड़ती है [13.24]
पारा भक्ति उदित होनें पर क्या होता है ?
सामान्यतया एक भोग से सम्मोहित ब्यक्ति में बहनें वाली उर्जा 350 cycles/second की frequency
होती है लेकिन एक पारा भक्ति में डूबे ध्यानी में यह frequency 2,50,000 cycles/second की हो जाती है ।
इस स्थिति का योगी out of body की अनुभूति प्राप्त करता है जिसको समाधि कहते हैं ।
समाधि परमात्मा की झलक दिखाती है ।
=====ॐ======

Friday, May 8, 2009

परमात्मा क्या है ?

गीता मोती की हमारी यात्रा अब आखिरी पड़ाव पर आ पहुँची है । इस यात्रा में हम आप को केवल गीता में
सिमित रखनें की कोशिश किए हैं , गीता के नाम पर महाभारत की कहानियों से आप को जोड़ने की कोशिश
कहीं भी नही की गयी है । आप से मात्र एक प्रार्थना है , आप कभी भी गीता को महाभारत से जोडनें का यत्न
न करें , गीता की यात्रा अलग है और महाभारत की यात्रा अलग है । गीता का जन्म ठीक महाभारत- प्रारंभ के
समय हुआ है ,गीता महाभारत के युद्ध को नहीं देखा है और जब आप गीता में हो तो आप को भी महाभारत को
नहीं देखना चाहिए । अब आप गीता के परमात्मा से मिल रहे हैं , आप का तन-मन शांत होना चाहिए और
आप को ऐसा लगना चाहिए की आप परमात्मा से परमात्मा में हैं ।
हम पहचानते हैं उसे --जिसे जानते हैं
हम जानते हैं उसे ----जिसे इन्द्रियाँ जानती हैं
इन्द्रियाँ जानती है उसे ---जिसमें रूप,रंग, ध्वनी , गंध एवं संवेदना हो
फ़िर आप गीता के परमात्मा को कैसे जान पायेंगे ? क्योंकि गीता कहता है -------
भोग - भगवान् को मन-बुद्धि से नहीं समझा जा सकता
भोग- भगवान् को एक साथ एक बुद्धि में रखना सम्भव नहीं ...अब आप को सोचना है की .....
परमात्मा को कैसे जाना जाए , क्या यह सम्भव नहीं ?
ध्वनी के माध्यम से परम शुन्यता की अनुभूति पाना सम्भव है .....
साकार से निराकार की अनुभूति में उतरना आसान है ......
भोग के माध्यम से योग में उतरना सुगम है ......
भावों से भावातीत को जानना सरल है ..........
यदि हम इतना समझनें में सफल होते हैं फ़िर परमात्मा को खोजनें की जरुरत नहीं पड़ती क्योकि .......
वह कण-कण में है .....
उस से एवं उसमें सब हैं ....
जो हैं सब उसके फैलाव के कारण हैं ......
वह सब के अंदर-बाहर एवं सर्वत्र है .......
टाइम-स्पेस उस से एवं उसमें है .......
गीता का परमात्मा प्रकृत-पुरूष का श्रोत है ....
प्रकृत - पुरूष से पूरा ब्रह्माण्ड है ।
=======ॐ========

