Thursday, March 26, 2009

मनुष्य की सोच

मनुष्य संसार में अपनें को भी धोखा देता है ---क्या आप जानते हैं ?
मनुष्य स्वयं को सर्बोच्च शिखर पर देखना चाहता है और उसकी यह चाह उसे बेचैन बना रखी है। मनुष्य जीवों में सम्राट है लेकिन वह स्वयं से भी भयभीत रहता है --क्यों? यह सोचनें का बिषय है। हम मुट्ठी खोलना नही चाहते पर जो मुट्ठी में नहीं है उसे भरना भी चाहते हैं --
क्या यह सम्भव है? बंद मुट्ठी में भरनें की चाह को कामनाकहते हैं। कामना में धनात्मक अंहकार होता है जिसमें फैलाव आता है आदमी संपर्क बढाता है, मित्र बनाता है । जो चीज
मुट्ठी में है वह कहीं सरक न जाए, इसकी सोच मोह उपजाती है , मोह भी कामना है जिसमें
सिकुड़ाहुआ नकारात्मक अंहकार होता है, जिसमें मनुष्य लोगों से दूर भागना चाहता है, अकेला रहना चाहता है और लोगों को भय के साथ देखता है । कामना की एक और स्थिति
होती है ---लोभ, लोभ में भी भय के साथ-साथ कमजोर अंहकार होता है, जो हमारे पास नही
है वह बिना मुट्ठी खोले हमारे मुट्ठी में आजाये का भावका नम ही लोभ है।
कामना,लोभ और मोह का समीकरण आपनें अभी देखा अब आप इस पर सोचें और समझनें का प्रयत्न करे की हमें क्या परेशानी है? गीता कहता है ------- काम, क्रोध,लोभ
और मोह परमात्मा के राह के अवरोध हैं।

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