वैराग्य मोक्ष का द्वार कैसे है .............इस के लिए देखिये गीता के निम्न सूत्रों को---------
सूत्र 2।42---2.45 तक
सूत्र 6.37---6.45 तक
सूत्र 9.20---9.22 तक
सूत्र 2.52.....15.3
गीता वेदों को परम मानता है वेदों में दो बातें बताई गई हैं; पहली बात भोग-समर्थन की हैं और दूसरी बातें योग से गुणातीत बनानें के सम्बन्ध में हैं गीता स्पष्ट शब्दों में कहता है की भोग और भगवानदोनों को एक साथ एकबुद्धि में नहीं रखा जा सकता , भोग योग का माध्यम है , माध्यम में रुकना जीवन को वह नहीं दे सकता जिसको जीवन तलाश रहा है
वेद कर्म-फल प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं और स्वर्ग - प्राप्ति को परम मानते हैं लेकिन गीता कहता है यदि चल ही पड़े हो तो भोग में होश उपजा कर आगे बड़ों गुणों कके परे का आनंद लो जो परमानन्द है गीता में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न है----असंयमी पर श्रद्धा से भरा हुआ योगी का जब योग खंडित हो जाता है और इस बीच में उसका शरीर समाप्त होजाता है तब उसकी क्या गति होती है?
इस सम्बन्ध में परम कहता हैं----इस स्थिति में दो परिस्थितियां आती हैं; पहले में ऐसे योगी आते हैं जो वैराग्यावस्था में पहुचे होते हैं , वे किसी योगी-कुल में जन्म लेकर वैरग्य से आगे की यात्रा करते हैं
पर दुसरे प्रकार के योगी भी होते हैं जिनका शरीर वैराग्य से पहले समाप्त हो जाता है , ऐसे योगी कुछ
समय स्वर्ग में गुजार कर पुनः किसी अच्छे कुल में जन्म ले कर प्रारंभ से अपनी साधना शुरू करते हैं जब तक उनकी साधना का असर रहता है तब तक वे स्वर्ग में ऐश्वर्य भोगों को भोगते हैं
गीता स्वर्ग को भी एक भोग का स्थान मानता है और साथ में यह भी कहता है --- गीता में डूबे योगी
का वेदों से सम्बन्ध न के बराबर होता है
स्वर्ग से परमात्मा का द्वार नहीं दिखता , परमात्मा का द्वार मृत्यु - लोक में राग से वैराग्य
मिलनें पर दिखता है काम,कामना, क्रोध, लोभ, मोह, आलस्य , भय तथा अंहकार से अप्रभावित व्यक्ति --वैरागी होता है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment