Saturday, January 30, 2010

गीता ज्ञान - 63

प्रभु की ओर



गीता कहता है आप इनके माध्यम से प्रभु से जुड़ सकते हैं -----

[क] श्री राम , परम श्री कृष्ण और अर्जुन को समझ कर --गीता ..10.31 - 10.32, 10.37

[ख] काल का महाकाल को समझ कर -- गीता .. 10.33, 11.32

[ग] विष्णु , इन्द्र , कपिल मुनि , नारद, यमराज --गीता .. 10.21 - 10.22, 10.26, 10.29

[घ] वेदव्यास , शुक्राचार्य , कुबेर --गीता ..10.23, 10.31, 10.37

[च] कामदेव , काम -- गीता ..10.28, 7.11

[छ] मौन, वायु, पीपल का पेड़ --गीता ..10.26, 10.31, 10.38

[ज] मन , बुद्धि , चेतना --गीता ..7.10, 10.22

[झ] शंकर , हिमालय , गंगा , सागर -- गीता ..10.23, 10.24, 10.25, 10.31

[च] ॐ , ओंकार , गायत्री -- गीता ..7.8, 7.9, 9.19, 10.23, 10.25, 10.35



वह जो अपरा भक्ति के माध्यम से परमात्मा से जुड़ना चाहते हैं उनके लिए गीता ऊपर के सूत्रों के माध्यम से कुछ उदाहरण देता है जिनको मन - बुद्धि से पकड़ना संभव है और यदि पकड़ के साथ रुकावट न आये तो उस प्रभु में पहुँचना संभव है जो मन - बुद्धि के परे की अनुभूति है [ गीता 12.3 - 12.4 ]

आप चाहें तो सिव से सागर तक की यात्रा , गंगा के माध्यम से करें या मौन से एक ओंकार की यात्रा पीपल पेड़ के पत्तों के संगीत से करें , अंततः आप वहाँ पहुंचेंगे जो भावातीत है ।



===ॐ=====

Friday, January 29, 2010

गीता ज्ञान - 62

बुद्धि केन्द्रित ब्यक्ति का परमात्मा कौन है ?

पहले गीता के कुछ सूत्रों पर नजर डालते हैं -----
[क] गीता सूत्र - 10.22, 7.10 - 7.11
मन , बुद्धि , चेतना और काम , मैं हूँ - ऐसी बात श्री कृष्ण कह रहे हैं ---सोचिये इस बात पर
[ख] गीता सूत्र - 10.20
सब का आदि , मध्य , अंत के रूप में सबके ह्रदय में स्थित आत्मा के रूप में , मैं हूँ।
[ग] गीता सूत्र - 13.17, 13.22
माया से परे देहमें , ह्रदय में साक्षी के रूप में आत्मा , ज्योतियों की ज्योति , कर्म करनें की ऊर्जा , मैं हूँ ।
[घ] गीता सूत्र - 15.7, 15.15
मन - बुद्धि की ऊर्जा सबके ह्रदय में स्थित सनातन आत्मा , मेरा अंश है ।
[च] गीता सूत्र - 18.61
मैं सब के ह्रदय में स्थित सब को उनके कर्मों के आधार पर अपनी माया से भ्रमण कराता हूँ
[छ] गीता सूत्र - 2.16, 2.28
सत भावातीत है और सब का वर्तमान अब्यक्त से अब्यक्त का मध्य है ।
[ज ] गीता सूत्र - 9.19, 13.12
सत - असत परमात्मा है और परमात्मा न सत है , न असत है ।
[झ] गीता सूत्र 11.37...अर्जुन कहते हैं ---आप सत - असत से परे परम ब्रह्म हैं ।
[प] गीता सूत्र - 8.20, 8.21, 15.6
swayam प्रकाशित अब्यक्त से परे अब्यक्त परमधाम परमात्मा का निवास है ।
[फ] गीता सूत्र - 4.38, 13.15, 13.24, 7.24, 12.3 - 12.4
परमात्मा की अनुभूति ध्यान में ह्रदय में मिलती है और परमात्मा मन - बुद्धि से परे की अनुभूति है ।

यदि आप अपनें को बुद्धि केन्द्रित समझते हैं तो उठाइये गीता और ऊपर दिए गए श्लोकों की बातों को समझनें की
कोशीश करें - क्या पता कब और कैसे आप को परम सत मिल जाए ।

=======ॐ====

Thursday, January 28, 2010

गीता ज्ञान - 61

गीता का अर्जुन कोई और नहीं है , हम- आप हैं



गीता का अर्जुन निद्रा को जीत लिया है , दोनों हांथो से तीर चलाता है [गीता - 11.7, 11.33 ] और हम - आप भोग में इतनें मग्न हैं की रात - दिन का पता तक नहीं लग पाताऔर दोनों हांथों से बटोरनें में लगे हैं - अर्जुन और हम में क्या फर्क है ?

अब गीता के अर्जुन को देखते हैं ------अर्जुन महा भारत युद्ध को ब्यापार कहता है [ गीता 1.22] और इस युद्ध को परम धर्म- युद्ध कहते हैं [ गीता 2।31, 2.33 ], यह है दोनों की समझ में मौलिक अंतर ।

अर्जुन कहते हैं - मेरा मन भ्रमित हो रहा है [ गीता- 1.30 ], गीता श्लोक - 1.26 - 1.46 तक में जो कहते हैं , उनसे यह स्पष्ट होता है की अर्जुन मोह में हैं । अर्जुन आगे कहते हैं [ गीता - 2.7 ] - मैं आप का शिष्य हूँ , इस समय भ्रमित हूँ , आप सत - असत से परे परम ब्रह्म हैं [ गीता - 10.12 - 10.17, 11.37 ], आप की बातों से मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है [ गीता - 11.1 - 11.4 ] , और अब मैं स्थीर चित हो गया हूँ [गीता - 11.51 ] , यदि ऎसी बात होती तो गीता का समापन अध्याय 11 तक हो जाना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं । अर्जुन अपनें आखिरी श्लोक [ गीता - 18.73 ] में कहते हैं ---मेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हो गया है मैं अपनी स्मृति
प्राप्त कर ली है औरआप की शरण में हूँ ।


गीता का समापन हुआ , अर्जुन मोह से मुक्त हो कर युद्ध में भाग लिया या मोह के साथ यह बात मैं आप पर छोड़ता हूँ ।

