Tuesday, August 10, 2010

गीता अमृत - 04


कर्म , कर्म योग , कर्म संन्यास एवं ज्ञान समीकरण

गीता में अर्जुन अध्याय - 03 में पूछते हैं ---- यदि ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझे कर्म में
क्यों डालना चाहते हैं ? अर्जुन अध्याय - 05 में कहते हैं -- आप कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों की बातें बताते हैं , आप मुझे यह बताएं की इन दोनों में मेरे लिए लाभ प्रद कौन है ?

मोह में ज्ञान के ऊपर अज्ञान छाया होता है और संदेह की ऊर्जा तन , मन एवं बुद्धि में प्रवाहित हो रही होती है , ऎसी स्थिति में सत को बुद्धि में लाना संभव नहीं होता , अर्जुन फायदे - नुकशान की बात सोच रहे हैं , वह भी उसके साथ जिसको वे प्रभु कहते हैं ।

कर्म , कर्म संन्यास , कर्म योग एवं ज्ञान में सीधा सम्बन्ध है --- जिसको हम कर्म कहते हैं , वह गीता का भोग कर्म है , क्योंकि जो हम करते हैं उसके पीछे गुणों की ऊर्जा होती है और गुणों की ऊर्जा में हुआ कर्म , भोग है ।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए की मनुष्य भोग से भोग में है , भोग के फल स्वरुप हम पैदा होते हैं , भोग में पलते हैं और भोग में तबतक रहते हैं जबतल हमें भोग - रहस्य का पता नहीं चलता ।
कर्मों में गुण तत्वों की पकड़ का न होना कर्म योग है और गुण तत्वों का स्वयं उपजा त्याग कर्म संन्यास है और इस साधना से जो अनुभूति मिति है , वह है - ज्ञान ।
संन्यासी कामना एवं अहंकार की बैसाखी पर जीवन यात्रा नहीं करता , उसकी यात्रा
प्रभु से प्रभु में प्रभु के सहारे
बिना आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार होती है ।
संन्यासी अन्दर से पूर्ण रिक्त होता है और अपनें इस रिक्तता का उसे जो अनुभव होता है ,
उसकी ही तलाश सब को है ।

भोग से योग का फूल खिलता है .....
भोग से गुनातीत की यत्रा होती है ....
भोग पर यह संसार टिका सा दिखता है ....
और भोग से परे प्रभु का दरबार है , जिसको .....
परम धाम
परम गति
परम पद कह सकते हैं ॥

===== ॐ =====

1 comment:

  1. बहुत ही उत्तम विचार ,सार्थक प्रस्तुती ...

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