गीता को मूक-किताब समझना एक भूल है , यह तो तत्त्व-ज्ञान का आदि-अंत रहित अनंत सागर है गीता अपनें में प्रीतिसे महाकाल तक की उर्जा रखे हुए है, यह एक रेडियो-धर्मी पदार्थ की तरह है इसके संपर्क में आनें पर रूपांतरण का होना स्वाभाविक है गीता के श्लोकों को रटनें से अंहकार सघन होता है और गीता के भावों में डूबनेंसे अंहकार प्रीति में बदल जाता है प्रीती वह रसायन देता है जो सीधे परमात्मा का द्वार दिखाताहै गीता को अपनें अंदर भरिये- न की गीता को रट कर महा ज्ञानी की संज्ञा प्राप्त कीजिए अब हम गीता से 29 श्लोकों को लेकर एक कर्म की रूप-रेखा तैयार करते हैं जो गीता का एक परम-सूत्र देता है ---------
गीता-सूत्र
2.45 2.59 2.60 2.62 2.62 2.66 2.67 2.70 3.4 3.6 3.7 3.20 3.34 3.37 4.10 5.22 5.23 5.26 6.4 6.6 6.24 8.3 8.6 15.8 15.9 16.21 18.38 18.49 18.50
सूत्रों से निर्मित समीकरण
परमात्मा से परमात्मा में तीन गुणों की माया है , माया से माया में संसार है और संसार में परमात्मा एवं माया से हम हैं अतः इस रहस्य को जो समझ गया वह परमात्मा को समझ गया एक मछली- जिसका आदि,मध्य तथा अंत समुद्र में है , वह क्या समुद्र की परिभाषा दे सकती है? नहीं दे सकती , वही स्थिति हमारी परमात्मा में है
हम संसार को अपनें पाँच ज्ञानेंद्रिओं के मध्यम से पकड़ते हैं [ सूत्र १५.९] , संसारमें
पाँच बिषय हैं जो इन्द्रियों को अपनें अंदर छिपे राग-द्वेष से आकर्षित करते हैं[सूत्र ३.३४]
बिषयों से आकर्षित इन्द्री मन को उस बिषय पर मनन करनें के लिए बाध्य करती है, मन में मनन से स्पृहा-उर्जा बनती है जिससे आसक्ति बनती है, आसक्ति से कामना उठती है और कामना टूटनें से क्रोध उत्पन्न होता है बिषय से सम्मोहित इन्द्री बुद्धि तक को गुलाम बना लेती है आसक्ति एवं कामना के मध्य मन-बुद्धि तंत्र में संकल्प भी उठते हैं जो कामना उत्पन्न करते हैं [सूत्र २.६०,२.६७,६.४,६.२४,२.६२,२.६३] क्रोध काम का रूपांतरण है[सूत्र ३.३७] और काम,क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं [सूत्र १६.२१] काम,क्रोध तथा लोभ से अप्रभावित यक्ति,योगी होता है जो सदा आनंदित रहता है[सूत्र ५.२३]
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