Friday, March 13, 2009

इन्द्रिय-नियोजन और निर्वाण

निर्वाण की यात्रा इन्द्रिय - नियोजन से प्रारम्भ होती है , कैसे ....देखिये यहाँ
गीता-सूत्र 2.14 * 15.9 * 3.34 * 2.60 * 2.67 * 2.58 * 2.61 * 2.68 *
हम जो भी अनुभव करते हैं वह इन्द्रियों के माध्यमसे प्राप्त होता है इस अनुभव में यातो सुख होता है या दुःख --हमारा ऐसा कोई अनुभव नही जिसमें सुख-दुःख की छाया न हो
संसार से संसार में हम हैं , संसार तीन गुणों से परिपूर्ण माया से माया में है और माया परमात्मा का वह माध्यम है जिससे संसार में निरंतर परिवर्तन हो रहा है संसार में विषय हैं
जिनमें राग-रूप , सभी तरह के भावात्मक सम्मोहन-तत्त्व तथा ऐसे बंधन हैं जो हमारे ज्ञानेंद्रिओं को आकर्षित करते हैं विषयों से सम्मोहित इन्द्रिय मन-बुद्धि को भी सम्मोहित कर लेती है हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बाहर अपनें-अपनें विषयों से जुडी होती हैं और
अंदर की ओरउनका संबंध मन,बुद्धि , चेतना तथा आत्मा से भी रहता है
इन्द्रीओं को कैसे नियंत्रित करें?
गीता - सूत्र 2.59 * 2.60 * 2.61 * 2.66 * 2.70 * 3.6 * 3.7 *
इन्द्रिय नियोजन दो तरह से सम्भव है --- इन्द्रियों को हठात नियोजित काया जाय या इद्रिओं से मैत्री स्थापित करके मन से उन्हें नियोजित किया जाए पहली स्थिती के लिए गीता कहता है--यह सम्भव तो है लेकिन इससे प्रतिकूल परिणाम मिलता है इन्द्रियां कमजोर हो जाती हैं और अंहकार सघन हो जाता है बाहर-बाहर से इन्द्रियों को रोकनें से क्या होगा ? मन तो उस विषय पर मनन करता ही रहेगा इन्द्रिय-नियोजन मन से होना चाहिए

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