Thursday, August 19, 2010

गीता अमृत - 09


गीता श्लोक - 4.35, 4.37, 4.41, 4.38

गीता के चार श्लोक कहते हैं --------

ज्ञान से मोह समाप्त होता है , कर्म फल की आसक्ति समाप्त होती है , भ्रम समाप्त होता है और ग्यानी को कर्म नहीं बाँध सकते एवं सभी योगों का फल , ज्ञान है ।

गीता में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं और जो कुछ कहते हैं वह अर्जुन के लिए कहते हैं और अर्जुन बुद्धि केन्द्रित ब्यक्ति हैं । अर्जुन यदि बुद्धि केन्द्रित न होते तो उनकी बुद्धि प्रश्नों में न उलझती क्यों की दोनों एक दुसरे को बचपन से जानते हैं ।

गीता मोह की दवा है और मोह का रसायन है भ्रम - अज्ञान । अर्जुन के भ्रम को दूर करनें के किये प्रभु भ्रम में भ्रम पैदा करके अर्जुन की बुद्धि को थका कर सत पर केन्द्रित करते हैं । कभी कहते हैं ज्ञान उत्तम है , कभी कहते हैं कर्म - योग उत्तम है , कभी संन्यास को उत्तम कहते हैं और कभी भक्ति को उत्तम कहते हैं । कभी कहते हैं - तुम अपनें मन -बुद्धि को मेरे ऊपर केन्द्रित करो , कभी कहते हैं - तूं प्रभु की शरण में जा , वहीं तेरे को सत का पता चलेगा और कभी कहते हैं -- तूं सिद्धि प्राप्त गुरु के पास जा , वह तुमको सत को दिखा सकता है क्योंकी उसे सत का पता होता है , अब इस परिस्थिति में अर्जुन का भ्रम दूर होगा या और सघन होगा ?
गीता बुद्धि - योग की गणित है , जिसमें कोई भी सूत्र पूर्ण नहीं है और सभी सूत्रों का आपस में गहरा सम्बन्ध है ।
गीता जैसा उपलब्ध है वैसे पढनें से कुछ नहीं मिलता , इसमें गुण तत्वों की पकड़ से बचनें की सभी औषधियां उपलब्ध हैं , आप को कौन सी चाहिए , उसे आप को खोजनी है जो एक कठिन काम है ।

याद रखना , गीता में उतरना अति आसान और -----
गीता से बाहर होना , अति कठिन है ॥

===== ॐ =====





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