कुछ मैं चलनें की कोशिश में हूँ ---

कुछ आप भी चलें ----

और जब हम - आप मिलेंगे तो वहाँ जो होगा वह होगा ----

गीता



====ॐ=====



Wednesday, January 27, 2010

गीता ज्ञान - 60

भावातीत भावों का श्रोत है --गीता ...10.4 - 10.5

Thales [624 - 546 BCE ] जब बोले ----पानी जीवों के होनें का कारण है तब उनका शिष्य अनाक्सीमंदर बोल पड़े --
यह बात ठीक नहीं है , ज्ञात - ज्ञात के होनें का कारन नहीं हो सकता , जीव का श्रोत अज्ञात है और गीता श्लोक 2.28 कहता है ----
जो है वह सब अज्ञात से है और अज्ञात की ओर जा रहा है । गीता के दो श्लोक 10.4 - 10.5 कहते हैं ......
भावों का श्रोत भावातीत है , आइये इस बात के सम्बन्ध में गीता के कुछ और सूत्रों को देखते हैं ।
गीता श्लोक - 7.12 - 7.15 तक कहते हैं -----
तीन गुणों की माया से यह संसार परिपूर्ण है , तीन गुणों के भाव परमात्मा से हैं लेकीन गुणों एवं गुणों के भावों में परमात्मा नहीं होता । गुणों को जाननें वाला गुनातीत योगी परमात्मा को जानता है । तीन गुण एवं उनके भाव मनुष्य को परात्मा से दूर रखते हैं ।
गीता श्कोल 2.46 में ब्राह्मण की परिभाषा करते हुए परम श्री कृष्ण कहते हैं -----
वह जो ब्रह्म से परिपूर्ण है , ब्राह्मण है और गीता श्लोक 18.42 में श्री कृष्ण ब्राह्मण के कर्मों के संन्दर्भ में जो बातें कहते हैं , वही बातें गीता श्लोक 10.4 - 10.5 में कही गयी हैं । गीता श्लोक 10.4 - 10.5, 18.42 की बातें मनुस्मृति में 6.92 सूत्र में कही गयी हैं जो धर्म के लक्षण के लिए बताई गयी हैं । मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं जो गीता में ब्राह्मण के कर्मों के रूप में बताये गए है । गीता श्लोक 2.16 कहता है ----
ना सतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सत: अर्थात सत्य भावातीत है ।

आप के मन में संदेह हो रहा होगा की भावातीत भावों का श्रोत कैसे हो सकता है ? यदि आप विज्ञानं में रूचि रखते हैं तो आप को पता होगा की युरेनिंम धीरे - धीरे लीड में बदल जाता है और उसको बदलनें में 4.5 billion वर्ष लग जाते हैं ।
लीड में युरेनियम नहीं होता और युरेनियम में लीड भी नही होता पर विज्ञान में ऐसी बात है । जैसे युरेनियम एवं लीड का सम्बन्ध है वैसे भावों का भावातीत से है लेकीन यह मात्र समझे के लिए है ।

आप अपनें भावों के माध्यम से भावातीत को जान सकते हैं ।

=====ॐ=====

Monday, January 25, 2010

गीता ज्ञान - 59

कौन प्रभु से परिपूर्ण है ?----गीता श्लोक ...9.29
यह श्लोक कहता है ......
सब में प्रभु सम भाव से है , प्रभु का कोई प्रिय - अप्रिय नहीं है लेकीन प्रभु के प्यार में डूबे हुए में प्रभु प्रकट होता है ।
अब आप गीता के इस परम सूत्र के सम्बन्ध में गीता की कुछ और बातों को देखिये -------
[क] आसक्ति , कामना रहित सम भाव वाला प्रभु से परिपूर्ण होता है .....गीता - 2.56 - 2.57, 2.69 - 2.70
[ख ] करता भाव रहित , काम , कामना , क्रोध , लोभ , भय , मोह रहित योगी , प्रभु से परिपूर्ण होता है ....गीता --
3.27, 4.10, 5.6, 5.23
[ग] आसक्ति रहित योगी परा भक्ति के माध्यम से प्रभु से परिपूर्ण होता है .....गीता - 18.49 - 18.50
[घ] गुणों को करता समझनें वाला द्रष्टा / साक्षी भाव में प्रभु से परिपूर्ण होता है ...गीता - 14.19 - 14.23
[च] कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें वाला गुनातीत योगी प्रभु से परिपूर्ण होता है ....गीता - 4.18,5.6,7.15
[छ] प्रभु के प्यार में डूबा , आत्मा- परमात्मा केन्द्रित सब को प्रभु के फैलाव के रूप में देखनें वाला तथासब में प्रभु को देखनें वाला , प्रभु से परिपूर्ण होता है .......देखिये गीता ------
2.55, 6.29 - 6.30, 9.29, 13.28 - 13.30, 13.34, 18.54 - 18.55

अब आप जितना सोच सकते हों उतना सोचिये , आप की सोच का अंत होगा लेकीन गीता आप को ------
अनंत में देखना चाहता है ।

