Tuesday, August 31, 2010

गीता अमृत - 16


गीता सूत्र - 9.29

प्रभु अर्जुन से कहते हैं .....

अर्जुन मेरा कोई प्रिय - अप्रिय नहीं है लेकीन मेरा भक्त मुझको अपनें में होने का एह्शास
करता है ।
प्रभु का भक्त कौन है ?
क्या रोजाना सुबह - संध्या समय मंदिर जानें वाला , प्रभु का भक्त है ?
क्या मंदिर का पुजारी , प्रभु का भक्त है ?
क्या मंदिर बनवानें वाला , प्रभु का भक्त है ?
उत्तर है -- हाँ और ना
प्रभु के भक्त को पहचाननें वाला भी प्रभु का भक्त होता है ;
कबीर को मीरा पहचान
सकती हैं और -----
नानक को कबीर पहचान सकते हैं ।
गीता में प्रभु कहते हैं ......
** श्लोक -8.14-8.15 , 18.54, 18.55
प्रभु का परा भक्त हर पल प्रभु में रहता है ।
** श्लोक - 8.8
भक्त के मन में प्रभु के अलावा और कुछ नहीं होता ।
** श्लोक - 7.1
प्रभु का भक्त , प्रभु का द्वार होता है ।
** श्लोक - 7.3
सदियों बाद कोई भक्त पैदा होता है ।
तन , मन एवं बुद्धि से प्रभु में डूबा ............
भोग का द्रष्टा होता है ---
गुणों का साक्षी होता है ----
उसका कोई अपना - पराया नहीं होता ----
वह सब में प्रभु को देखता है , और ----
प्रभु में सब को देखता है ॥

===== ॐ ======

गीता अमृत - 15


गीता सूत्र - 5.11

प्रभु अर्जुन से कहते हैं .......

.. योगी आसक्ति रहित तन , मन एवं बुद्धि से जो कुछ करता है वह उसको और निर्मल
करता है ॥

प्रभु की बात मात्र वह समझता है जिसके ----

## तन , मन एवं बुद्धि में प्रभु ऊर्जा के अलावा और कुछ न हो ।
## जिसके तन ,मन एवं बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा का प्रवाह हो रहा हो ।
## जो इस संसार को प्रभु के फैलाव रूप में देखता हो ।
## जो सब को प्रभु में और प्रभु को सब में देखता हो ।
## जो सुख - दुःख एवं हानि - लाभ में सम भाव रहता हो , और ....
## जिसका अहंकार पिघल कर श्रद्धा में बदल चुका हो ।

प्रभु की बात को मोह में डूबा अर्जुन क्या समझेगा ? उसे तो युद्ध क्षेत्र से पलायन करना ही
दिख रहा है ।

प्रभु सूत्र में कहते हैं -----

योगी का कर्म उसे गंगोत्री बनाता है । अब हमें - आप को देखना चाहिए की .......
हम सब का कर्म हम सब को क्या बना रहा है ?

===== ओम =======

Monday, August 30, 2010

गीता अमृत - 14


अब इसे भी देखते हैं

गीता के चार श्लोक

श्लोक - 8.5 ..... प्रभु कहते हैं ---- मृत्यु समय जो मुझे याद करता है , वह मुझे प्राप्त करता है ।
श्लोक - 8.6 .... प्रभु कहते हैं ---- मृत्यु के समय मन का भाव उस ब्यक्ति के अगले जन्म को तय करता है ।
श्लोक - 8.8.... प्रभु कहते हैं ---- मुझे जो मन में रखता है , वह मुझमें ही रहता है ।
श्लोक - 15.8.... प्रभु कहते हैं --- मृत्यु के बाद आत्मा के संग मन भी रहता है ।

हम आप को अपनी राय नहीं देना चाहते , आप प्रभु के बचनों को बार - बार सोचें और जो भाव आप के अन्दर आये , उसका साक्षी बनानें की कोशिश करते रहें , प्रभु आप के ह्रदय में भी है ,
आप आज नहीं तो कल
सत को पा ही जायेंगे ॥

===== जय श्री कृष्ण =======

Saturday, August 28, 2010

गीता अमृत - 13


कौन द्रष्टा है ?

## गीता सूत्र - 5.8 , 5.9

इन्द्रियों के माध्यम से जो हो रहा हो उसे भावातीत स्थिति में देखते रहनें वाला , द्रष्टा होता है ॥

## गीता सूत्र - 14.19, 14.23

कर्म में करता रूप में गुणों को समझनें वाला साक्षी एवं द्रष्टा होता है ॥

आप को आज सुबह गीता के चार सूत्र दिए जा रहे हैं , आज रवि वार है, आप अपनें परिवार में होंगे ऐसा शुभ अवसर हप्ते के बाद आता है , आप से मैं यह प्रार्थना करता हूँ की इन चार सूत्रों को आप अपनें परिवार में
मनन का बिषय बनाएं ।

गीता से भयभीत न हो कर मैत्री साधें क्योंकि गीता जीनें की पवित्र राह दिखाता है ।
फीता की शिक्षा का मात्र एक उद्देश्य है --- लोगों के सर को कट कर नीचे गिरते हुए देखनें
वाले की दिल की धड़कन न बदलें और ह्रदय भावातीत स्थिति में रहे , काम सुननें में जितना सरल दिखता है उतना सरल है
नहीं क्योंकि -----
समभाव की स्थिति का मिलना प्रभु से मिलनें के बराबर होता है ।
समभाव , साधना का फल है
सम भाव से बहनें वाली ऊर्जा निर्विकार हो जाती है ।

॥ ===== ओम ===== ॥

गीता अमृत - 13


## गीता श्लोक - 13.3

क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है

## गीता श्लोक - 4,38

योग - सिद्धि का फल ज्ञान है

योग क्या है ?

वह कृत्य जो रुख को प्रभु की ओर कर दे , उसको योग कहते हैं ।
योग प्रभु से जुडनें का मार्ग है

गीता यह भी कहता है ------
जिस बुद्धि में भोग भाव हो उसमें प्रभु का भाव उठना संभव नहीं , फिर क्या करें ?

गीता की सीधी सी गणित है ......

मन - बुद्धि से भोग की पकड़ को दूर करो , प्रभु अन्दर आनें का इन्तजार ही कर
रहा है ।
भोग - भाव को कैसे दूर करें ?
भोग से भोग में हम हैं , भोग कोई बस्तु नहीं की उठा कर स्टोर में फेक दिया ,
भोग तत्वों की समझ ,
भोग से
परे की यात्रा कराता है और इस यात्रा का नाम है -----
प्रभु ॥

॥ ----- ॐ ----- ॥





Tuesday, August 24, 2010

गीता अमृत - 12


सत को कैसे छूएं ?

गीता सूत्र - 2.53 कहता है ---

वेदों एवं अन्य धार्मिक प्रशंगों में न उलझ कर स्थिर मन वाला समाधि के माध्यम से सत में पहुंचता है ॥

इस सूत्र के बाद अर्जुन प्रश्न पूछते हैं -----

समाधि में स्थित स्थिर मन वाले की क्या पहचान है ? प्रभु के उपदेश में अर्जुन का मात्र इतना सम्बन्ध है की उन बातों से अगला प्रश्न कैसे बन सकता है ? ऎसी सोच वाला भक्ति में कैसे पहुँच सकता है ?

क्या बिना समाधि , सत को जानना संभव नहीं ?
सत साधना का फल है , सत ही ज्ञान है [ गीता - 4.38 ] जिसको प्राप्त करता स्थिर मन - बुद्धि वाला होता है ।
स्थिर मन - बुद्धि वाला कौन होता है ?

