गीता श्लोक - 18.62
श्री कृष्ण कहते हैं -----
तूं जा उस परमेश्वर की शरण , वहीं प्रसाद रूप में तेरे को शांति मिलेगी ।
केवल इस श्लोक को पढ़नें से गीता रहस्य से पर्दा नहीं उठता , इसके साथ कुछ और श्लोकों को देखना पड़ेगा , तो आइये देखते हैं ------
[क] गीता श्लोक - 18.54 - 18.58 तक ..... यहाँ प्रभु कहते हैं - तू मेरी शरण में आजा नहीं तो तेरा अंत होनें वाला है ।
[ख] गीता श्लोक - 18.63 - मुझे जो बताना था , बता दिया अब तूं जैसा चाहे वैसा कर ।
[ग] गीता श्लोक - 18.64 - तूं मेरा मित्र है , मैं तेरे हित की बातों को बताउंगा ।
[घ] गीता श्लोक - 18.65 - तूं मेरा मित्र है , तूं मेरी भक्ति कर ।
[च] गीता श्लोक - 18.66 - सभी धर्मों को छोड़ कर तूं मेरी शरण में आजा ।
[छ] गीता श्लोक - 18.67 - बेकार है ऐसे ब्यक्ति को गीता सुनाना जो प्रभु में आस्था न रखता हो और जो सुननें की चाह से न भरा हो ।
गीता में गीता श्लोक - 18.62 के पहले एवं बाद में भी श्री कृष्ण यह कहते रहे हैं की मैं ब्रह्म हूँ , मैं सब का आदि , मध्य एवं अंत हूँ , मैं सनातन हूँ , मैं सब का आत्मा हूँ , मैं जन्म , जीवन एवं मृत्यु हूँ और यहाँ आकर अर्जुन को कहते हैं - जा तूं उस परमेश्वर की शरण में , वहीं तेरे को शान्ति मिलेगी -- ऐसी बात प्रभु अर्जुन से क्यों कहरहे हैं ? यह सोच का बिषय है । क्या परम श्री कृष्ण - एक सिद्ध सांख्य - योगी के रूप में आत्मा - परमात्मा , गुण बिज्ञान , कर्म - योग , ज्ञान - योग की बातें बतानें के बाद यह सोच रहे हैं की उनकी बातों का कोई ख़ास असर अर्जुन पर नहीं हो रहा है , इसलिए कह रहे हैं की जा तूं उसकी शरण में , मुझे जो बताना था वह बता दिया है । श्री कृष्ण अपनें को अर्जुन से दूर क्यों कर रहे हैं ? यदि आप इस बात पर
सोचेंगे तो आप को वह मिलेगा जो गीतान्त है ।
गीता से दूरी न बनाएं , गीता में अपेन को घुलायें ....
गीता कोई सर्प नहीं है जो आपमें बिष पहुंचाएगा , यह तो अमरत्व की दवा है ....
गीता में स्थित प्रीति की धारा में बहनें की कोशिश आप को परम में पहुंचाएगी अतः ....
गीता को परम से जुड़ने का एक सन्देश समझ कर इसको अपनानें की कोशिश करें ....
====ॐ=======
Thursday, March 4, 2010
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