Thursday, May 7, 2009

गीता सूत्र 18.62 , 18.66

गीता-सूत्र ....18.62
परम श्री कृष्ण कहते हैं ------हे भारत ! तू स्वयं को पूर्ण रूपसे परमात्मा को समर्पित करदे , तू
उसकी शरण में चला जा , उसके प्रसाद रूप में तुम्हें पूर्ण शान्ति के साथ परम धाम की प्राप्ति होगी ।
गीता-सूत्र ....18.66
यहाँ परम कहते हैं -----तू सभीं धर्मों को छोड़ कर मेरी शरण में आजा , मैं तुम्हें सभी पापो से मुक्त कर दूंगा ।
अब आप आगे देखिये , गीता का समापन आरहा है गीता सूत्र 18.62 के बाद परम के मात्र 10 सूत्र और हैं तथा
अर्जुन का एक सूत्र--18.73 है , ऐसी परिस्थिति में परम क्या कह रहे हैं ?
अभी तक गीता में परम कर्म-योग तथा ज्ञान- योग में बिषय से बैराग तक एवं बैराग में ज्ञान के माध्यम से
आत्मा-परमात्मा तक की सभी बातों को बता चुके हैं अब और कुछ शेष नजर नही आता लेकिन परम की
बातों का कोई सार्थक प्रभाव अर्जन पर नही दिखता । यदि अर्जुन पर गीता का असर होता तो गीता सूत्र 11.45
तक समाप्त हो जाना था लेकिन ऐसा हुआ नही --अर्जुन इस सूत्र के बाद भी चार और प्रश्न पूंछते हैं । यदिअर्जुन
गीत-ज्ञान से प्रभावित होते तो उनको प्रश्न रहित होजाना था पर ऐसा हुआ नही । प्रश्न करता का मन अशांत
होता है , उसकी बुद्धि में संशय भरा होता है तथा वह अंहकार के प्रभाव में भी होता है ।
जब परम को यह बात स्पष्ट हो जाआती है की अर्जुन की दशा यथावत है , उसपर हमारी बातों का कोई असर
नही तब परम गीता सूत्र 18.62 से 18.72 तक में अपनी नीति में परिवर्तन करते हैं ।
गीता-सूत्र 18.62 में कहते हैं तू परमात्मा की शरण में जा , गीता-सूत्र 18.63 में कहते हैं --मुझे जो बताना था
मैं बता चुका हूँ अब तेरे मन में जो आए वैसा कर फ़िर गीता-सूत्र 18.66 में कहते हैं --तू सभी धर्मों को छोड़ कर
मेरे शरण में आजा मैं तुझे सभी पापो से मुक्त कर दूंगा , आगे गीता-सूत्र 18.67 में कहते हैं --ब्यर्थ है गीता -चर्चा
करना , उनके साथ जो नास्तिक हैं , जो भक्ति रहित हैं ,जो तप रहित हैं और जो गीता सुननें के इक्षुक नही हैं ।
यहाँ परम अर्जुन को तसल्ली भी दे ते हैं और अपना हाँथ खीच भी लेते हैं । अर्जुन मोह-ग्रसित हैं , मोह
से सम्मोहित ब्यक्ति आसरा खोजता है , उसके अंदर संकुचित अंहकार भी होता है जिसको वह ब्यक्त नही करता ।
जब अर्जुन को परम का सहारा दिखता है तब वे युद्ध से बचनें का रास्ता खोजते हैं और जब स्वयं को अकेला
पाते है तब उनमें भय आजाता है और वे सब कुछ स्वीकारते हैं । गीता के समापंमें परम अर्जुन को जो यह
मनोवैज्ञानिक दवा दी है उसका गहरा प्रभाव पड़ा है और अर्जुन सूत्र 18.73 --अपनें आखिरी सूत्र में कहते हैं ----
हे प्रभु! मेरा संशय सम्माप्त हो गया है , मुझे अपनी खोई हुई स्मृति मिल गयी है और आपको समर्पित हूँ ।
आप ज़रा सोचो अर्जुन जो मोह ग्रसित हैं और उनको गीता के प्रारम्भ में परम आत्मा को बता रहे हैं --क्या
यह सम्भव है की एक मोहमें डूबा ब्यक्ति आत्मा को समझ सकता है- जो ज्ञान योग का बिषय है । गीता में
परम कहते हैं --बैराग्यावस्थामें ज्ञान प्राप्ति पर आत्मा का बोध होता है फ़िर अर्जुन जो मोह में हैं कैसे
आत्मा को समझेंगे ?
गीता-तत्व ज्ञान उनके लिए है जो स्वयं के माध्यम से प्रकृत - पुरूष रहस्य को जानना चाहते हैं ।
गीता सब के घर में हो कर भी सबसे दूर है लोगों को इस से भय है जबकि यह भय मुक्त की दवा है ।
दवा घर में है और हम दवा को बाहर खोज रहे है ----है न मजे की बात ।
=====ॐ=======

