गीता-सन्दर्भ श्लोक
15.9, 3.34, 2.60, 2.67, 6.4, 6.24, 2.62, 2.63, 3.37, 16.21, 5.23
क- संकल्प रहित कर्म-करता जिसकी इन्द्रियां तथा मन भोग कर्मों में अनासक्त हों, वह योगी होता है--गीता-6.4
ख- बिषयों में राग-द्वेष होते हैं। इन्द्रियों का स्वभाव है बिषयों से आकर्षित होना।पाँच ज्ञान-इन्द्रियां हैं और सब
के अपनें- अपनें बिषय हैं। जब कोई इन्द्रिय अपनें बिषय से मोहित होती है तब उस बिषय के प्रति मन में
मनन उठता है,मनन से आसक्ति उर्जा पैदा होती है जो कामनाउठती है,कामना से संकल्प-बिकल्प -बुद्धिमें
उठनेंलगते हैं जिस कारन भोग-उर्जा कमजोर पड़ जाती है। संकल्प-बिकल्प के साथ भोगे गए भोगसे तृप्ति
पाना असंभव है। कामना टूटने पर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध में ज्ञान अज्ञान से ढकजाता है और वह
व्यक्ति पाप कर बैठता है। हठातइन्द्रियों को बश में करनें से अंहकार सघन होता है और इन्द्रियों से जब
मित्रता होती है तब आसक्ति रहित भोग भोगाजाता है,जो योग होता है। कामना रहित मन,मित्र इन्द्रियों
तथा स्थिर बुद्धि से जो कर्म होते हैं उनसे सिद्धि मिलाती है जिसको नैष्कर्म-सिद्धि कहते हैं। नैष्कर्म-सिद्धि
ज्ञान - योग की परा निष्ठा है। परा निष्ठा क्या है? परा उस स्थिति को कहते हैं जब करता कर्म में खो जाता
है--जहाँ करता कर्म में बिलीन हो गया होता है। याद रखना चाहिए की यह स्थिति मात्र उस समय आती है
जब कर्म या भोग के पीछे कामना-अंहकार न हों।
कर्म में इन्द्रियों को समझनें का मौका मिलता है, बिषय को समझनें का अवसर मिलता है, मन को जाननें
का अवसर मिलाता है और अंहकार को समझ कर उसे प्रीती में बदलनें का एक परम अवसर मिलता है।
आसक्ति रहित कर्म से राजा जनक विदेह कहलाते हैं
Monday, March 30, 2009
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