वह होता है जिसकी ------
इन्द्रियाँ उसके बश में हों
जो बिषयों के रहस्य से वाकिब हो
जिसके जीवन का केंद्र प्रभु के अलावा और कुछ न हो
जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रभु के फैलाव के रूप में देखता हो
जो सब में प्रभु को और सब को प्रभु में देखता हो
जो प्रकृति में जो होरहा है उसका द्रष्टा हो

===== ॐ =====




Monday, August 23, 2010

गीता अमृत - 11


गीता के अमृत वचन

** गीता सूत्र - 9.29
श्रद्धा से परिपूर्ण योगी मेरा मित्र होता है ॥

** गीता सूत्र - 9.34
तूं मेरा भक्त बन कर मुझे प्राप्त कर सकते हो ॥

** गीता सूत्र - 8.8
प्रभु मय होनें के लिए प्रभु को मन में बसाना पड़ता है ॥

** गीता सूत्र - 7.1
प्रभु में आसक्त मन प्रभु का द्वार खोलता है ॥

कई जन्मों की साधनाओं का फल है - भक्ति ॥

आप गीता के इन सूत्रों को अपनाकर प्रभु से अपना सबंध बना सकते हैं

==== ॐ =====

Sunday, August 22, 2010

गीता अमृत - 10


गीता सूत्र - 9.34

तूँ मेरा भक्त बन कर मुझे प्राप्त कर सकता है ॥

भक्त बनना क्या आसान है ?
भक्ति क्या है ? तन मन एवं बुद्धि से समर्पण का नाम , भक्ति है , जो साधना का
फल है
उठाये एक लोटा पानी , दो फूल , अगरबत्ती , माचिश , चन्दन और चल दिए प्रभु को
खुश करनें - मंदिर ।
प्रभु को दो रुपये का बतासा , प्रसाद रूप में चढ़ा कर , हम चाहते हैं बीस लाख की
गाड़ी ।
आप ज़रा सोचना ........
ठंढे दिमाक से की क्या प्रभु इतना बेवकूफ है की दो रुपये के बतासे से खुश हो कर हमारी मनोकामना
पूरी कर देगा ? मनुष्य लीगों को धोखा दे - दे कर धोखा देने का इतना अमली हो
जाता है की अपनें को भी
धोखा देनें लगता है और मंदिर में जा कर प्रभु को भी धोखा देनें की ब्यवस्था
करता है ।

गीता में श्री कृष्ण कहते हैं - परा भक्ति से मुझे पाया जा सकता है जो कर्म - योग एवं ज्ञान योग
का फल है ।
भक्ति मार्ग के लोग साकार भक्ति से जब निराकार में पहुंचते हैं तब उनको अब्यक्त का बोध
ह्रदय के माध्य से
होता है ।

मंदिर जानें वालों की कतारें आप को दिखती होंगी .........
उनमें से एकाध अपरा भक्ति से परा के दरवाजे को खोलनें में सफल होते हैं और ..........
उनमें से कोई प्रभु की अनुभूति प्राप्त करता है और वह भी .....
कई जन्मों की भक्ति के बाद ।

===== ॐ =======


Thursday, August 19, 2010

गीता अमृत - 09


गीता श्लोक - 4.35, 4.37, 4.41, 4.38

गीता के चार श्लोक कहते हैं --------

ज्ञान से मोह समाप्त होता है , कर्म फल की आसक्ति समाप्त होती है , भ्रम समाप्त होता है और ग्यानी को कर्म नहीं बाँध सकते एवं सभी योगों का फल , ज्ञान है ।

गीता में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं और जो कुछ कहते हैं वह अर्जुन के लिए कहते हैं और अर्जुन बुद्धि केन्द्रित ब्यक्ति हैं । अर्जुन यदि बुद्धि केन्द्रित न होते तो उनकी बुद्धि प्रश्नों में न उलझती क्यों की दोनों एक दुसरे को बचपन से जानते हैं ।

