Thursday, March 5, 2009

ध्यान-giita

पिछले अंक में ध्यान-गीता परिचय के सन्दर्भ में गीता के २९ श्लोकों की एक सारिणी दी गयी है जिसके आधार पर ध्यान-गीता परिचय तैयार किया जा रहा है , अब आप आगे इस सन्दर्भ में कुछ और बातोंको देखिये
सत्य को पकड़ना एक अंत हीनयात्रा है अतः इस यात्रा में मन-इन्द्रियां शांत होनी चाहिए क्योकि यह यात्रा पथ रहित यात्रा है--J.Krishanamurty कहते हैं.....Truth is pathless journey सत्य का खोजी कहीं भागता नहीं वह स्वयं को जान कर संसार को जानता है और संसार को जानकर सत्य को जानलेता है इन्द्रिय-बिषय के सहयोग से जो कर्म होता है उस से जो अल्प-कालीन सुख मिलता है उसमें दुःख का बीज होता है और ऐसे सभीं कर्म भोग होते हैं----गीता की यह बात हमें इशारा करती है....तुम भोग से भोग में हो और अपनें इस भोग जीवन में तुमको सत्य की तलाश भी करनी है भोग-भावका केन्द्र राजस गुण
है [ गीता-सूत्र- 5.22 , 2.45 , 18.38 , ] संसार में ब्याप्त रूप,रंग तथा अन्य भोग तत्त्व हमारे इन्द्रियों को सम्मोहित करते रहते हैं अतः इन्द्रियों के माध्यम से इनका सम्मोहन हमारे मन-बुद्धि पर भी होता है इन्द्रियों को नियोजित करनें के दो तरीके हो सकते हैं ; पहला
तरीका है -- इन्द्रियों को हठात बिषयों से दूर रखा जाए और दूसरा तरीका है--इन्द्रियों से मैत्री स्थापित की जाए गीता-सूत्र 3.6 कहता है , यदि इंदियों को जोर-जबरदस्ती से बिषयों से दूर रखा जाए तब अंहकार और तीब्र हो जाता है जो बिनाश तक पहुंचा सकता है अतः इन्द्रियों से मैत्री स्थापित करनें की कोशिश करते रहना चाहिए जो मन-ध्यान है बुद्ध कहते हैं...इन्द्रियों से मैत्री स्थापित करो गीता आगे कहता है [गीता-सूत्र 2.59 ] तुम इन्द्रियों को बलपुर्बक तो रोक लोगे लेकिन मन में स्थित आसक्ति को कैसे हटा सकते हो और जब मन में आसक्ति है तब मनन होना भी स्वाभाविक है नियंत्रित इन्द्रियां अपनें - अपनें बिषयों में विहरति तो हैं पर बिषय उन्हें आकर्षित नहीं कर पाते [ गीता-सूत्र 2.66 , 2.70 ] जब इन्द्रियों से मैत्री हो जाती है तब वह ब्यक्ति स्वयं का मित्र होता है [ गीता- सूत्र..3.7 , 6.6 ] राजस-तामस गुणों के तत्वों से अप्रभावित ब्यक्ति परमात्मा को समझता है [ गीता-सूत्र॥4।10 ]
आत्मा की तरह मन भी अविनाशी है और जब आत्मा शरीर छोड़ कर जाता है तब इसके साथ मन भी होता है [गीता-सूत्र..15.8 ] सघन अतृप्त कामनाएं आत्मा को नए शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करती हैं [ गीता-सूत्र॥8।6 ]
कर्म के बिना नैष्कर्म की सिद्धि नहीं मिलाती जो ज्ञान योग की पारा निष्ठा है [गीता-सूत्र..3.4 ,18.50 ] आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है [ गीता-सूत्र..18.49 आसक्ति,काम,क्रोध,कामना तथा मोह मुक्त योगी निर्वाण प्राप्त करता है [गीता-सूत्र..5.26 ] गीता कर्म की परिभाषा देता है....भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः --गीता-सूत्र..8.3 यहाँ गीता स्पष्ट रूप से कह रहा है....ऐसे कर्म जिनको करनें से भावातीत की स्थिति मिले---कर्म हैं
गीता की यात्रा राज-पथ की यात्रा नहीं है जिसमें आँख बंद करके चला जाए ,यह तो तलवार की धार की यात्रा है गीता-साधना से मिलेगा तो कुछ नही पर खो जाएगा वह सब जिसको हम किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहते आनंद बुद्ध से पूछते हैं---भंते! आप को निर्वाण से क्या मिला , बुद्ध कहते हैं----मिला तो कुछ नहीं पर खो गया वह सब जिसको हमनें इकठा किया था और खोना नहीं चाहता था , जो मिला वह तो पहले से ही था
meditation is a flight---a pathless and endless flight of ultimate eternity.

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