Saturday, August 7, 2010

गीता अमृत - 02


प्रभुमय कैसे हों ?

प्रभुमय होना एक यात्रा है और यात्रा का अर्थ है , वह जिसके प्रारम्भ का तो पता हो किन्तु जो
अंत रहित हो ।
यात्रा वहाँ से की जा सकती है जहां हम हैं , जहां हम नहीं हैं , वहाँ से यात्रा कैसे हो सकती है ।
गीता कहता है -----
* कर्म के बिना कोई जीवधारी एक पल भी नहीं रह सकता , क्योंकि .....
* कर्म करता गुण हैं न की मनुष्य ।
* सभी कर्म दोषयुक्त हैं पर सहज कर्मों का त्याग करना उचित नहीं ।
* गुण प्रभावित कर्म भोग हैं जिसको करते समय तो सुख मिलता है पर परिणाम दुःख
ही होता है ।
* आसक्ति रहित कर्म ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
* आसक्ति रहित कर्म प्रभु का द्वार खोलती है ।

कर्म में कर्म के बंधनों को धीरे - धीरे ढीला करना , गीता का कर्म योग है जिसके लिए न तो हिमालय जानें की जरूरत है , न परिवार से भागनें की जरुरत है और न संन्यासी जैसा अपनें को दीखानें की जरूरत है ।
देह , भेष - भूषा बदलना अति आसान लेकीन ----
स्वयं को बदलना अति कठिन ।

===== ॐ =====

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