सन्दर्भ-गीता-श्लोक
2.47, 2.48, 3.4, 3.19, 3.20, 5.10, 3.33, 18.59, 18.60, 18.48, 3.5, 18.38, 5.22, 2.14,
4.38, 4.18, 12.15, 8.3,
ऊपर दिए गए सूत्रों का भाव आप यहाँ देखें --------------
आसक्ति, कामना, अंहकार एवं अन्य भोग कर्म-तत्वों के बिना किया जानें वाला कर्म --समत्व-योग कहलाता है।
समत्व-योग का अर्थ है -------choiceless awareness अर्थात जो है,वह पर्याप्त है।
कर्म के बिना कोई भी जीवधारीएक पल के लिए भी नहीं रह सकता, कर्म-त्याग से सिद्धि नहीं मिलतीकर्म में
भोग-तत्वों के त्याग से सिद्धि मिलती है। समत्व-योगी भोग संसार में कमलवत रहता है। संसार में ऐसा कोई
कर्म नहीं है जिसमें दोष न हो लेकिन दोषित कर्मों में आसक्ति रहित स्थिति में सहज कर्मों को करना चाहिए।
सहज-कर्म वे कर्म हैं जिनके बिना प्रकृतमें रहना सम्भव नहीं। भोग-कर्म एवं योग-कर्म में एक अन्तर है---
भोग-कर्म से जो सुख मिलाता है उसमें दुःख का बीज होता है और योग-कर्म समभाव की उर्जा से भरता है।
सम भाव कर्म करता सभी कर्मों को करनें में समर्थ होता है तथा कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है।
जिस के करनें से भावातीत की स्थित मिले गीता उसे कर्म कहता है --गीता सूत्र 8.3
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः -- कर्मः
=======ॐ =======
Tuesday, March 31, 2009
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