Wednesday, May 6, 2009

जरा सोचना

बुद्ध राजा थे , उनके सभी अनुआयी भी राजा थे और उनके सभी उपाध्याय उच्च कोटि के
ब्राह्मण थे लेकिन आज की स्थिति क्या है ?
महाबीर राजा थे , उनके सभी अनुआयी भी राजा थे और उनके सभी गणउच्च कोटि के
ब्राह्मण थे पर आज क्या है ?
महाबीर नंगे बदन सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और आज भारत में सबसे अधिक कपडों की
दुकानें जैनिओं की हैं
महाबीर-बुद्ध के बाद उनके गण- उपाध्यायों द्वारा उनके शास्त्रों की रचनाएँ की गयी लेकिन
आज वे कहाँ लुप्त हो गए ?
जो राजा महाबीर - बुद्ध के साथ थे वे आज कहाँ हैं ?
यहाँ जो भी आता है चाहे वह-------------------
राजा हो
धर्म हो
मन्दिर हो
या फ़िर धर्म बनानें वाला हो सभी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं ----बात क्या है ?
ऊपर जो माध्यम बताये गए वे हम सब के आगे-आगे चलते हैं , कुछ दूरी तक तो हम उनके कदम से
कदम मिलाकर चलते तो हैं लेकिन फ़िर रुक जाते हैं और वे आगे चले जाते हैं ।
जो हमारे आगे - आगे चलते हैं वे हमें उस से मिलाना चाहते हैं --------------
जो कभी समाप्त नही होता , वे जल्दी में होते हैं क्योकि उनके पास समय कम होता है , वे हमारी गति को
अच्छी तरह से जानते हैं , हमें तेज गति से चलाना चाहते हैं पर हम चलना नही चाहते ।
वे चाहते हैं की हमलोग उसको पहचान ले जो सत्य है , जो कभी समाप्त नही होनेवाला है , जिस से
हम हैं और सारा ब्रह्माण्ड है पर हम पत्थर की शिला की तरह भोग में रुके होते हैं ......ऐसे में क्या हो
सकता है ?
सत-पुरूष के पैर से पैर मिलाकर चलना अति कठिन काम है पर एक जगह उनके बाद उनका मन्दिर
बनाकर उनकी मूर्ति की पूजा करना अति आसान है और यही हमें भाता भी है ।
हम अभी तक तो चुकते रहे हैं क्या अब भी चूकना है ?

======ॐ========

Tuesday, May 5, 2009

गीता का विज्ञानं

वैज्ञानिक की नजर अन्तरिक्ष पर टिकी है लेकिन वह यह नही जानता की -------
उसके घर में क्या होरहा है ?
वैज्ञानिक आकाश में तारों की गड़ना कर रहा है लेकिन वह यह नही जानता की -----
वह जो कमीज पहना है उसमें कितनी बटनें हैं ?
विज्ञान अन्तरिक्ष में पानी खोज रहा है और पृथ्वी पर लोगों को पर्याप्त पानी की ब्यवस्था नही है
गीता के निम्न 12 श्लोकों के माध्यमसे जो विज्ञान निकलता है उसे देखें ...........
गीता-सूत्र
2.28 , 8.16 , 13.33 , 13.19 ,15.16 , 7.4--7.6 , 14.3 ,14.4 , 13.5 , 13.6
जिसको हम कल तक जानते थे , जिसको हम आज जानते हैं और जिसको हम जाननें की कोशिश
कर रहें हैं चाहे वह एक कण हो या अन्तरिक्ष हो वह सब हमारे इन्द्रीओं की पकड़ का परिणाम है ।
मनुष्य अपनें इन्द्रीओं की क्षमता उपकरणों के विकास से बढ़ा रहा है क्योकि धीरे-धीरे मनुष्य की
इन्द्रियाँ कमजोर पड़ती जा रही हैं । अभी-अभी जापान के वैज्ञानिकों को पता चला है की एक चूहे में
सूंघनें के लिए 1000 receptor-gens होते हैं और सारे सक्रीय होते है और मनुष्य में इनकी संख्या
होती तो है 1200 लेकिन उनमें से केवल 800 ही सक्रीय होते हैं । हम क्यों अपनें इन्द्रीओं की क्षमता
खो रहे हैं ?
वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में तारों की चालों पर अपनी पैनी नजर लगाए हुए है लेकिन यह नही जानता की
उसका बच्चा क्या कर रहा है ?
गीता कहता है जो है उसे जानो, अच्छी बात है लेकिन इतनी सी बात याद रखना --जब तक तुम उसे
कुछ जान पाओगे तबतक वह बदल चुका होगा । आनंद बुद्ध से एक बार पूछा ----भंते! परमात्मा
क्या है ? , परमात्मा के नम पर आप चुप क्यो रहते हैं ? बुद्ध कहते हैं ---बोला उसपर जाता है जो है ,
परमात्मा तो अभी हो रहा है और जो हो रहा है उसकी परिभाषा क्या होगी ?
विज्ञानं अन्तरिक्ष में पृथ्वी को खोज रहा है और विज्ञान के कारण पृथ्वी यहाँ आखिरी श्वाश ले रही है -
वैज्ञानिकों को पता है की यह पृथ्वी अब ज्यादा दिनों तक नही रह पाएगी अतः क्यों न कोई नया
ठिकाना खोज लिया जाय ?
गीता 5000 वर्ष पहले बता चुका है की जब तक पञ्च महाभूत नही होते तब तक जीव का निर्माण नही
हो सकता । पञ्च महाभूत हैं ----पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि, आकाश । यहाँ आकाश को आप समझिये --
आकाश का अर्थ है स्पेस [space -an electro-magnetic medium ] जो टाइम-स्पेस फ्रेम का एक
कंपोनेंट है और समय की तरह सर्वत्र है । गीता कहता है की जब पाँच महाभूत माया के अपरा प्रकृत से
तैयार होते हैं और सम्यक वातावरण बनता है तब इनमें मन,बुद्धि, अंहकार तथा परा प्रकृत से चेतना का
फुजन होता है । अपरा एवं परा प्रकृतियों के फुजेंन में आत्मा-परमात्मा का फुजेंन होता है और जिव का निर्माण होता है ।
गीता-सूत्र 13.19 , 15.16 कहते हैं --प्रकृत एवं पुरूष से टाइम-स्पेस है और यह सूत्र शांख्य दर्शन की
बुनियाद हैं ।
आप यदि वैज्ञानिक हैं तो कभी गीता के इन सूत्रों पर भी सोचना क्या ये सूत्र किसी भी तरह आधुनिक
विज्ञान की कल्पनाओं से ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं ?
========ॐ=========

