Wednesday, August 11, 2010

गीता अमृत - 05


संन्यास एवं कर्म योग

यहाँ हम गीता के तीन श्लोकों को देखते हैं ----

[क] गीता सूत्र - 5.2 ........यहाँ प्रभु कहते हैं -----संन्यास - कर्म योग , दोनों मुक्ति पथ हैं लेकीन कर्म योग संन्यास से उत्तम है ।
[ख] गीता सूत्र - 6.1 ....... प्रभु कहते हैं ----- कर्म त्यागी योगी या सन्यासी नहीं होता , कर्म में कर्म फल की चाह न रखनें वाला , सन्यासी - योगी होता है ।
[ग] गीता सूत्र - 6.2 ...... यहाँ प्रभु कहते हैं ------ संन्यास एवं योग दोनों एक हैं और सन्यासी - योगी संकल्प रहित ब्यक्ति होता है ।

श्री कृष्ण की गीता में कही गयी बातों में उनको रस मिलता है जो ------
[क] तर्क - बितर्क की गहरी ऊर्जा रखते हैं
[ख] जिनको प्रभु के प्रसाद रूप में भक्ति गर्भ से मिली हुयी है ।
[ग] जिनका अहंकार पिघल कर श्रद्धा में बदल गया होता है ।
[घ] जिनको यह ब्रह्माण्ड श्री कृष्ण मय दिखता है ।

शब्दों के चक्कर में आप न पड़ें , जो कुछ भी प्रभु की ओर चलनें के लिए कर रहे हैं , उसे करते रहे लेकीन ----
[क] भय के कारण नहीं
[ख] कामना पूर्ति के लिए नहीं
गीता के श्री कृष्ण उनको दीखते हैं जो -----

भोग तत्वों की पकड़ से परे हैं ....
प्यार से भरे हैं , और
अन्दर बाहर से निर्मल हैं ।

===== ॐ ====

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