Sunday, August 22, 2010
गीता अमृत - 10
गीता सूत्र - 9.34
तूँ मेरा भक्त बन कर मुझे प्राप्त कर सकता है ॥
भक्त बनना क्या आसान है ?
भक्ति क्या है ? तन मन एवं बुद्धि से समर्पण का नाम , भक्ति है , जो साधना का
फल है
उठाये एक लोटा पानी , दो फूल , अगरबत्ती , माचिश , चन्दन और चल दिए प्रभु को
खुश करनें - मंदिर ।
प्रभु को दो रुपये का बतासा , प्रसाद रूप में चढ़ा कर , हम चाहते हैं बीस लाख की
गाड़ी ।
आप ज़रा सोचना ........
ठंढे दिमाक से की क्या प्रभु इतना बेवकूफ है की दो रुपये के बतासे से खुश हो कर हमारी मनोकामना
पूरी कर देगा ? मनुष्य लीगों को धोखा दे - दे कर धोखा देने का इतना अमली हो
जाता है की अपनें को भी
धोखा देनें लगता है और मंदिर में जा कर प्रभु को भी धोखा देनें की ब्यवस्था
करता है ।
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं - परा भक्ति से मुझे पाया जा सकता है जो कर्म - योग एवं ज्ञान योग
का फल है ।
भक्ति मार्ग के लोग साकार भक्ति से जब निराकार में पहुंचते हैं तब उनको अब्यक्त का बोध
ह्रदय के माध्य से
होता है ।
मंदिर जानें वालों की कतारें आप को दिखती होंगी .........
उनमें से एकाध अपरा भक्ति से परा के दरवाजे को खोलनें में सफल होते हैं और ..........
उनमें से कोई प्रभु की अनुभूति प्राप्त करता है और वह भी .....
कई जन्मों की भक्ति के बाद ।
===== ॐ =======
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