गीता मोह की दवा है और मोह का रसायन है भ्रम - अज्ञान । अर्जुन के भ्रम को दूर करनें के किये प्रभु भ्रम में भ्रम पैदा करके अर्जुन की बुद्धि को थका कर सत पर केन्द्रित करते हैं । कभी कहते हैं ज्ञान उत्तम है , कभी कहते हैं कर्म - योग उत्तम है , कभी संन्यास को उत्तम कहते हैं और कभी भक्ति को उत्तम कहते हैं । कभी कहते हैं - तुम अपनें मन -बुद्धि को मेरे ऊपर केन्द्रित करो , कभी कहते हैं - तूं प्रभु की शरण में जा , वहीं तेरे को सत का पता चलेगा और कभी कहते हैं -- तूं सिद्धि प्राप्त गुरु के पास जा , वह तुमको सत को दिखा सकता है क्योंकी उसे सत का पता होता है , अब इस परिस्थिति में अर्जुन का भ्रम दूर होगा या और सघन होगा ?
गीता बुद्धि - योग की गणित है , जिसमें कोई भी सूत्र पूर्ण नहीं है और सभी सूत्रों का आपस में गहरा सम्बन्ध है ।
गीता जैसा उपलब्ध है वैसे पढनें से कुछ नहीं मिलता , इसमें गुण तत्वों की पकड़ से बचनें की सभी औषधियां उपलब्ध हैं , आप को कौन सी चाहिए , उसे आप को खोजनी है जो एक कठिन काम है ।

याद रखना , गीता में उतरना अति आसान और -----
गीता से बाहर होना , अति कठिन है ॥

===== ॐ =====





Sunday, August 15, 2010

गीता अमृत - 08

गीता श्लोक - 8.21

परम गति के साथ अब्यक्त अक्षर की अनुभूति , आवागमन से मुक्त करती है ।

गीता के सूत्र ठीक वैसे हैं जैसे थिअरी ऑफ़ रिलेटिविटी के दिए गए आइन्स्टाइन के सूत्र । गीता के इस सूत्र में हम
देखते है .......
परम गति क्या है ?
अब्यक्त अक्षर क्या है , और ....
आवागमन से मुक्ति क्या है ?

परम गति क्या है ?
विज्ञान से आप एक कण से अपनें गलेक्सी तक पर एक नजर डालें , यहाँ सब गतिमान हैं , पृथ्वी जिस पर
हम सब हैं वह , सूर्य का चक्कर काट रही है , अपनें किल के ऊपर चारों ओर चक्कर काट रही है और हमारा
सौर्य मंडल अति तीब्र गति से अपनें न्युक्लिअस के चारों ओर चल रहा है अतः पृथ्वी भी इस गति में सामिल है ।
आप ज़रा सा काम करें -- पृथ्वी के डायामीटर से परिधी की गणना करे और फिर 24 घंटे x 60x60 से भाग दें
और जो आयेगा , वह होगा पृथ्वी की वह गति प्रति सेकेंड जिस से वह अपनी किली पर चल रही है , आप को ताजुब होगा यह जान कर की यह चाल १६००किलो मीटर से भी अधिक की है ।
अमेरिका में ध्यान पर कुछ प्रयोग हुए हैं और यह पाया गया है की मनुष्य जो ध्यान की गहराइयों में पहुंचता है
उसके अन्दर की ऊर्जा लगभग जब दो लाख सायकिल प्रति सेकंड की हप जाती है तब उस ध्यानी को यह
मह्शूश होनें लगता है की वह देह से बाहर है जिसको Out of body experience कहते हैं । आम आदमी के अन्दर
यह फ्रिक्योंसी लगभग तीन सौ के आस पास होती है । एक बार आइन्स्टाइन कहे थे की यदि कोई प्रकाश
की गति से चले तो वह अमर हो सकता है । परमं गति वह गति है जो प्रकाश के श्रोत की अर्थात प्रभु
की गति है । समाधि में प्रभु की अनुभूति जब होती है उस समय मनुष्य के अन्दर instuitive energy की
frequency लगभग 300,000 per second की हो जाती है जिसको परम गति का प्रारम्भिक स्तर कह
सकते हैं ।
अब्यक्त अक्षर क्या है ?
यह वह है जो ब्यक्त न हो सके पर जिसके होनें की अनुभूति हो । समाधि में पहुंचा योगी कैसे बक्त करेगा ? न उसके पास मन है , न इन्द्रियाँ , जब ब्यक्त करनें की ऊर्जा और साधन न हों तो ब्यक्त कैसे किया जा सकता है ।
परमात्मा अब्यक्त अक्षर है ; अक्षर का अर्थ है - सनातन , अविनाशी , आदि - अंत रहित ।
परम धाम क्या है ?
परम धाम वह है जिसमें विलीन होने पर विलीन होनें वाले का अस्तित्व समाप्त हो जाए और वह जिसमे विलीन हुआ है , वही बन जाए । जब योगी समाधि में प्राण त्यागता है तब उसे परम धाम पहुँचना कहते हैं ।

