Wednesday, March 17, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 2

श्री जप जी साहिब

श्री गुरु अंगद जी साहिब [ दुसरे गुरु ] आदि गुरु श्री नानक जी साहिब द्वारा रचित एवं गायी गयी कृतियों जो नाद - आधारित हैं , को संकलित करके एक नाम दिया , जिसको श्री जपजी साहिब नाम से जाना जाता है ।
श्री जपजी साहिब श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में पृष्ठ - 1 से पृष्ठ - 8 तक में स्थित हैं ।
जपजी का अर्थ है - जप , गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं - यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूँ अर्थात श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का प्रारम्भ जप - यज्ञ से होता है ... यह भी एक सोचनें का बिषय है ।

गंगा , हिमालय से सागर तक की यात्रा का नाम है, जिसकी धारा गायत्री से प्रारभ हो कर एक ओंकार में [ सागर की शुन्यता ] पहुँच कर परम की ओर इशारा करती है और श्री ग्रन्थ साहिब की वानियाँ नाद से परम धुन ॐ में पहुंचा कर कहती हैं - देख ले बश यही सत्य है ।
श्री जप जी साहिब की धुनें परम धुनें हैं और जो इन धुनों में अपने को घुला दिया वह पहुँच जाता है , उसमें जो महशूश तो किया जाता है लेकीन ब्यक्त नहीं किया जा सकता।
गीता कहता है - कर्म - योगी कर्म सिद्धि पर ज्ञान योग की परा निष्ठा में पहुँच कर प्रभु से परिपूर्ण हो जाता है [ गीता - 18.49 , 18.50, 18.54, 18.55] और जपजी साहिब अपरा भक्ति से परा भक्ति में पहुंचकर कहते हैं - अब तूं जान ले उस एक ओंकार को जो सत नाम है ।
गीता यज्ञ के सम्बन्ध में [ गीता सूत्र - 4.29, 4.30, 4.24 ] कहता है -
यज्ञ वह सब है जिसका केंद्र परमात्मा हो अर्थात परमात्मा जिस कर्म में एवं कर्म सामग्रियों में हर पल यज्ञ करता को दीखता हो वह सब कर्म , यज्ञ हैं और यज्ञ अज है - गीता 17.23
जब आप गुरु वाणी सुन रहे हो तो यह भाव अपनें मन में बनाए रखें की आप यज्ञ में बैठे हैं क्योंकि
गुरु वाणी - यज्ञ हैं ।
दिन भर के कर्म का रस यदि लेना हो तो रात्री में सोते संमय आप जपजी का पाठ जरुर करें ।

==== एक ओंकार ======

No comments:

Post a Comment

Followers