Tuesday, March 31, 2009
आप जानते हैं?----भाग-१
विज्ञानं की राय
विज्ञानं में एटम एक इतना छोटा कण है जिस को आँख से देखना कठिन है। एटम का एक नाभि-केन्द्र होता है
जिसमें दो कण --प्रोटोन एवं नयूत्रोन होते हैं। प्रोत्रोन -नयूट्रआन क्वार्क्स जोडों से बनें होते हैं। एटम के चारों
तरफ़ एलेक्ट्रोनउसका चक्कर लगता रहता है। अब कण वैज्ञानिक कह रहे हैं ---सभी पदार्थों की रचना छःजोड़े
लेप्तोनसे होती है --लेप्तोन भी क्वार्क्स की तरह अस्थिर अति छोटे कण हैं। विज्ञानं में पदार्थो की रचना जोड़े कडोंसे
हुयी मानी जाती है और सृष्टीनर-मादा जोड़े से आगे चलती है।
प्रकृत की सृजनता को समझो
विज्ञानं कहता है ......
एटोमिक - फिजनमें दो हलके कण आपस में जब जुड़ते हैं तब बहुत उर्जा निकलती है और दो मिल कर एक भारी
कण का निर्माण करते हैं। सृष्टि में दो कण जब मिलते हैं तब उनमें एक और कण आ मिलाता है जिसको जीवात्मा कहते हैं। जीवात्मा में मन,बुद्धि एवं चेतना होती है। जीवात्मा को हम आगे चल कर बिस्तार से देखेंगे।
विज्ञानं सिंगल फीजन की बात करता है लेकिन प्रकृत में डबल फीजन होता है।
विज्ञानं कण-भौतिकी में एटम में नाभि-केन्द्र का चक्कर एलेक्ट्रोन लगाते रहते हैं और यदि एक
से अधिक एलेक्ट्रोन हों तो वे आपस में अपने द्वारा उत्पादित फोतोंसके माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान
भी करते हैं।
माँ-बच्चे में क्या होता है?
माँ की गोदी का बच्चा गोदी से जुदा होनें पर जीवन भर गोदी को खोजता रहता है। माँ बच्चे का नाभि-केन्द्र होती है, बच्चा उसका एलेक्टोंन होता है जो अपने नाभि-केन्द्र को खोजता रहता है। अब हम एक और
पहलू पर विचार करते हैं, माँ - बच्चे की चेतनाओं से चेतन- कण निकलते रहते हैं जो आपस में चेतन मयी
सूचनाओं का आदान-प्रदान करते रहते हैं जिसका पता इन्द्रीओं को नहीं चल पता लेकिन भावात्मक संवेदना
दोनों के हृदयों में बहती रहती है। विज्ञानं का एटम अपनें एलेक्त्रोंन को अपनी तरफ़ खिचता रहता है और माँ का
चेतन मय कण अपनें बच्चे को पुकारता रहता है।
आप क्या माँ की गोदी को भला भुला सकते हैं?
ॐ
गीता-बीज [भाग-३ ]
2.47, 2.48, 3.4, 3.19, 3.20, 5.10, 3.33, 18.59, 18.60, 18.48, 3.5, 18.38, 5.22, 2.14,
4.38, 4.18, 12.15, 8.3,
ऊपर दिए गए सूत्रों का भाव आप यहाँ देखें --------------
आसक्ति, कामना, अंहकार एवं अन्य भोग कर्म-तत्वों के बिना किया जानें वाला कर्म --समत्व-योग कहलाता है।
समत्व-योग का अर्थ है -------choiceless awareness अर्थात जो है,वह पर्याप्त है।
कर्म के बिना कोई भी जीवधारीएक पल के लिए भी नहीं रह सकता, कर्म-त्याग से सिद्धि नहीं मिलतीकर्म में
भोग-तत्वों के त्याग से सिद्धि मिलती है। समत्व-योगी भोग संसार में कमलवत रहता है। संसार में ऐसा कोई
कर्म नहीं है जिसमें दोष न हो लेकिन दोषित कर्मों में आसक्ति रहित स्थिति में सहज कर्मों को करना चाहिए।
सहज-कर्म वे कर्म हैं जिनके बिना प्रकृतमें रहना सम्भव नहीं। भोग-कर्म एवं योग-कर्म में एक अन्तर है---
भोग-कर्म से जो सुख मिलाता है उसमें दुःख का बीज होता है और योग-कर्म समभाव की उर्जा से भरता है।
सम भाव कर्म करता सभी कर्मों को करनें में समर्थ होता है तथा कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है।
जिस के करनें से भावातीत की स्थित मिले गीता उसे कर्म कहता है --गीता सूत्र 8.3
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः -- कर्मः
=======ॐ =======
Monday, March 30, 2009
गीता-बीज[भाग-२]
15.9, 3.34, 2.60, 2.67, 6.4, 6.24, 2.62, 2.63, 3.37, 16.21, 5.23
क- संकल्प रहित कर्म-करता जिसकी इन्द्रियां तथा मन भोग कर्मों में अनासक्त हों, वह योगी होता है--गीता-6.4
ख- बिषयों में राग-द्वेष होते हैं। इन्द्रियों का स्वभाव है बिषयों से आकर्षित होना।पाँच ज्ञान-इन्द्रियां हैं और सब
के अपनें- अपनें बिषय हैं। जब कोई इन्द्रिय अपनें बिषय से मोहित होती है तब उस बिषय के प्रति मन में
मनन उठता है,मनन से आसक्ति उर्जा पैदा होती है जो कामनाउठती है,कामना से संकल्प-बिकल्प -बुद्धिमें
उठनेंलगते हैं जिस कारन भोग-उर्जा कमजोर पड़ जाती है। संकल्प-बिकल्प के साथ भोगे गए भोगसे तृप्ति
पाना असंभव है। कामना टूटने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध में ज्ञान अज्ञान से ढकजाता है और वह
व्यक्ति पाप कर बैठता है। हठातइन्द्रियों को बश में करनें से अंहकार सघन होता है और इन्द्रियों से जब
मित्रता होती है तब आसक्ति रहित भोग भोगाजाता है,जो योग होता है। कामना रहित मन,मित्र इन्द्रियों
तथा स्थिर बुद्धि से जो कर्म होते हैं उनसे सिद्धि मिलाती है जिसको नैष्कर्म-सिद्धि कहते हैं। नैष्कर्म-सिद्धि
ज्ञान - योग की परा निष्ठा है। परा निष्ठा क्या है? परा उस स्थिति को कहते हैं जब करता कर्म में खो जाता
है--जहाँ करता कर्म में बिलीन हो गया होता है। याद रखना चाहिए की यह स्थिति मात्र उस समय आती है
जब कर्म या भोग के पीछे कामना-अंहकार न हों।
कर्म में इन्द्रियों को समझनें का मौका मिलता है, बिषय को समझनें का अवसर मिलता है, मन को जाननें
का अवसर मिलाता है और अंहकार को समझ कर उसे प्रीती में बदलनें का एक परम अवसर मिलता है।
आसक्ति रहित कर्म से राजा जनक विदेह कहलाते हैं
Sunday, March 29, 2009
गीता-बीज [ भाग-१ ]
ख- वैरागसे संसार को जाना जाता है गीता- 15.3
ग- संसार के दो तत्त्व हैं ...जीवात्मा- स्थूल शरीर गीता-15.16
घ- जीवात्मा, परमात्मा है गीता-10.20,13.17,13.22
15.7,15.15,18.61
च- स्थूल शरीर अपरा-पराप्रकृतियों तथा आत्मा से है गीता- 7.4,7.5,7.6,14.3,14.4,
13.5,13.6
छ- राजस-गुणके साथ परमात्मा मय होना असंभव है गीता- 6.27
ज- गुण कर्म-करता हैं, करता-भावअंहकार किछाया है गीता- 3.27,2.45,3.33
झ- मन, आसक्ति,कामना, क्रोध, लोभ का गहरा सम्बन्ध है गीता- 2.62, 2.63
त- संकल्प से कामना बनती है गीता- 6.24
थ- काम,क्रोध, लोभ नरक के द्वार हैं गीता- 16.21
गीता के इन मोतियों की माला आप को सेवार्पित है
===ॐ===
Saturday, March 28, 2009
स्मृति-रहस्य
श्लोक-8.6 अंत काल तक की सघन स्मृति मनुष्य के अगले जन्म को निर्धारित करती है।
श्लोक-15.8 आत्मा के साथ मन तथा इन्द्रियां भी होती हैं।
श्लोक-10.22 इन्द्रीओं में मन,परमात्मा है।
श्लोक-4.4 अर्जुन का चौथा प्रश्न है-----सूर्य का जन्म सृस्ती के प्रारम्भ में हुआ था और आप वर्तमान में हैं फ़िर आप उन्हें काम-योग के सम्बन्ध में कैसे बताये?