======= ॐ ======

Saturday, August 14, 2010

गीता अमृत - 07

परम यात्रा

आइये आज हम चलते हैं गीता माध्यम से एक परम पवित्र यात्रा पर जिसको हम सभी जानते तो हैं पर इस
यात्रा पर चलते विरले ही हैं ।
पहले गीता के सूत्रों को देखें जो इस यात्रा का निर्माण करते हैं --------
** सूत्र - 9.19 प्रभु कहते हैं ..... वर्षा का कारण , मैं हूँ ।
** सूत्र - 10.24 प्रभु कहते हैं .... सागर मैं हूँ ।
** सूत्र - 10.25 प्रभु कहते हैं ... हिमालय मैं हूँ ।
** सूत्र - 10.23 प्रभु कहते हैं ... शिव मैं हूँ ।
** सूत्र - 10.35 प्रभु कहते हैं ... गायत्री मैं हूँ ।
** सूत्र - 10.25 प्रभु कहते हैं ... यज्ञों में पवित्र नाम जप मैं हूँ ।
** सूत्र - 10.21 प्रभु कहते हैं ... सूर्य मैं हूँ ।
** सूत्र - 15.12 प्रभु कहते हैं ... सूर्य का तेज मैं हूँ ।

अब आप इस गीता की परम पवित्र यात्रा पर निकल सकते हैं ; यात्रा गायत्री के जप के साथ गंगा सागर से आकाश के
माध्यम से वाष्प के रूप में शिव की जटाओं से गंगोत्री से गंगा के रूप में सागर तक की और पुनः गंगा सागर में
बिलीन होनें पर गंगा को सागर बन जानें का अवसर मिलता है है और वाष्प बननें के बाद ही पुनः इसको हिमालय से यात्रा करनें का मौक़ा बार - बार मिलता है ।
मेरे पास सिमित शब्द हैं , जो कहना चाहता हूँ कह नहीं पा रहा लेकीन आप ऊपर दिए गए सूत्रों में अपनें को जितना
दुबोयेंगे , आप की यह परम यात्रा उतनी ही आनंद से परिपूर्ण होगी ।

परम श्री कृष्ण की ऊर्जा से यह ब्रह्माण्ड है , आप को इस ऊर्जा के लिए कहीं जाना नहीं है , बश कभी - कभी
अपनें अन्दर झांका करें ।

===== ॐ =====

Wednesday, August 11, 2010

गीता अमृत - 06


गीता सूत्र - 5.24

अंतर्मुखी योगी निर्वाण प्राप्त करता है ।

क्या है अंतर्मुखी और क्या है निर्वाण , इन दो शब्दों को सरल भाषा में समझना जरुरी है ?
अंतर्मुखी वह है जिसकी पीठ भोग की तरफ हो और आँखें सीधे प्रभु में टिकी हों और निर्वाण है , प्रभु में समाजाना ,
कहते हैं न कबीरजी -- बूँद समानी समुद्र में , वह जो अपनें बूँद अर्थात जीवात्मा को प्रभु में समाते हुए
देखनें में सफल हो सके , उसे कहा जा सकता है की ऐसा योगी निर्वाण प्राप्त योगी है ।

किसकी पीठ भोग की ओर हो सकती है ? वह जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हो - जब चाहे प्रयोग करे और
जब चाहे कछुए की तरह उन्हें भोग की ओर से पीछे खींच ले , मन - बुद्धि जिसके बस में हों और जो गुणों के
रहस्य को समझता हो और जिसको गीता कहता है -- स्थिर बुद्धि , गुनातीत , पंडित , ब्राह्मण और ग्यानी ।
कौन देख सकता है अपनें जीवात्मा को प्रभु में समाते ? वह जो बुद्धत्व प्राप्त कर चुका हो , वह जिसको क्षेत्र -
क्षेत्रज्ञ का होश हो , और जो प्रभु के तीन गुणों की माया को ठीक से समझता हो ।

