Friday, March 20, 2009

आसक्ति कर्म- योग का प्रारंभ है

आसक्ति रहित कर्म से परमात्मा की आहट सुनाई पड़ती है। यहाँ देखिये गीता के निम्न सूत्रों को .....
2.62 2.63 6.4 16.21 3.37 260 2.61 2.67 2.47 2.48 3.4 18.49 18.50----पाँच
अध्यायों के तेरह श्लोकों को आप अपनें कर्म में जगह दीजिये यदि आप कर्म-योग की साधना चाहते हैं -----सूत्र कह रहे हैं ..........मनन से मन में आसक्ति उठती है जो कामना पैदा करती है और कामनासे कर्म होते हैं ।
काम,कामना,क्रोध तथा लोभ राजस-गुण के तत्त्व हैं और मोह तामस-गुण का तत्त्व है।
काम,कामना ,क्रोध ,लोभ एवं मोह नरक के द्वार हैं ।
मन के अंदर सघन कामना से संकल्प - विकल्प बनते है जो मनमें संशय पैदा करते हैं और बुद्धिको अस्थिर करते हैं ।
आसक्त इन्द्रिय मन-बुद्धि को गुलाम बना लेती है ।
संकल्प रहित कर्म करता -- योगी होता है
आसक्ति रहित कर्म ही समत्व योग है [this is the state of choiceless awareness]
कर्म की तरफ़ पीठ नहीं की जा सकती।
आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलाती है जो ज्ञान-योग की परा - निष्ठा है।
[gyan-yog ki para nishtha means full awareness]

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