भाव की भाषा

भाषाबुद्धि की उपज है और भाव ह्रदय से उठते हैं
भाषा से भाव ब्यक्त नही किए जा सकते
भावों को ब्यक्त करते हैं -- आंखों से झरते आंशुओं की बूंदें
जो लोग भाव को भाषा से ब्यक्त करनें की कोशिश की वे सभी असफल रहे
बुद्धि आधारित बिषय की परिभाषा होती है लेकिन भाव आधारित बिषय की परिभाषा सम्भव नही
बुद्धि आधारित लोग शास्त्रों की रचना करते हैं ,भावों वाला भावों में बहता ही रहता है
बुद्धि आधारित ब्यक्ति किनारे की खोज करता है और भाव में डूबा , डूबा ही रहना चाहता है
भाव के तीन केन्द्र हैं ; ह्रदय , नाभि और स्वाधिस्थान चक्र [काम चक्र ]
ह्रदय से उठनेंवाले भाव के पीछे कोई कारण नही होता अन्य दो के पीछे कोई कारन होता है
बाहर से दोनों भावों को पहचानना सम्भव नहीं
आप में जब भाव उठें तब उनको आप पहचाननें की कोशिश करे, आप को आनंद मिलेगा
====ॐ======

Monday, May 4, 2009

कृष्ण और हम

जब कृष्ण साकार रूप में हम सब के साथ थे तब हम लोगों में से कितनें उनके साथ थे ?
उस समय उनको परमात्मा माननें वाले कितनें थे ?
श्री कृष्ण मथुरा को छोड़ कर द्वारिका क्यों गए ?
असुर कौन थे ?
इन प्रश्नों के सम्बन्ध में आप को अपनी बुद्धि लगानी है तब आप की बुद्धि स्थिर हो सकाती है जो गीता का उद्धेश्य
भी है। गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न है---हे प्रभु आप कृपया मुझे स्थिर प्रज्ञ की पहचान बताएं ।