==== ॐ ======

गीता अमृत - 05


संन्यास एवं कर्म योग

यहाँ हम गीता के तीन श्लोकों को देखते हैं ----

[क] गीता सूत्र - 5.2 ........यहाँ प्रभु कहते हैं -----संन्यास - कर्म योग , दोनों मुक्ति पथ हैं लेकीन कर्म योग संन्यास से उत्तम है ।
[ख] गीता सूत्र - 6.1 ....... प्रभु कहते हैं ----- कर्म त्यागी योगी या सन्यासी नहीं होता , कर्म में कर्म फल की चाह न रखनें वाला , सन्यासी - योगी होता है ।
[ग] गीता सूत्र - 6.2 ...... यहाँ प्रभु कहते हैं ------ संन्यास एवं योग दोनों एक हैं और सन्यासी - योगी संकल्प रहित ब्यक्ति होता है ।

श्री कृष्ण की गीता में कही गयी बातों में उनको रस मिलता है जो ------
[क] तर्क - बितर्क की गहरी ऊर्जा रखते हैं
[ख] जिनको प्रभु के प्रसाद रूप में भक्ति गर्भ से मिली हुयी है ।
[ग] जिनका अहंकार पिघल कर श्रद्धा में बदल गया होता है ।
[घ] जिनको यह ब्रह्माण्ड श्री कृष्ण मय दिखता है ।

शब्दों के चक्कर में आप न पड़ें , जो कुछ भी प्रभु की ओर चलनें के लिए कर रहे हैं , उसे करते रहे लेकीन ----
[क] भय के कारण नहीं
[ख] कामना पूर्ति के लिए नहीं
गीता के श्री कृष्ण उनको दीखते हैं जो -----

भोग तत्वों की पकड़ से परे हैं ....
प्यार से भरे हैं , और
अन्दर बाहर से निर्मल हैं ।

===== ॐ ====

Tuesday, August 10, 2010

गीता अमृत - 04


कर्म , कर्म योग , कर्म संन्यास एवं ज्ञान समीकरण

गीता में अर्जुन अध्याय - 03 में पूछते हैं ---- यदि ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझे कर्म में
क्यों डालना चाहते हैं ? अर्जुन अध्याय - 05 में कहते हैं -- आप कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों की बातें बताते हैं , आप मुझे यह बताएं की इन दोनों में मेरे लिए लाभ प्रद कौन है ?

मोह में ज्ञान के ऊपर अज्ञान छाया होता है और संदेह की ऊर्जा तन , मन एवं बुद्धि में प्रवाहित हो रही होती है , ऎसी स्थिति में सत को बुद्धि में लाना संभव नहीं होता , अर्जुन फायदे - नुकशान की बात सोच रहे हैं , वह भी उसके साथ जिसको वे प्रभु कहते हैं ।

कर्म , कर्म संन्यास , कर्म योग एवं ज्ञान में सीधा सम्बन्ध है --- जिसको हम कर्म कहते हैं , वह गीता का भोग कर्म है , क्योंकि जो हम करते हैं उसके पीछे गुणों की ऊर्जा होती है और गुणों की ऊर्जा में हुआ कर्म , भोग है ।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए की मनुष्य भोग से भोग में है , भोग के फल स्वरुप हम पैदा होते हैं , भोग में पलते हैं और भोग में तबतक रहते हैं जबतल हमें भोग - रहस्य का पता नहीं चलता ।
कर्मों में गुण तत्वों की पकड़ का न होना कर्म योग है और गुण तत्वों का स्वयं उपजा त्याग कर्म संन्यास है और इस साधना से जो अनुभूति मिति है , वह है - ज्ञान ।
संन्यासी कामना एवं अहंकार की बैसाखी पर जीवन यात्रा नहीं करता , उसकी यात्रा
प्रभु से प्रभु में प्रभु के सहारे
बिना आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार होती है ।
संन्यासी अन्दर से पूर्ण रिक्त होता है और अपनें इस रिक्तता का उसे जो अनुभव होता है ,
उसकी ही तलाश सब को है ।

भोग से योग का फूल खिलता है .....
भोग से गुनातीत की यत्रा होती है ....
भोग पर यह संसार टिका सा दिखता है ....
और भोग से परे प्रभु का दरबार है , जिसको .....
परम धाम
परम गति
परम पद कह सकते हैं ॥

===== ॐ =====

Sunday, August 8, 2010

गीता अमृत - 03

सत्य क्या हैं ?