श्लोक-4.5 कृष्ण कहते हैं---तेरे-मेरे पहले बहुतसे जन्म होचुके हैं जिनकी स्मृति तुमको नहीं है पर उनकी स्मृति मुझे है ।
श्लोक-14।14,14.15
मृत्यु के समय यदि सात्विक विचार सघन होते हैं तब स्वर्ग मिलाता है लिकिन स्वर्ग में रहनें के
बाद पुनः जन्म लेना पड़ता है। यदि मृत्यु के समय भोग विचार सघन हों तब भोग के लिए नया
जन्म मिलता है तथा यदि तामस विचार से मनुष्य भावित है तब पशु एवं अन्य योनी मिलती है।
गुनातीत योगी आवा-गमन से मुक्त हो जाता है।
पिछले जन्मों की स्मृति में पहुँचने के विज्ञानं को बुद्ध आलय - विज्ञानं की संज्ञा देते हैं और महावीर इस विज्ञानं को जाती स्मरण कहते हैं।
वासना क्या है?
वासना है क्या?
चाह वासना का सूचक है,वासना समयाधीन है जो हर पल अपना रंग-रूप बदलती रहती हे ह्रदय में भाव उठते हैं,
जो विकार रहित होते हैं । ह्रदय में उठा भाव जब मन-बुद्धि तन्त्र में पहुचता हे तब वही भाव वासना का रूप धारण
कर लेता हे ।
वासना-तत्त्व
काम,आसक्ति,संकल्प-विकल्प,कामना,क्रोध,लोभ,मोह,अंहकार,भय एवं आलस्य वासना - तत्त्व हैं । वासना गुणों
से उठती है
सात्विक-वासना
सात्विक वासना में सघन तीब्र अंहकार होता है जो अपनें में कामना को छिपाकर रखता है ।
राजस-वासना
राजस-वासना में धनात्मक-अंहकार के साथ कामना,लोभ,क्रोध होता है ।
तामस-वासना
तामस-वासना में मोह,भय के साथ नकारात्मक अंहकार होता है जो ब्यक्ति को एकांत में लेजाता है।
ध्यानमें इन पर होश बनाना पड़ता है.......
- जहाँ आसक्ति है वहां काम,कामना,क्रोध तथा लोभ भी होंगे।
- जहाँ चाह है वहाँ राम नहीं होते।
- जहाँ मोह है वहाँ भय के साथ आलस्य भी होगा।
- जहाँ काम का सम्मोहन है वहा राम का होना संभव नहीं।
- काम,क्रोध तथा लोभ नरक के द्वार हैं।
- काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है।
- केवल आत्मा केंद्रित योगी काम के प्रभाव में नहीं आता ।
- योगी और राम के बीच राजस-तामस गुणों की दीवार होती है ।
- मोह के साथ वैराग सम्भव नही।
- वैराग के बिना परमात्मा को जानना सम्भव नहीं।
- गुणों से अप्रभावित योगी परमतुल्य होता है ।
Thursday, March 26, 2009
ध्यान-सूत्र [१]
- यहाँ स्वर्ग -प्राप्ति सब का उद्देश्य है,लेकिन क्या आप जानते हैं कि स्वर्ग से परमात्मा का द्वार नहीं दिखता,मृत्यु-लोक में वैराग - माध्यमसे परमात्मा का द्वार दिखता है।
- गुणों से सम्मोहित मन नरक कीओर खीचता है, लेकिन रिक्त मन परमात्मा से जोड़ता है।
- शांत-मन दर्पण पर परमात्मा प्रतिबिंबित होता है।
- परमात्मा की राह पर भोग पीठ पीछे होता है और अंदर परम शुन्यता होती है।
- जब सभी द्वार बंद होजाते हैं, कुछ समय पूर्ण शुन्यता का आलम होता है, आखों से आशू रुकते ही नही तब एक खिड़की खुलती है, जिससे एक किरण आती दिखाती है , वह किरण अंदर ह्रदय में कम्पन पैदा करती है,जो स्वयं परमात्मा से होती है और शरीर के रग-रग में परम-ऊर्जा का संचार कर देती है।
- परमात्मा की खोज जब तक खोज है, परमात्मा दूर ही रहता है,लेकिन जब खोज में खोजी खो जाता है तब परमात्मा अवतरित होता है।
- द्वैत्य में अद्वैत्य का आभाष परमात्मा से जोड़ता है।
- साकार में निराकार की अनुभूति ही परमात्मा की अनभूति है।
- परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार में नहीं रहता ।
- निराकार मायामुक्त जब साकार रूपमें माया से प्रकट होता है तब माया से वह धीरे-धीरे घिरनें लगता है, माया साकार परमात्मा को भी नहीं छोड़ती जो परमात्मा से ही है।
- मायामुक्त योगी परम - तुल्य होता है।
मनुष्य की सोच
मनुष्य स्वयं को सर्बोच्च शिखर पर देखना चाहता है और उसकी यह चाह उसे बेचैन बना रखी है। मनुष्य जीवों में सम्राट है लेकिन वह स्वयं से भी भयभीत रहता है --क्यों? यह सोचनें का बिषय है। हम मुट्ठी खोलना नही चाहते पर जो मुट्ठी में नहीं है उसे भरना भी चाहते हैं --
क्या यह सम्भव है? बंद मुट्ठी में भरनें की चाह को कामनाकहते हैं। कामना में धनात्मक अंहकार होता है जिसमें फैलाव आता है आदमी संपर्क बढाता है, मित्र बनाता है । जो चीज
मुट्ठी में है वह कहीं सरक न जाए, इसकी सोच मोह उपजाती है , मोह भी कामना है जिसमें
सिकुड़ाहुआ नकारात्मक अंहकार होता है, जिसमें मनुष्य लोगों से दूर भागना चाहता है, अकेला रहना चाहता है और लोगों को भय के साथ देखता है । कामना की एक और स्थिति
होती है ---लोभ, लोभ में भी भय के साथ-साथ कमजोर अंहकार होता है, जो हमारे पास नही
है वह बिना मुट्ठी खोले हमारे मुट्ठी में आजाये का भावका नम ही लोभ है।
कामना,लोभ और मोह का समीकरण आपनें अभी देखा अब आप इस पर सोचें और समझनें का प्रयत्न करे की हमें क्या परेशानी है? गीता कहता है ------- काम, क्रोध,लोभ
और मोह परमात्मा के राह के अवरोध हैं।
Wednesday, March 25, 2009
गीता-सूत्र १८.६२
परम श्री कृष्ण कह रहे हैं...........
