Sunday, March 28, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 13

मूल मंत्र सूत्र - 5 निर्वैर [ Nirvair ] ---- Enmity

[क] महाबीर कहते हैं .......
मित्ति मे सब्ब भूयेसू , बैरं मज्झ न कवई
[ख] बुद्ध कहते हैं ......
नहि बरेंन बेरामि सम्मंतोध कुदाचन ।
अबेरेंन च संमंति एस धम्मो सनन्तनो ॥
और आदि गुरु नानकजी साहिब कहते हैं - वैर को निर्वैर में बदलनें की दवा है मूल मंत्र
का जाप ।
मूल मंत्र के चौदह सोपानों में हम अब पांचवे सोपान पर हैं - निर्वैर । एक ओंकार , सत नाम , करता पुरुष , निर्भय से गुजर कर अब हम है निर्वैर पर ।
वैर की समझ स्वतः निर्वैर बनाती है । गीता कहता है ----
साकार से निराकार में , अपरा भक्ति से परा भक्ति में पहुँचना अति कठिन काम है , हजारों में कोई एक
पहुचता है और ऐसे लोग सदियों बाद प्रकट होते है और दुर्लभ होते है ---
देखिये गीता सूत्र - ---
7.3, 7.19, 12.5 को ।

आदि गुरु श्री नानकजी साबिब को शरीर त्यागे 470 वर्ष हो चुके हैं और बुद्ध को शरीर त्यागे 2496 वर्ष
हो चुके हैं लेकीन क्या इन जैसा कोई आज तक आ पाया ? जी नहीं आ पाया है और न ही आयेगा क्योंकि
प्रकृति में रिवर्स गिअर नहीं है । कहते हैं बुद्ध आनंद से बोले हैं की यदि मैं दुबारा आया तो लोग हमें
मात्रेय नाम से जानेगे - मैत्रेय का अर्थ है -- निर्वैर ।
आदि गुरु नानक जी साहिब कहते हैं - यदि तेरे में वैर भाव है तो तुम उसे समझनें की कोशीश करो ।
गीता कहता है वैर अहंकार की छाया है [ गीता - 3.27 ] जो करता भाव से जन्म लेता है ।
जपजी का मूल मंत्र जप करता में वह ऊर्जा पैदा करता है जो जप करता को पारस बना देता है और उस पारस
से सभी गुण तत्वों की पकड़ समाप्त हो जाती है और सम भाव शरीर के कण - कण में भर जाता है ।
जप जी साहिब का मूल मंत्र जो ऊर्जा प्रवाहित करता है वह -----
वासना को प्यार में बदल देता है .....
अहंकार को श्रद्धा में बदलता है .....
और करता भाव को रूपांतरित करके .....
द्रष्टा बनाता है और गीता में सांख्य - योग के माध्यम से परम श्री कृष्ण अर्जुन में यही ऊर्जा प्रवाहित करते हैं ।
गीता में श्री कृष्ण के पांच सौ चप्पन श्लोकों में जो ज्ञान मिलता है वही ज्ञान रस जप जी के मूल मंत्र में है ।

=====एक ओंकार सत नाम =====

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