आदि गुरु शंकाराचार्य कहते हैं ........ ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या --- अर्थात ब्रह्म सत्य है और यह संसार जिसमे सभी ब्यक्त सूचनाएं हैं , मिथ्या है । गीता सूत्र - 2.28 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ..... जो है जड़ एवं चेतन सभीं अब्यक्त से अब्यक्त की अपनी - अपनी यात्रा के मध्य में ब्यक्त हैं --- अर्थात हम अब्यक्त से निकले हैं और अब्यक्त की ओर जा रहे हैं , यह ब्यक्त का आभाष बहुत लंबा नहीं है । मनुष्य का जीवन है कितना लंबा ? लगभग 70 बर्ष के बाद की उम्र ऎसी है जो किसी के ऊपर भार सी होती है । सत्तर साल में प्रारम्भिक पच्चीस साल तो अन जानें में निकल जाते हैं , शेष बचे
पैतालीस साल जिसमें आधा समय रात में निकल जाता है अब शेष बचे लगभग बाईस वर्ष , इस जीवन में एक नहीं अनेक काम में उलझा मनुष्य धीरे - धीरे एक दम तनहा होता चला जाता है , बूढ़े माँ - पिता एवं बच्चों की फिक्र , संसार में नंबर एक होनें की सोच -- काम इतनें और समय ?
गीता कहता है --- संसार में दो प्रकार के लोग हैं ; एक वे हैं जिनकी बुद्धि में भोग ही सब कुछ है , जो लोग प्रभु की आस्था में विश्वास नहीं रखते और एक वे हैं , जो संसार को प्रभु के फैलाव रूप में देखते हैं , पर आज इस श्रेणी के लोग दुर्बभ हैं । इस वैज्ञानिक युगमें भारत में अनगिनत गुरु हर साल निकलते हैं , पुरानें मंदिर मर रहे हैं , कोई झाड़ू देनें वाला नहीं और पांच सितारा वाले आश्रम उग रहे हैं । आज सत गुरु पाना दुर्लभ है और यदि भूल से कोई सामनें आ भी जाए तो उसे हम कैसे पहचानेंगे , हमारे पास है क्या उसे परखनें के लिए ।

गीता सूत्र 4.34 - 4.35 प्रभु अर्जुन से कहते हैं ---तूं किसी सत गुरु की शरण में जा , वहाँ तेरेको ज्ञान मिलेगा , ज्ञान से
तेरा मोह समाप्त होगा और तब तूं सत को समझेगा एवं देखेगा , मेरे से मेरे में यह ब्याप्त संसार है ।

सत वह है जो अपरिवर्तनीय है , जो तब था जब कुछ न था , आज है जब पूरा संसार भरा पडा है और सदा योंही
रहेगा । गीता कहता है --- तीन गुणों की मेरी माया जब तक कोई समझ कर उसके पार नहीं पहुंचता , तबतक
वह मुझे - अर्थात परम सत्य को नहीं समझ सकता । जिसनें माया को जाना उसनें बोला -----
** ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या
** अहम् ब्रह्माष्मी
** अनल हक
लगे रहना है आज नहीं तो कल , इस जनम में ना सही अगले जनम में सही एक दिन हम भी सत को जरूर देखेंगे ।

===== ॐ =====

Saturday, August 7, 2010

गीता अमृत - 02


प्रभुमय कैसे हों ?