तू सब प्रकार से उस परमात्मा की शरण में जा,उस की कृपा से तुम्हें परम शान्ति मिलेगी और तू परम धाम को प्राप्त होगा।
गीता का अंत होरहा है, अभी तक परम स्वयं को परमात्मा बता रहे थे, कोई कसार नही छोड़े यह समुझानें में की तू
मेरी शरण में आजा, मै तुझे उचित मार्ग दिखाउंगा पर अर्जुन के उपर इस बात का कोई ख़ास असर नही दीखता।
परम श्री कृष्ण अंत में आकर क्यों कह रहे हैं की तू उस परमात्मा की शरण में जा? क्या उनका भी कोई परमात्मा है? आप परमात्मा के सम्बन्ध में जितना भ्रम अपनें बुद्धि में पैदा कर सकते हैं,करें क्योंकि आगे चल कर हम गीता के परमात्मा से मिलनें वाले हैं। गीता में एक सौ से बी अधिक श्लोक परमात्मा से सम्बंधित हैं जिनमें दो सौ से भी अधिक उदहारण दिए गए हैं जो परमात्मा के विभिन्न स्वरूपों की और
इशारा क्कारते हैं। आप कुछ दिन परमात्मा के सम्बन्ध में सोचें,अभी आप जित्नासोच लेगे अच्छा रहेगा क्योकि..........
गीता का परमात्मा मन-बुद्धि में नहीं समां सकता........है न मजे की बात।
Sunday, March 22, 2009
श्री कृष्ण और मोसेस
Saturday, March 21, 2009
क्या सत्य क्या असत्य
15.17, 3.22 संसार तीन लोकों में बिभक्त है ।
15.2, 15.1, 15.3 संसार सीमा रहित एवं अविनाशी है ।
8.16 सभीं लोक पुनरावर्ती हैं ---आज हैं , कल नहीं होंगे और कहीं बन
भी रहे हैं ।
13.33 सूर्य सभींलोकों में प्रकाश का श्रोत है ।
7.8 15.12 सूर्य-चंद्र प्रकाश परमात्मा है ।
10.21 सूर्य एवं चंद्रमा परमात्मा हैं ।
15.6 परम धाम में प्रकाश सूर्य से नहीं होता यहाँ परमात्मा प्रकाश
है।
आप गीता के इन श्लोकों को गहराई से देखें आप को पता चल जाएगा की क्या
सत्य है और क्या असत्य है ।
परमात्मा से परमात्मा में तीन लोक--पृथ्वी,देव-लोक और ब्रह्म-लोक हैं । पृथ्वी को मृयु लोक भी कहते हैं । यदि गीता की बात सत्य है तब हमें यह भी सोचना चाहिए की देव-लोक एवं ब्रह्म-लोक भी हमारे ही सौर्य -मंडल में ही हैं । यदि पूरे ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाएं परमात्मा से परमात्मा में हैं तो सभीं सूचनाओं में परम-प्रकाश होना चाहिए , इस सम्बन्ध में आप jack sarfatti की बात पर भी सोचे जो इस प्रकार है ----------matters are gravitationally trapped light.
परम-प्रकाश को सभीं सूचनाओं में देखा सकता है यदि ----------------
आप को ब्रह्म की खोज का नशा हो ।
Friday, March 20, 2009
आसक्ति कर्म- योग का प्रारंभ है
2.62 2.63 6.4 16.21 3.37 260 2.61 2.67 2.47 2.48 3.4 18.49 18.50----पाँच
अध्यायों के तेरह श्लोकों को आप अपनें कर्म में जगह दीजिये यदि आप कर्म-योग की साधना चाहते हैं -----सूत्र कह रहे हैं ..........मनन से मन में आसक्ति उठती है जो कामना पैदा करती है और कामनासे कर्म होते हैं ।
काम,कामना,क्रोध तथा लोभ राजस-गुण के तत्त्व हैं और मोह तामस-गुण का तत्त्व है।
काम,कामना ,क्रोध ,लोभ एवं मोह नरक के द्वार हैं ।
मन के अंदर सघन कामना से संकल्प - विकल्प बनते है जो मनमें संशय पैदा करते हैं और बुद्धिको अस्थिर करते हैं ।
आसक्त इन्द्रिय मन-बुद्धि को गुलाम बना लेती है ।
संकल्प रहित कर्म करता -- योगी होता है ।
आसक्ति रहित कर्म ही समत्व योग है [this is the state of choiceless awareness]
कर्म की तरफ़ पीठ नहीं की जा सकती।
आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलाती है जो ज्ञान-योग की परा - निष्ठा है।
[gyan-yog ki para nishtha means full awareness]
आसक्ति को जानों
Wednesday, March 18, 2009
मन परिचय
Wilder Penfiels
The mind is not brain, the mind acts independent of the brain in the same way as a computer
programmer works.
Roger Sperry
Body does not create the mind ; it ivolves much before the physical body and composes the
neuronic and bio-chemical brain-mechanism as its tool.
John Eccles
Consciousness is extracerebral located within the human-skull along with the brain somewhere
around the same area where orthodox hindus keep their crest. this is the area where fusion of consciousness takes place with the physical brain. this area is called supplementary motor area.
consceousness servives even after the death o f the physical brain.
Erwin Schrodinger
A- In all the world there is no kind of frame-work within which we find consceousness in the
plural, there is some thing we construct because of the temporal plurality of individuals.
But it is a false construction------the only solution to this conflict in so for as any is available
to us at all, lies in the ancient wisdom of upanisad.
