Wednesday, August 11, 2010

गीता अमृत - 06


गीता सूत्र - 5.24

अंतर्मुखी योगी निर्वाण प्राप्त करता है ।

क्या है अंतर्मुखी और क्या है निर्वाण , इन दो शब्दों को सरल भाषा में समझना जरुरी है ?
अंतर्मुखी वह है जिसकी पीठ भोग की तरफ हो और आँखें सीधे प्रभु में टिकी हों और निर्वाण है , प्रभु में समाजाना ,
कहते हैं न कबीरजी -- बूँद समानी समुद्र में , वह जो अपनें बूँद अर्थात जीवात्मा को प्रभु में समाते हुए
देखनें में सफल हो सके , उसे कहा जा सकता है की ऐसा योगी निर्वाण प्राप्त योगी है ।

किसकी पीठ भोग की ओर हो सकती है ? वह जिसकी इन्द्रियाँ उसके बस में हो - जब चाहे प्रयोग करे और
जब चाहे कछुए की तरह उन्हें भोग की ओर से पीछे खींच ले , मन - बुद्धि जिसके बस में हों और जो गुणों के
रहस्य को समझता हो और जिसको गीता कहता है -- स्थिर बुद्धि , गुनातीत , पंडित , ब्राह्मण और ग्यानी ।
कौन देख सकता है अपनें जीवात्मा को प्रभु में समाते ? वह जो बुद्धत्व प्राप्त कर चुका हो , वह जिसको क्षेत्र -
क्षेत्रज्ञ का होश हो , और जो प्रभु के तीन गुणों की माया को ठीक से समझता हो ।

==== ॐ ======

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