जब कंश का अंत होगया तब लोगों ने समझा की अब शान्ति का वातावरण होगा लेकिन ऐसा हुआ नही , कंश
के समर्थकों का कहर तब भी जारी था और श्री कृष्ण लोगों के हित को देखते हुए मथुरा को छोड़ कर द्वारका
चले गए ।
गीता सूत्र 4.7, 4.8 कहते हैं-------
परमात्मा निराकार से साकार रूप धारण करता है ---सत पुरुषों की रक्षा करनें के लिए, पापियों के विनाश
के लिए तथा धर्म की स्थापना करनें के लिए । अब आप सोचो की क्या एस हुआ भी ?
महाभारत की लडाई समाप्त हुई , श्री कृष्ण द्वारका वापस चलेगये, श्री कृष्ण अपना शरीर त्याग कर अव्यक्त में
चले गए और द्वारका अरब सागर में समा गया , क्या परमात्मा जिस स्थान पर रहें हो उस स्थान की ऐसी
दशा होनी चाहिए ? अब आगे और देखिये--द्वापर युग के बाद गया-गुजरा भोग युगके रूप में कली युग आगया ।
यदि द्वापर में पाप का अंत हुआ होता तो द्वापर के बाद पुनः सत-युग आना चाहिए था न की कलि युग ।
श्री कृष्ण की लडाई असुरों से थी , आख़िर ये असुर थे कौन ?
असुरों का काले रंग से गहरा सम्बन्ध था , ऐसी बात पुरानों के आधार पर देखि जाती है । जब महाभारत
युद्ध हुआ उस समय विश्व में तीन पूर्ण विकशित सभ्यताएं थी ; एक हमारी सभ्यता, दूसरी इराक में थी
और तीसरी थी मिस्र में । इराक सभ्यता में एक स्थान उत्तर में था जिसका नाम था - असुर आज भी वह जगह
है । यह सभ्यता तीन भागों में थी ; उत्तर में असुर स्थान के चारों तरफ़ थी , मध्य भाग की सभ्याता को
बैबिलोंन कहते थे और दक्षिण में जो थी उसे सुमेर नाम से जाना जाता था । यहाँ के लोगों के पास उच्च कोटि
की ज्योतिष एवं विज्ञान था। क्या ऐसा सम्भव नही की भारत में आकार जो लोग श्री कृष्ण से लड़ रहे थे वे
इराक के असुर थे । सुमेरु लोग अपनें को काले सर वाले इन्शान भी कहते थे ।
गीता आप का पिछले कई हजार साल से इन्तजार कर रहा है , अब तो उसे अपनाइए ।
=====ॐ========

Sunday, May 3, 2009

वेद् और गीता

युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र से चल कर गीता लोगों के घर-घर में पहुंचा , लोगों को बदलनें के लिए
लेकिन -----------
लोग गीता को ही बदल डाले ।
आज गीता के नाम पर लोगों की भीड़ तो इकट्ठी कर ली जाती हैं पर लोगों को गीता के स्थान पर ------
कहानियाँ सुनाईजाती हैं .....क्या कभी आप इस बात पर सोचे हैं ?
क्या आप जानते हैं ? अलबर्ट आइंस्टाइन , मैक्स प्लैंक और श्रोडिन्गर जैसे महान वैज्ञानिक गीता के
माध्यम से विज्ञान को नई राह दिखायी और भारत में धर्माचार्य लोग कौन सी राह दिखा रहे हैं ?

