गीता-सूत्र ....18.62
परम श्री कृष्ण कहते हैं ------हे भारत ! तू स्वयं को पूर्ण रूपसे परमात्मा को समर्पित करदे , तू
उसकी शरण में चला जा , उसके प्रसाद रूप में तुम्हें पूर्ण शान्ति के साथ परम धाम की प्राप्ति होगी ।
गीता-सूत्र ....18.66
यहाँ परम कहते हैं -----तू सभीं धर्मों को छोड़ कर मेरी शरण में आजा , मैं तुम्हें सभी पापो से मुक्त कर दूंगा ।
अब आप आगे देखिये , गीता का समापन आरहा है गीता सूत्र 18.62 के बाद परम के मात्र 10 सूत्र और हैं तथा
अर्जुन का एक सूत्र--18.73 है , ऐसी परिस्थिति में परम क्या कह रहे हैं ?
अभी तक गीता में परम कर्म-योग तथा ज्ञान- योग में बिषय से बैराग तक एवं बैराग में ज्ञान के माध्यम से
आत्मा-परमात्मा तक की सभी बातों को बता चुके हैं अब और कुछ शेष नजर नही आता लेकिन परम की
बातों का कोई सार्थक प्रभाव अर्जन पर नही दिखता । यदि अर्जुन पर गीता का असर होता तो गीता सूत्र 11.45
तक समाप्त हो जाना था लेकिन ऐसा हुआ नही --अर्जुन इस सूत्र के बाद भी चार और प्रश्न पूंछते हैं । यदिअर्जुन
गीत-ज्ञान से प्रभावित होते तो उनको प्रश्न रहित होजाना था पर ऐसा हुआ नही । प्रश्न करता का मन अशांत
होता है , उसकी बुद्धि में संशय भरा होता है तथा वह अंहकार के प्रभाव में भी होता है ।
जब परम को यह बात स्पष्ट हो जाआती है की अर्जुन की दशा यथावत है , उसपर हमारी बातों का कोई असर
नही तब परम गीता सूत्र 18.62 से 18.72 तक में अपनी नीति में परिवर्तन करते हैं ।
गीता-सूत्र 18.62 में कहते हैं तू परमात्मा की शरण में जा , गीता-सूत्र 18.63 में कहते हैं --मुझे जो बताना था
मैं बता चुका हूँ अब तेरे मन में जो आए वैसा कर फ़िर गीता-सूत्र 18.66 में कहते हैं --तू सभी धर्मों को छोड़ कर
मेरे शरण में आजा मैं तुझे सभी पापो से मुक्त कर दूंगा , आगे गीता-सूत्र 18.67 में कहते हैं --ब्यर्थ है गीता -चर्चा
करना , उनके साथ जो नास्तिक हैं , जो भक्ति रहित हैं ,जो तप रहित हैं और जो गीता सुननें के इक्षुक नही हैं ।
यहाँ परम अर्जुन को तसल्ली भी दे ते हैं और अपना हाँथ खीच भी लेते हैं । अर्जुन मोह-ग्रसित हैं , मोह
से सम्मोहित ब्यक्ति आसरा खोजता है , उसके अंदर संकुचित अंहकार भी होता है जिसको वह ब्यक्त नही करता ।
जब अर्जुन को परम का सहारा दिखता है तब वे युद्ध से बचनें का रास्ता खोजते हैं और जब स्वयं को अकेला
पाते है तब उनमें भय आजाता है और वे सब कुछ स्वीकारते हैं । गीता के समापंमें परम अर्जुन को जो यह
मनोवैज्ञानिक दवा दी है उसका गहरा प्रभाव पड़ा है और अर्जुन सूत्र 18.73 --अपनें आखिरी सूत्र में कहते हैं ----
हे प्रभु! मेरा संशय सम्माप्त हो गया है , मुझे अपनी खोई हुई स्मृति मिल गयी है और आपको समर्पित हूँ ।
आप ज़रा सोचो अर्जुन जो मोह ग्रसित हैं और उनको गीता के प्रारम्भ में परम आत्मा को बता रहे हैं --क्या
यह सम्भव है की एक मोहमें डूबा ब्यक्ति आत्मा को समझ सकता है- जो ज्ञान योग का बिषय है । गीता में
परम कहते हैं --बैराग्यावस्थामें ज्ञान प्राप्ति पर आत्मा का बोध होता है फ़िर अर्जुन जो मोह में हैं कैसे
आत्मा को समझेंगे ?
गीता-तत्व ज्ञान उनके लिए है जो स्वयं के माध्यम से प्रकृत - पुरूष रहस्य को जानना चाहते हैं ।
गीता सब के घर में हो कर भी सबसे दूर है लोगों को इस से भय है जबकि यह भय मुक्त की दवा है ।
दवा घर में है और हम दवा को बाहर खोज रहे है ----है न मजे की बात ।
=====ॐ=======
Thursday, May 7, 2009
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