प्रभुमय होना एक यात्रा है और यात्रा का अर्थ है , वह जिसके प्रारम्भ का तो पता हो किन्तु जो
अंत रहित हो ।
यात्रा वहाँ से की जा सकती है जहां हम हैं , जहां हम नहीं हैं , वहाँ से यात्रा कैसे हो सकती है ।
गीता कहता है -----
* कर्म के बिना कोई जीवधारी एक पल भी नहीं रह सकता , क्योंकि .....
* कर्म करता गुण हैं न की मनुष्य ।
* सभी कर्म दोषयुक्त हैं पर सहज कर्मों का त्याग करना उचित नहीं ।
* गुण प्रभावित कर्म भोग हैं जिसको करते समय तो सुख मिलता है पर परिणाम दुःख
ही होता है ।
* आसक्ति रहित कर्म ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
* आसक्ति रहित कर्म प्रभु का द्वार खोलती है ।

कर्म में कर्म के बंधनों को धीरे - धीरे ढीला करना , गीता का कर्म योग है जिसके लिए न तो हिमालय जानें की जरूरत है , न परिवार से भागनें की जरुरत है और न संन्यासी जैसा अपनें को दीखानें की जरूरत है ।
देह , भेष - भूषा बदलना अति आसान लेकीन ----
स्वयं को बदलना अति कठिन ।

===== ॐ =====

Thursday, August 5, 2010

गीता अमृत - 01

गीता श्लोक 4.10 , 2.56

गीता में प्रभु कहरहे हैं -----
राग भय एवं क्रोध रहित संभव में योगी स्थिर प्रज्ञ होता है और अगले श्लोक में कहरहे हैं ----
राग भय एवं क्रोध रहित योगी ज्ञान के माध्यम से प्रभु में होता है ।

अब देखते हैं राग , क्रोध एवं भय क्या हैं ?
राग और क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं और राजस गुण प्रभु मार्ग में एक मजबूत अवरोध है [ गीता - 6.27 ]
मोह तम गुण का तत्त्व है और सूत्र - 2.52 में प्रभु कहरहे हैं .... मोह के साथ बैराग्य में उतरना असंभव है एवं
बिना बैराग्य भोग संसार को समझना संभव नहीं ।

प्रभु के कुछ सूत्रों को आप को सादर सेवार्पित करके मैं चाहूँगा की आगे की यात्रा इन सूत्रों के सहारे आप स्वयं करें ।
प्रभु आप के अन्दर है आप गुण - तत्वों के सम्मोहन से बाहर निकल कर प्रभु को निहार सकते हैं - यह मैं नहीं
प्रभु श्री कृष्ण कहरहे हैं ।

===== ॐ ======

Monday, August 2, 2010

गीता श्लोक 3.19,3.20


अनासक्त कर्म राजा जनक की तरह बिदेह बनाकर प्रभु में पहुंचाता है ।

गीता यहाँ कह रहा है -----
भोग कर्म के माध्यम से यदि तुम साधना में चलना चाहते हो तो कर्म तुम क्यों कर रहे हो , इस बात को अपनें
साधना का बिषय बनाओ क्योंकि इस खोज में भोग तत्वों की पकड़ का पता चलेगा और गीता साधना में
गुण साधना इसी का नाम है ।

गुण तत्त्व या भोग तत्त्व हैं - काम , आसक्ति , कामना , क्रोध , भय , मोह , अहंकार , लोभ । जब कर्म होनें के पीछे
इन तत्वों में से किसी एक तत्त्व की भी छाया न हो तो वह कर्म भोग कर्म न हो कर योग कर्म हो जाता है ।
राजा जनक राजा थे लेकीन उनसे जो भी कर्म होता था उसमें वे स्वयं को करता नही देखते थे अपितु द्रष्टा
देखते थे । गुण तत्त्व ज्ञान की साधना में कर्म करनें वाला गुणों को करता देखता है और स्वयं को साक्षी
समझता है ।

आसक्ति रहित कर्म प्रभु का द्वार खोलता है , ऎसी बात गीता के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं ।
प्रभु बार बार अर्जुन को यही बात बताना चाहते हैं की अर्जुन जो तुम करो उसके पीछे कोई भोग - कारण न हो और
जब ऎसी स्थिति में कर्म होनें लगें तो तेरा मार्ग सीधे मेरी ओर जा रहा होगा जो तेरे को परम आनंदित बनाकर
अंततः तेरे को निर्वाण में पहुंचा देगा जो मनुष्य जीवन का परम लक्ष होता है ।

===== ॐ =======

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