B- Consciousness is the real substratum of all matters and it is always singural. It has
no location and uses brain as the receptor- mechanism.
Max Plank
Consceousness I regard as fundamental, we can not get beyond it. Everything we regard as existing ,paschulate consceousness.
Prof. Albert Einstein
Knowledge exists in two forms; lifeless and alive. Lifeless knowledge is stored in books and alve is one,s consceousness.
In the past you have seen many verses of giita regarding mind[मन ]. Infuturetoo ,we
shall be going through some of very important verses of the Giita which will explain what is mind[मन]
Tuesday, March 17, 2009
मन-सूत्र
परमात्मा से मिलाताहै
== विकार रहित मन परमात्मा है [गीता-10.22]
== विकार रहित श्रद्धा से परिपूर्ण मन-दर्पण पर परमात्मा प्रतिबिंबित हूट है
== मन अपरा प्रकृत का एक तत्त्व है[गीता-7.4,7.5 ]
== गुणों केप्रभाव में जब मन की उर्जा इन्द्रिओंसे जुड़ती है तब भोग-भाव उठते हैं और जब मन-उर्जा
चेतना से मिलाती है तब परमात्मा की झलक मिलती है
== विचारों को हर पल समझाना ही मन-ध्यान है
== स्मृति में खोया मन गुणों से मुक्त नहीं हो सकता और स्मृति रहित मन परमात्मा को दिखता है
== साधना-विधिओं की सीमा मन तक सीमित है आगे की यात्रा होश के साथ स्वयं होती है
== मन यातोस्व पर होता है या पर पर होता है--पर पर केंद्रित मन गुणों के प्रभाव में होता है और
स्व पर केंद्रित मन परमात्मा की झलक दिलाता है
== आत्मा केंद्रित योगी का मन विकार रहित होता है
== ज्ञान से आत्मा का पता चलता है
== ज्ञान योग सिद्धि का फल है
== योग-सिद्धि आसक्ति रहित कर्म से मिलाती है
== मन की रिक्तता के साथ परमात्मा होता है ज्योही मन की रिक्तता समाप्त होती है परमात्मा से
सम्बन्ध टूट जाता है
== विकारों का प्रभाव बुद्धि तक ही होता है , बुद्धि से आगे चेतना,आत्मा एवं परमात्मा पर विकारों
प्रभाव नहीं पङता
ऊपर की बैटन को यदि आप गीता में देखना चाहते हैं तो देखिये इन सूत्रों को ------------
2.14 2.41 2.42----2.44,2.60--2.63,2.67
3.4 3.34 3.37 3.40---43
4.38
5.22 5.23 5.26
6.4 6.24 6.26--30 6.33---6.36
7.4---7.7 7.10 7.12 7.13
8.3 8.6
10.20 10.2
12.3 12.4
13.2 13.5
15.3 15.7 15.8 15.9
16.21
18.38 18.49 18.50
Monday, March 16, 2009
वैराग मोक्ष का द्वार है
सूत्र 2।42---2.45 तक
सूत्र 6.37---6.45 तक
सूत्र 9.20---9.22 तक
सूत्र 2.52.....15.3
गीता वेदों को परम मानता है वेदों में दो बातें बताई गई हैं; पहली बात भोग-समर्थन की हैं और दूसरी बातें योग से गुणातीत बनानें के सम्बन्ध में हैं गीता स्पष्ट शब्दों में कहता है की भोग और भगवानदोनों को एक साथ एकबुद्धि में नहीं रखा जा सकता , भोग योग का माध्यम है , माध्यम में रुकना जीवन को वह नहीं दे सकता जिसको जीवन तलाश रहा है
वेद कर्म-फल प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं और स्वर्ग - प्राप्ति को परम मानते हैं लेकिन गीता कहता है यदि चल ही पड़े हो तो भोग में होश उपजा कर आगे बड़ों गुणों कके परे का आनंद लो जो परमानन्द है गीता में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न है----असंयमी पर श्रद्धा से भरा हुआ योगी का जब योग खंडित हो जाता है और इस बीच में उसका शरीर समाप्त होजाता है तब उसकी क्या गति होती है?
इस सम्बन्ध में परम कहता हैं----इस स्थिति में दो परिस्थितियां आती हैं; पहले में ऐसे योगी आते हैं जो वैराग्यावस्था में पहुचे होते हैं , वे किसी योगी-कुल में जन्म लेकर वैरग्य से आगे की यात्रा करते हैं
पर दुसरे प्रकार के योगी भी होते हैं जिनका शरीर वैराग्य से पहले समाप्त हो जाता है , ऐसे योगी कुछ
समय स्वर्ग में गुजार कर पुनः किसी अच्छे कुल में जन्म ले कर प्रारंभ से अपनी साधना शुरू करते हैं जब तक उनकी साधना का असर रहता है तब तक वे स्वर्ग में ऐश्वर्य भोगों को भोगते हैं
गीता स्वर्ग को भी एक भोग का स्थान मानता है और साथ में यह भी कहता है --- गीता में डूबे योगी
का वेदों से सम्बन्ध न के बराबर होता है
स्वर्ग से परमात्मा का द्वार नहीं दिखता , परमात्मा का द्वार मृत्यु - लोक में राग से वैराग्य
मिलनें पर दिखता है काम,कामना, क्रोध, लोभ, मोह, आलस्य , भय तथा अंहकार से अप्रभावित व्यक्ति --वैरागी होता है
Sunday, March 15, 2009
मन की गति
क्या आप इन्हें जानते हैं?
- मरकरी ग्रह अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 11 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
- वीनस ग्रह अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 6.5 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
- पृथ्वी अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 1671 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रही है
- मार्स अपनें केन्द्र के चारो तरफ़ 866 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
- जुपिटर अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 45656 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
- सैटर्न अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 36866 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
- हमारा सम्पूर्ण सौर्य मंडल अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ का एक चक्कर 237 मिलिओंन सालों में पूरा करता है
अब आप अपनें मन की चाल के बारे में सोच सकतें हैं
गीता आप को वह गणीत देता है जिस से आप अपनें मन की गति को माप सकते हैं
Friday, March 13, 2009
इन्द्रिय-नियोजन और निर्वाण
गीता-सूत्र 2.14 * 15.9 * 3.34 * 2.60 * 2.67 * 2.58 * 2.61 * 2.68 *
हम जो भी अनुभव करते हैं वह इन्द्रियों के माध्यमसे प्राप्त होता है इस अनुभव में यातो सुख होता है या दुःख --हमारा ऐसा कोई अनुभव नही जिसमें सुख-दुःख की छाया न हो
संसार से संसार में हम हैं , संसार तीन गुणों से परिपूर्ण माया से माया में है और माया परमात्मा का वह माध्यम है जिससे संसार में निरंतर परिवर्तन हो रहा है संसार में विषय हैं
जिनमें राग-रूप , सभी तरह के भावात्मक सम्मोहन-तत्त्व तथा ऐसे बंधन हैं जो हमारे ज्ञानेंद्रिओं को आकर्षित करते हैं विषयों से सम्मोहित इन्द्रिय मन-बुद्धि को भी सम्मोहित कर लेती है हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बाहर अपनें-अपनें विषयों से जुडी होती हैं और
अंदर की ओरउनका संबंध मन,बुद्धि , चेतना तथा आत्मा से भी रहता है
इन्द्रीओं को कैसे नियंत्रित करें?