गीता सूत्र 17.23 में परम कहते हैं.....सृष्टि के प्रारम्भ में वेद्, ब्रह्मण और यज्ञों की रचना मैनें की ।
वैज्ञानिक दृष्टि से वेदों का समय अज्ञात है लेकिन इतना कहा जा सकता हैं की वेदों का सम्बन्ध सिंध नदी -
सभ्यता से जरूर है । गीता एवं महाभारत का समय लगभग 5561-800 B.C. के मध्य माना जा सकता है ।
भारत के मान्य भूतत्व वैज्ञानिक BB.Lall कहते हैं की कुरुक्षेत्र में महाभारत - युद्ध लगभग 830 B.C. के
आस-पास हुयी दिखती है ।
रिग-वेद् जो प्राचीनतम वेद् है उसको लोग 1700-1100 B.C. के आस-पास का मानते हैं । गीता में रिग-वेद् ,
यजुर्वेद एवं साम-वेद् --मात्र तीन वेदों की चर्चा है अर्थात उस समय तक चौथा वेद् नही बना था --यहाँ आप देखे
गीता-सूत्र 9।17, 9।20 ।
गीता परमात्मा की किताब है लेकिन लोगों से दूर क्यों है , कुछ गहरा कारण तो होगा ही--इस बात पर आप
सोंचें । प्रारम्भ में यज्ञों, ब्राह्मण तथा वेदों की रचना को परमात्मा से होनें की बात की गई है जिसके
सन्दर्भ में हम यहाँ कुछ बातों को देख रहे है । गीता-सूत्र 18.42 में ब्राह्मण की परिभाषा दी गई है --यह
सूत्र कहता है की सम-भाव तथा निर्विकार परमात्मा से परमात्मा में स्थित जो होता है , वह ब्राहमण होता है ।
यज्ञों के सम्बन्ध में आप देखें गीता-सूत्र 4.24--4.31 , 4.33 , 9.15 , 17.11--17.13 तक ।
ऐसे कर्म जिनका केन्द्र परमात्मा होता है , यज्ञ कहलाते हैं । गीता के यज्ञ सम्बंधित सुतोंकी चर्चा हम अलग से
करेंगे यहाँ तो उनका सारांश मात्र दिया गया है ।
अब आप वेदों का गीता से क्या सम्बन्ध है को देखिये ---------
यहाँ हमें देखना पडेगा गीता सूत्र --2।42--2.46 , 6. 40 , 6.45 , 9.20--9.22
सूत्र कहते हैं ----
वेदों में भोग का समर्थन किया गया है और भोग - प्राप्ति के उपायों को भी बताया गया है तथा स्वर्ग -प्राप्ति को
परम माना गया है । गीता का उद्धेश्य है परम-पद की प्राप्ति वह भी गुनातीत की स्थिति मिलनें के माध्यम से ।
गीता कहता है की ऐसे लोग जिनकी श्रद्घा गीता में होती है उनका वेदों से सम्बन्ध नाम मात्र का ही होता है ।
गीता कहता है , स्वर्ग उनको मिलता है जिनकी साधना बीच में खंडित हो जाती है , जो वैराग्य तक नही
पहुँच पाते ,उन्हें संसार अपनी तरफ़ भोग में उतार लेता है ।
गीता सांख्य योग की गणित है इसको अपनें मनोरंजन का साधन न बनाएं ।

======ॐ=======

Friday, May 1, 2009

गीता का कृष्ण

औलिया मंसूर [857-922 AD] को बसरा शहर , इराक , की गलियों में बोटी-बोटी करके फेक दिया
गया था ---उनका कसूर क्या था ? क्योकि उन्होंने कहा --अनल हक

औलिया सरमद के सर को बादशाह औरंगजेब सन 1659 में दिल्ली के जामा मस्जिद की सीढियों पर
कलम करवाया था , उनका कसूर क्या था ? क्योकि उनका कहना था --------
ला इलाही इल अल्लाह

आदि शंकराचार्य [ 788-820 AD ] कहते थे ---अहम ब्रह्मास्मि

स्वामी रामतीर्थ [ 1873-1906 AD ] से लोगों ने पूछा चाद-तारों को किसनें बनाया , उनका जबाब था -----
मैनें

गीता में कुल ७०० स्श्लोक हैं जिसमें से ५५६ श्लोक श्री कृष्ण के हैं और उनमें से १०० से अधिक सूत्र परमात्मा को स्पष्ट करते हैं जिनमें श्री कृष्ण स्वयं को परमात्मा बतानें के लिए २०० से अधिक उदाहरण भी देते हैं । गीता में श्री कृष्ण का आखिरी सूत्र है --१८.७२ ।
अब आप देखिये आगे क्या होता है ---एक तरफ़ तो गीता का अंत हो रहा है तथा परम स्वयं को परमात्मा
बता रहे हैं --कहते हैं बस तू मेरे शरण में आजा , तेरी परेशानी समाप्त हो जाएगी और दूसरी तरफ़ गीता सूत्र
१८.६२ में कहते हैं ---------
हे भारत ! तू उस परमात्मा की शरण में जा उसकी कृपा से तू परम शान्ति प्राप्त कर सकता है और परम
धाम की प्राप्ति भी हो सकती है । यहाँ आप जरा सोंचे --क्या अर्जुन परम की इस बात को सुनें होंगे , नही सुना ,नही तो वे प्रश्न करते की वह परमात्मा कौन है , अभी तक तो आप स्वयं को ही परमात्मा बता रहे थे ।
आगे चल कर हम गीता के परमात्मा को भी देखेंगे और यह भी देखेंगे की ऐसी बात श्री कृष्ण क्यो कहे ?
====ॐ======

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