Tuesday, March 2, 2010

गीता ज्ञान - 93

मोह का अहंकार



गीता सूत्र - 18.58 - 18.60 तक कहते हैं -----

[क] यदि तूं अहंकार के कारण मेरी बातों को अनसुनी करके युद्ध नहीं करता तो तेरा अंत दूर नहीं ।

[ख] तूं अहंकार में आकर युद्ध नहीं करना चाहता लेकीन तेरा स्वभाव तेरे को युद्ध में खींच लेगा ।

[ग] तूं मोह के कारण युद्ध नहीं करना चाहता लेकीन अपनें स्वभाव के कारण तेरे को युद्ध करना ही पड़ेगा ।


गीता के तीन सूत्र कह रहे हैं की .........

[क] मनुष्य अपनें स्वभाव का गुलाम है ।

[ख] मोह में अहंकार होता है ।

[ग] मन से जो समर्पण करता है , वह परमात्मा में ही होता है ।



गीता की इन बातों को हम यहाँ गीता में ही देखनें का प्रयाश करते हैं -----

## स्वभाव क्या है ? यहाँ आप देखें गीता - 2।45, 3।5, 3।27, 3।33, 14।10, 8।3

गीता कह रहा है .... तीन गुण होते हैं जो बदलते रहते हैं , गुणों से स्वभाव बनाता है स्वभाव से कर्म होता है एवं ऐसे सभी कर्म भोग कर्म होते हैं जिनसे क्षणिक सुख - दुःख का अनुभव होता है ।

गीता कहता है ..... मनुष्य का गुण आधारित स्वभाव उसे भोग से जोड़ता है लेकीन मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसका मूल स्वभाव अध्यात्म है , जो उसे प्रभु में पहुंचाता है ।

## मोह का अहंकार क्या है ?

मोह का अहंकार अर्जुन को है , गीता का अर्जुन कोई और नहीं - हम सब हैं जो हर पल रंग बदलते रहते हैं ।

अर्जुन श्री कृष्ण को गुरु , परम पवित्र , परम ब्रह्म , सत - असत से परे बताते हैं लेकीन उनकी बातों को सुननें की जगह उनकी बातों में प्रश्न खोजते हैं । यदि वास्तव में अर्जुन जो कहते हैं वह उनके दिल की आवाज है तो फिर प्रश्न क्यों पूंछते हैं ?

मोह का अहंकार केंद्र पर अन्दर होता है जो बाहर से नहीं दीखता और कामना का अहंकार परिधि पर होनें से अपनी सींग को दूर से दीखता रहता है । मोह मन - बुद्धि को संदेह से भर देता है ।
मोह एवं कामना के प्रभाव में हम सब मंदिर जाते हैं और गीता कहता है -- जब तक मोह - कामना है तब तक प्रभु एक सपना ही रहेगा - फिर क्या करें ?

मंदिर जाना उत्तम है लेकीन वहाँ कुछ पानें के लिए न जाएँ अपितु कुछ छोडनें के लिए जाएँ । यदि रोज हम एक बंधन को मंदिर में छोड़ कर आते हैं तो एक वर्ष में हम बंधन मुक्त हो कर ------

निर्ग्रन्थ हो सकते हैं जो प्रभु से परिपूर्ण होता है ।


====om======

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