गीता - सूत्र 2.59 * 2.60 * 2.61 * 2.66 * 2.70 * 3.6 * 3.7 *
इन्द्रिय नियोजन दो तरह से सम्भव है --- इन्द्रियों को हठात नियोजित काया जाय या इद्रिओं से मैत्री स्थापित करके मन से उन्हें नियोजित किया जाए पहली स्थिती के लिए गीता कहता है--यह सम्भव तो है लेकिन इससे प्रतिकूल परिणाम मिलता है इन्द्रियां कमजोर हो जाती हैं और अंहकार सघन हो जाता है बाहर-बाहर से इन्द्रियों को रोकनें से क्या होगा ? मन तो उस विषय पर मनन करता ही रहेगा इन्द्रिय-नियोजन मन से होना चाहिए
Thursday, March 12, 2009
प्रकृत-पुरूष
श्लोक- 8.16
ब्रह्म लोक सहित सभी लोक पुनरावर्ती हैं----अर्थात आज हैं, कल समाप्त भी होंगे अर्थात सब का वर्तमान यह बता रहा है की यह धीरे- धीरे समाप्ति की ओर बढ रहा है
श्लोक- 13 . 1 , 13 . 2
सभी भूतों की रचना क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के योग से है
श्लोक- 13 . 9
प्रकृत-पुरूष अनादि हैं \
श्लोक- 15 .1 से 15 . 3 तक
यहाँ बताया जा रहा है किसंसार क्या है ? संसार में तीन गुंणोंका एक माध्यमहै जिस से संसार सबको भोग- भगवन , क्रोध, लोभ,मोह एवं अंहकार के बंधन से बाधता है संसार को
वैराग्यता - अवस्था में जाना जा सकता है
श्लोक-15.16
संसार में दो पुरूष हैं ----एक नाशवान स्थूल शरीर है और दूसरा अनाश्वान जीव-आत्मा है
श्लोक- 12.20,13.17,13.22.15.7,15.15,18.61
आत्मा ही परमात्मा है
आप ऊपर दिए गए सूत्रों को बार-बार मनन करें तब आप समझ सकते हैं कि -----------
संसार परमात्मा का फैलाव है जिसमें हमें आकर्षित होनें के सभी तत्व भरे पड़े हैं जिनके प्रति
होश बनाकर ब्रह्म की अनुभूति पायी जा सकती है
महाभारत-युद्ध
श्लोक 1.22 1.40----1.44 तक 2.31---2.34 तक 3.35 18.47
महाभारत युद्ध को अर्जुन तो ब्यापार कहते हैं[1.22] और परम श्री कृष्ण धर्म-युद्ध कहते हैं[2.31] ---अब आप सोचिये कि यह क्या था
अर्जुन जातिधर्म और कुल धर्म की बात करते हैं [1.४० से १.४४ तक ] और परम स्व-धर्म तथा पर धर्म की बात करते हैं [३.३५ एवं १८.४७ ].....अब आप गीता में जाति-धर्म,कुल-धर्म , पर - धर्म एवं स्व-धर्म को समझें
कुल की परम्परा के अनुकूल चलना एवं कुल की अनुबांशिका को सुरक्षित रखना कुल- धर्म में आता है और जाति के कर्मों को करना तथा जाति आधारित रीति - रिवाजों पर चलना कुल- धर्म में आता है परम स्व-धर्म एवं पर धर्म के सम्बन्ध में कहते हैं -------
अपना धर्म दोष पूर्ण होनें पर भी पर - धर्म से अच्छा होता है [ ३.३५ ,१८.४७ ]
महाभारत युद्ध में सभी तो एक परिवार के हैं वहां पर कौन है ?
महाभारत-युद्ध से क्या मिला ?
देश के सभी वैज्ञानिक,चिकित्सक तथा अन्य महत्वपूर्ण लोग तो समाप्त होगये सभी बुद्धि-जीवी समाप्त होनें से इस देश में युग परिवर्तित हो गया परम श्री कृष्ण जब वापस गए तो उनके राज्य में कलि-युग झांक रहा था , द्वारिका समुद्र में समां गयी , परम भी शरीर त्यागा
और उनके परिवार को अर्जुन द्वारिका से हस्तिना पुर ले आए क्योंकि उनलोगों का वहा रहना भी मुश्किल हो गया था
महाभारत से पूर्व भारत एक वैज्ञानिक देश था जहाँ पृथ्वी के अन्य भाग से लोग विद्या-ग्रहण
करनें आते थे और आज कलि-युग में यहाँ के लोग बाहर जाते हैं
निराकार जब साकार रूप में अवतरित होता है तब वह धीरे-धीरे अनंत से सिमित होनें लगता है, वह भी धीरे- धीरे संसार में उलझनें लगता है यदि आप अनंत से जुड़ना चाहते हैं तो आप को भी साकार से निराकार की यात्रा करनी पड़ेगी , क्या आप तैयार हैं ?
********** ॐ **********
Monday, March 9, 2009
ध्यान-गीता
अब हम गीता में कुछ और बातों को देखते हैं ...........
अर्जुन का पहला प्रश्न गीता-सूत्र 2.54 से इस प्रकार है-------- स्थिर - प्रज्ञयोगी की पहचान क्या है ? और गीता- सूत्र 14.21 से चौदहवां प्रश्न गुणातीतयोगी की पहचान से सम्बन्धित है इन दोनों प्रश्नों के मध्य गीता के 442 श्लोक हैं और अर्जुन के 11 प्रश्न भी हैं अर्जुन अपनें स्थिति के बारे में नहीं सोच रहे , वे तो परम की बातोंमें वह पाना चाहते हैं जिससे वे युध्य से बच सकें
गीता सुनानें वालों की कतारें लगी हैं लेकिन गीता - साधना करनें वाले कितनें हैं ? अर्जुन के ऊपर दिए गए प्रश्नों के लिए आप देख सकते हैं इन सूत्रों को........
2.11 2.15 2.52 2.55 2.56 2.57 2.58 2.64 2.68 2.69 2.70 2.71
3.34 4.10 4.22 5.3 5.6 5.7 5.10 5.18 6.2 6.20 6.24 629
6.30 14.14 14.22 14.23 14.24 14.25
इन सूत्रों से स्पष्ट होता है.........राजस- तामस गुणों के साथ कोई ब्यक्ति परमात्मा से नहीं जुड़ सकता और साधना में एक ऐसी भी स्थिति आती है जब सात्विक गुण को भी छोड़ना
पड़ता है गुण-साधना के सन्दर्भ में अब आप यहाँ गीता-सूत्र 14.14 , 14 . 23 , 14.5 ,
7.12 , 7.13 को एक साथ देखें----------गीता कहता है... गुणों के भावों की उत्पत्ति परमात्मा से होती है लेकिन परमात्मा गुणातीत है, आत्मा को तीन गुण स्थूल शरीर में रोक कर रखते हैं और गीता यह भी कहरहा है --बिना गुणातीत बनें परमात्मा को नहीं समझा जा सकता अर्थात गीता परमात्मातुल्य बनाना चाहता है गीता- साधना मृत्यु से मैत्री
बनानें की साधना है ------क्या आप तैयार हैं ?
आप एकांत में बैठ कर सोचना-----जब मनुष्य काम , कामना , क्रोध ,लोभ , मोह , भय तथा अंहकार रहित होगा तो वह समाज में कैसा दिखेगा ?
Saturday, March 7, 2009
गुणों का रहस्य
- C.G.Jung[1875-1961] कहते हैं........हर नर में नारी होती है और हर नारी में नर होता है ---इस सिद्धांत के आधार पर आज शल्य - चिकित्सक लिंग परिवर्तन कर रहे हैं जुंगको विश्व की सभीं प्रचलित आदि भषाओं का ज्ञान था और वेद-उपनिसद में उनकी ज्यादा दिलचस्बी थी
- लेकिन भारत में हजारों सालों से अर्धनारेश्वरकी पूजा की जा रही है पर इस पूजा में छीपे विज्ञानको यहाँ के लोग नहीं पकड़ पाए ------क्या कारणहो सकता है ?
- गुणों को समझनें के लिए आप गीता के निम्न श्लोको को देखें
-6.27 2.52 7.14 18.40 13.21 7.4 7.5 7.6 14.3 14.4 18.61 13.17
10.20 14.5 14.10 3.27 3.33 8.3 7.12 7.13 14.19 14.22 14.6 14.7
14.17 2.45 2.54 2.55 256 14.23 6.30 6.29 2.69 2.58 2.68 2.15 13.5
13.6
यहाँ आप को गुण - सारांश कुछ इस प्रकार से मिलता है ---------------
# माया से माया में मनुष्य है और प्राकृत से जो भी ग्रहण करता है उस से तीन गुण मिलते हैं
# परमात्मा गुणों से परे है लेकिन गुण परमात्मा से हैं .......गीता-7।12
# आत्मा को तीन गुण शरीर में रोक कर रखते हैं .............गीता- 14।5
# गुणों से स्वभाव बनता है तथा स्वभाव से कर्म होते हैं ......गीता-3।33,18.59,18.60
# पूरे ब्रह्माण्ड में एक भी कोई ऎसी सूचना नहीं है जिसमें तीन गुणों का समीकरण न हो ........
गीता-------14।10
# हमारे अंदर का गुण समीकरण हमारे खान,पान तथा रहन-सहन से हर पल बदलता रहता है
.........गीता---13.21
# गीता के गुण - विज्ञान पर आप को कुछ और बातें आगे बताई जायेंगी
------ॐ -------
ध्यान-गीता--३
विज्ञानकी खोज अस्थिर कण क्वार्क्स से पूरे ब्रह्माण्ड तक फैली हुयी है , उस राज को पानें केलिए जिसको विज्ञान अभींभी नहीं जानता लेकिन इतना अवश्य समझता है कि वह है जरुर वैज्ञानिक कहते हैं----क्वार्क्स जोडों में पाए जाते हैं , जब उनको अलग किया जाता है तब उनके बीच का आपसी खिचाव बड़नें लगता है जैसे परिवार का एक सदस्य जब परिवार से दूर हो जाता है तब परिवार का लगाव उसके प्रति बड़ जाता है विज्ञान प्रकृतके मूल भूत उस नियम को जानना चाहता है जिससे श्रजन- कार्य चल रहा है लेकिन नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक Max Plank कहते हैं-----विज्ञान कभीं भी प्रकृत को नहीं पकड़ सकता वैज्ञानिक जब सोचनें लगता है कि अब एक कदम की दूरी और बाकी है लेकिन जब अगला कदम भर लेता है तब उसको पता चलता है कि वह पहले से भी दो कदम और पीछे है---उसकी यह स्थिति उसे और तनहा बनाकर छोड़ देती है
चेतना का फैलाव सत्य से जोड़ देता है लेकिन गुणों से निर्मित माया चेतना को फैलानें नहीं देती गीता की माया ठीक उस तरह से है जैसे विज्ञान में डार्क-उर्जा सम्पूर्ण ब्रहमांड में ब्याप्त है और सभी सूचनाओं को दूर भगा रही है गुणों की साधना माया-गुरुत्व के बिपरीत चलनें की यात्रा है इस यात्रा पर उतरा योगी परिणाम के बारे में नहीं सोचता यह यात्रा एक अंत हीं एवं परिणाम रहीत यात्रा है सदियों बाद कोई एक बुद्ध अवतरित होता है
क्या आप जानते हैं कि ----सन 1642 में गैलेलियो की मृत्यु हुई थी और sir issac newton का जन्म हुआ था तथा सन 1879 में माक्सवेल की मृत्यु हुई थी और प्रो.आइंस्टाइन पैदा हुए थे ----आप इन चार वैज्ञानिकों के जीवन को पड़ें , आप को गीता श्लोक
8.6,15.8 का राज स्पष्ट हो जायेगा गीता कहता है---सघन अतृप्त सोच आत्मा को नया शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करती है और गमन करते आत्मा के साथ मन भी होता है जो
सभी कामनाओं का संग्रह करता है
गीता-गुण रहस्य अपनें में वह रहस्य छिपा रखा है जो कल का विज्ञान है, जिसदिन
विज्ञान गुण-रहस्य को अपनें प्रयोगशाला में एक प्रमुख शोध-बिषय बना लेगा उस दिन एक परम-बिज्ञान की नीव रखी जायेगी अब आप विज्ञान की दो बातों को देखिये ................
A- अमेरिका के वैज्ञानिक कहते हैं----पुरूष एवं स्त्री के हृदयों के स्वभाव अलग- अलग होते हैं
B- अंगों के बदलनें पर स्वभाव भी बदलते हैं अब हम गुणों के सन्दर्भ में इन दो बातों को देखते हैं
स्त्री-पुरूष के ह्रदय
स्त्री के ह्रदय में कुछ इस प्रकार की ब्यवस्था है जिस से वह मर्ज को छिपा लेता है और प्रचलित बिधियों से उन्हें नहीं पकड़ा जा सकता --इस समस्या को हल करनें के लिए वैज्ञानिक एक नयी विधि विकसित किए हैं जिसको eschemia syndrome evaluation कहते हैं अब आप समाज पर निगाह डालें....समाज में karm-करता पुरूष है लेकिन पुरूष की कमजोरी औरत है --पुरूष औरत से कुछ नहीं छिपा सकता , अपना सारा राज उसके सामनें रख देता है लेकिन आदमी अपने स्त्री के राज को कभीं भी नहीं जन सकता आज का समाज स्त्री-पुरूष को बराबर कर रहा है जो प्रकृत के प्रतिकूल है
अंग और स्वभाव
एरिजोना विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को अब पता चला है कि जब अंग बदले जाते हैं तब उनके साथ स्वभाव भी बदल जाते हैं जैसे एक ब्यक्ति जो शराब पिनें का आदी है जब उसका ह्रदय किसी ऐसे ब्यक्ति को लगा दिया जाता है जो कभीं भी शराब को हाथ नहीं लगाया था वह ब्यक्ति ठीक होनें के बाद शराबी हो जाता है गीता कहता है कि मनुष्य के प्रतेक कण में तीन गुणों होते हैं तथा गुणों के साथ मन,बुद्धि एवं अंहकार भी होते हैं अतः जब कोई अंग एक ब्यक्ति से दूसरे ब्यक्ति में लगाये जाते हैं तब उसके स्वभाव का बदलना स्वाभाविक है आगे अगले अंक में इस रहस्य को देखेगे
Thursday, March 5, 2009
ध्यान-giita
सत्य को पकड़ना एक अंत हीनयात्रा है अतः इस यात्रा में मन-इन्द्रियां शांत होनी चाहिए क्योकि यह यात्रा पथ रहित यात्रा है--J.Krishanamurty कहते हैं.....Truth is pathless journey सत्य का खोजी कहीं भागता नहीं वह स्वयं को जान कर संसार को जानता है और संसार को जानकर सत्य को जानलेता है इन्द्रिय-बिषय के सहयोग से जो कर्म होता है उस से जो अल्प-कालीन सुख मिलता है उसमें दुःख का बीज होता है और ऐसे सभीं कर्म भोग होते हैं----गीता की यह बात हमें इशारा करती है....तुम भोग से भोग में हो और अपनें इस भोग जीवन में तुमको सत्य की तलाश भी करनी है भोग-भावका केन्द्र राजस गुण
है [ गीता-सूत्र- 5.22 , 2.45 , 18.38 , ] संसार में ब्याप्त रूप,रंग तथा अन्य भोग तत्त्व हमारे इन्द्रियों को सम्मोहित करते रहते हैं अतः इन्द्रियों के माध्यम से इनका सम्मोहन हमारे मन-बुद्धि पर भी होता है इन्द्रियों को नियोजित करनें के दो तरीके हो सकते हैं ; पहला
तरीका है -- इन्द्रियों को हठात बिषयों से दूर रखा जाए और दूसरा तरीका है--इन्द्रियों से मैत्री स्थापित की जाए गीता-सूत्र 3.6 कहता है , यदि इंदियों को जोर-जबरदस्ती से बिषयों से दूर रखा जाए तब अंहकार और तीब्र हो जाता है जो बिनाश तक पहुंचा सकता है अतः इन्द्रियों से मैत्री स्थापित करनें की कोशिश करते रहना चाहिए जो मन-ध्यान है बुद्ध कहते हैं...इन्द्रियों से मैत्री स्थापित करो गीता आगे कहता है [गीता-सूत्र 2.59 ] तुम इन्द्रियों को बलपुर्बक तो रोक लोगे लेकिन मन में स्थित आसक्ति को कैसे हटा सकते हो और जब मन में आसक्ति है तब मनन होना भी स्वाभाविक है नियंत्रित इन्द्रियां अपनें - अपनें बिषयों में विहरति तो हैं पर बिषय उन्हें आकर्षित नहीं कर पाते [ गीता-सूत्र 2.66 , 2.70 ] जब इन्द्रियों से मैत्री हो जाती है तब वह ब्यक्ति स्वयं का मित्र होता है [ गीता- सूत्र..3.7 , 6.6 ] राजस-तामस गुणों के तत्वों से अप्रभावित ब्यक्ति परमात्मा को समझता है [ गीता-सूत्र॥4।10 ]
आत्मा की तरह मन भी अविनाशी है और जब आत्मा शरीर छोड़ कर जाता है तब इसके साथ मन भी होता है [गीता-सूत्र..15.8 ] सघन अतृप्त कामनाएं आत्मा को नए शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करती हैं [ गीता-सूत्र॥8।6 ]
कर्म के बिना नैष्कर्म की सिद्धि नहीं मिलाती जो ज्ञान योग की पारा निष्ठा है [गीता-सूत्र..3.4 ,18.50 ] आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है [ गीता-सूत्र..18.49 आसक्ति,काम,क्रोध,कामना तथा मोह मुक्त योगी निर्वाण प्राप्त करता है [गीता-सूत्र..5.26 ] गीता कर्म की परिभाषा देता है....भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः --गीता-सूत्र..8.3 यहाँ गीता स्पष्ट रूप से कह रहा है....ऐसे कर्म जिनको करनें से भावातीत की स्थिति मिले---कर्म हैं
गीता की यात्रा राज-पथ की यात्रा नहीं है जिसमें आँख बंद करके चला जाए ,यह तो तलवार की धार की यात्रा है गीता-साधना से मिलेगा तो कुछ नही पर खो जाएगा वह सब जिसको हम किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते आनंद बुद्ध से पूछते हैं---भंते! आप को निर्वाण से क्या मिला , बुद्ध कहते हैं----मिला तो कुछ नहीं पर खो गया वह सब जिसको हमनें इकठा किया था और खोना नहीं चाहता था , जो मिला वह तो पहले से ही था
meditation is a flight---a pathless and endless flight of ultimate eternity.
Wednesday, March 4, 2009
ध्यान-गीता ...२
गीता-सूत्र
2.45 2.59 2.60 2.62 2.62 2.66 2.67 2.70 3.4 3.6 3.7 3.20 3.34 3.37 4.10 5.22 5.23 5.26 6.4 6.6 6.24 8.3 8.6 15.8 15.9 16.21 18.38 18.49 18.50
सूत्रों से निर्मित समीकरण
परमात्मा से परमात्मा में तीन गुणों की माया है , माया से माया में संसार है और संसार में परमात्मा एवं माया से हम हैं अतः इस रहस्य को जो समझ गया वह परमात्मा को समझ गया एक मछली- जिसका आदि,मध्य तथा अंत समुद्र में है , वह क्या समुद्र की परिभाषा दे सकती है? नहीं दे सकती , वही स्थिति हमारी परमात्मा में है
हम संसार को अपनें पाँच ज्ञानेंद्रिओं के मध्यम से पकड़ते हैं [ सूत्र १५.९] , संसारमें
पाँच बिषय हैं जो इन्द्रियों को अपनें अंदर छिपे राग-द्वेष से आकर्षित करते हैं[सूत्र ३.३४]
बिषयों से आकर्षित इन्द्री मन को उस बिषय पर मनन करनें के लिए बाध्य करती है, मन में मनन से स्पृहा-उर्जा बनती है जिससे आसक्ति बनती है, आसक्ति से कामना उठती है और कामना टूटनें से क्रोध उत्पन्न होता है बिषय से सम्मोहित इन्द्री बुद्धि तक को गुलाम बना लेती है आसक्ति एवं कामना के मध्य मन-बुद्धि तंत्र में संकल्प भी उठते हैं जो कामना उत्पन्न करते हैं [सूत्र २.६०,२.६७,६.४,६.२४,२.६२,२.६३] क्रोध काम का रूपांतरण है[सूत्र ३.३७] और काम,क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं [सूत्र १६.२१] काम,क्रोध तथा लोभ से अप्रभावित यक्ति,योगी होता है जो सदा आनंदित रहता है[सूत्र ५.२३]
ध्यान-गीता परिचय
ऐसा ब्यक्ति जो अपनें जीवन में जहाँ भी रहा नरक बनाता रहा , जिसका जीवन काम,कामना , क्रोध , लोभ , मोह तथा बिकारों से परिपूर्ण था , जिसनें जीवन में कभीं भी परम श्री कृष्ण से नाता नहीं बनाया क्या ऐसा ब्यक्ति आखिरी समय में उनसे जुड़ सकता है? अब आप कुछ सोचें--यदि गीता में ऐसी उर्जा है जो भोग में पुरी तरह से डूबे भोग से भोग में आखिरी स्वाशभरते ब्यक्ति को परम गति दे सकता है तो फ़िर इसको लोग अपनें घर में एक अनाथ की तरह क्यों रखते हैं?
एक बात आप अपनें अंदर बैठा लें -- गीता नतोस्वर्ग का नक्शा बनाता है न ही स्वर्ग प्राप्ति को परम मानता है ---हाँ इतनी बात सत्य जरुर है--गीता में डूबा ब्यक्ति यदि गलती से नरक में भी पहुच जाता है तो उसके चरों तरफ़ स्वर्ग स्वतः निर्मित हो जाता है
वेदों में स्वर्ग-प्राप्ति को परम माना गया है पर गीता स्वर्ग को भी भोग की जगह मानता है---
यहाँ इस सन्दर्भ में आप गीता के इन श्लोकों को देखें------2.42,2.43,2.44,2.45, 2.46,6.40,6.41,6.42,6.43,6.44,6.45,6.46,6.47
गीता स्पष्ट रूप से कहता है-- गीता में डूबे योगी का सम्बन्ध वेदों से उतना रह जाता है जितना सम्बन्ध एक ब्यक्ति का छोटे तालाब से रह जाता है जब उसे बड़ा तालाब मिल जाता है
गीता में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न गीता श्लोक 6.37---6.39 से इस प्रकार है----
श्रद्धावान असंयमी योगी का योग जब खंडित हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है तब उसकी क्या गति होती है? इस प्रश्न के उत्तर में परम कहते हैं----यहाँ दो परिस्थितियां आती हैं ---पहली परिस्थिति में ऐसे योगी आते हैं जो बैराग्य - अवस्था प्राप्ति से पहले शरीर छोड़ जाते हैं , ऐसे योगी कुछ समय स्वर्ग में रह कर पुनः किसी अच्छे कुल में जन्म लेकर अपनीं साधना पुनः प्रारम्भ करते हैं और दूसरी परिस्थिति में ऐसे योगी आते हैं जिनकी साधना वैराग्यावस्था में होती है लेकिन किसी कारण वश उनका शरीर जबाब दे जाता है,ऐसे योगी किसी वैरागी कुल में जन्म लेकर अपनीं आगे की साधना पूरी करते हैं आप नें गीता में स्वर्ग से सम्बंधित परम की बातों को देखा अब इन पर आप गहराई से सोंचें जब गीता की रचना हुई थी उस समय तीन ही वेड थे......यहाँ आप देखिये गीता श्लोक 9।20
योगी और भोगी दोनों परमात्मा से जुड़ते हैं, जोगी परमात्मा से परम को तत्त्व से समझनें के लिए जुड़ता है और भोगी परमात्मा को भोग साधनों की प्राप्ति के लिए प्रयोग करता है
what is meditation?
------------ Rudolf Steiner
When a seeker merges in the beautitude of samadhi, he does not perceive time-space the off spring of maya.
------------ Paramhans Ramkrishna
Meditation is the soul and the language of spirit.
------------- Jeremy Taylor
Monday, March 2, 2009
द्वारिका
गुजरात के पश्चिमी तट पर अरब-सागर को निहारता वह स्थान जहाँ परम श्री कृष्ण रहे-उसके राजा के रूपमें आज द्वारिका एक रहस्य है और लगता है,कल भी यह रहस्य ही बना रहेगा ISRO अपनें अनुशंधानके आधारपर यह कहता है--मूल द्वारिका राजकोट,जामनगर,सुरिंदरनगर तथा रन आफ कच्छ के पश्चिमी तट पर कहीं भी हो सकता है
सन 2004 में हिंद-महा सागर में तुशामी-लहरों की स्मृति हम-सब के दिमाकमें आज भी ताज़ी है कहते हैं--इस तूफ़ान में अंदमान-निकोबार द्वीप का आखिरी इंदिरा-पॉइंट का 100 वर्ग किलो मीटर समुन्द्र में लुप्त हो गया और मॉल द्वीप में 1192 कोरल-टापुओं में से 42 टापू तो पूर्ण रूप से समाप्त ही होगये वैज्ञानिक यह कहते हैं--जावा-सुमात्रा एवं अंदमान-निकोबार की दूरी लगभग आधी इंच कम हो गई है
भारतीय मूल के कनाडियन वैज्ञानिक डाक्टर टाडापल्ली क्रिसनामूर्ती की गणित कहती है-
सन 2060 तक इस बात की पुरी संभावना है ,अरब-सागर में गुजरात के पश्चिमी तट के समीप भयंकर तुशामी - लहरें उठेंगी और गुजतात का अधिकांश तटीय भाग समुद्र में समां जायेगा
हमारी पौराणिक कहानियाँ जैसे मत्स-पुराण बताती हैं की परम श्री कृष्ण के शरीर छोडनें पर मूल-द्वारिका समुद्र में लुप्त हो गया था,हो सकता है उस समय भी तूशामी लहरों का कहर उठा रहा हो
मीरा[1498-1546] वैज्ञानिक नहीं थी लेकिन वर्तमान द्वारिका में उन्हें परम श्री कृष्ण मिलगये,यदि आप मूल द्वारिका को पाना चाहते हैं तो आप यात्रा पर उतरिये--सोम नाथ से अपनीं यात्रा प्रारंभ करें और समुद्र-तट से नारायण सरोवर तक की यात्रा करें यात्रा के मध्य आप को पूरी तरह से ध्यान में डूबना होगा तब आप मूल-द्वारिका को देख पायेंगे और परम श्री कृष्ण से भी मिल सकते हैं क्या सोच रहें हैं?
चलिए आप को मूल-द्वारिका पुकार रहा हैयही आप की आस्था परम में है तो आप को मथुरा,गोकुल और
द्वारिका से परिचित होना ही पड़ेगा