====ॐ=====

Saturday, January 23, 2010

गीता ज्ञान - 58

सकाम भक्ति मुक्ति का द्वार नहीं है ----गीता सूत्र ..9.23 - 9.25

परम श्री कृष्ण कह रहे हैं ------
सकाम भक्ति मुक्ति का द्वार नहीं है लेकीन यदि यह निष्काम भक्ति बन जाए तो मुक्ति का द्वार बन सकती है ।
गीता में कुछ शब्द हैं जैसे सकाम , सगुण , सविकल्प , निष्काम , निर्गुण, निर्विकल्प आदि जिनको समझना जरूरी है । जिसके होनें के पीछे कोई चाह हो वह सकाम , सगुण , सविकल्प कहलाता है और जिसके होनें के पीछे कोई चाह न हो वह है निष्काम, निर्गुण एवं निर्विकल्प --सीधी सी बात है जिसको समझनें में कोई कठिनाई नहीं।
गीता कहता है ......
चाह चाह है चाहे वह सात्विक हो , चाहे वह राजस हो या चाहे वह तामस हो । यदि कोई कुछ पानें के लिए परमात्मा को जपता है तो वह वह भक्ति नहीं है जो परमात्मा मय बना सके , वह भक्ति भी भोग से सम्बंधित ही है ।

आप जरा सोचना --- हम क्यों अभी काशी तो कभी कैलाश की यात्रा करते हैं ?
हम क्यों कभी गंगासागर तो कभी द्वारिका पहुंचते हैं ?
हम क्यों कभी राम को तो कभी कृष्ण को जपते हैं ?
हम क्यों कभी साईं बाबा से तो कभी कृष्णमुर्ती से जुड़ते हैं ?----कोई तो कारण होगा ही , और वह कारण है
भ्रमित मन की ऊर्जा --मन हमें कहीं रूकनें नहीं देता , भगाता रहता है और हम भागते रहते हैं वरना जो है वह
सर्वत्र है , जगह बदलते रहनें से वक्त तो निकल जाता है लेकीन हम वैसे के वैसे रहते हैं ।
गीता कहता है -----
मनुष्य का जीवन जो तुझे मिला है वह एक अवसर है , चाहे तो तूं अपनें को बदल कर उसे देखलें जिस से यह संसार है या फिर बासना के बिषय बदलते रहो और इस में तेरा यह जीवन सरकता चला जाएगा ।
अंत में तूं जब आखिरी श्वास भरेगा तो वह श्वास तनहाई से भरी होगी ।

=====ॐ=========

Thursday, January 21, 2010

गीता ज्ञान - 57...श्लोक 9.20

गीता का यह श्लोक कहता है ------
तीन वेदों में वर्णित सकाम कर्मों को करनें वाले लोग यज्ञों के माध्यम से स्वर्ग - प्राप्ति चाहते हैं ।
इस श्लोक में तीन बातें हैं .......
[क] स्वर्ग क्या है ?
[ख] यज्ञ से क्या कामना पूर्ति संभव है ?
[ग] गीता के समय क्या तीन वेद थे ?

गीता में 9.17, 9.20 श्लोकों से ऋग्वेद , सामवेद एवं यजुर्वेद - तीन वेदों की बात सामनें आती है , क्या जब गीता की रचना हुयी उस समय अथर्ववेद नहीं था ?

यज्ञ के सम्बन्ध में आप गीता के इन श्लोकों को देखें ......4.24 - 4.33, 9.15, 17.11 - 17.15
गीता यज्ञ शब्द उनके लिए प्रयोग करता है जो परमात्मा के लिए किया जाए --श्वास लेनें से अग्नि में हवन करनें तक की सभी क्रियाएं , यज्ञ हो सकती हैं यदि उनका केंद्र परमात्मा बनाया गया हो । परमात्मा को भोग कर्मों में केंद्र बनाना , अज्ञान है और जो कर्म - फल मिलता है उसको देनें वाला परमात्मा नही होता ।

स्वर्ग के सम्बन्ध में आप देखें गीता के इन श्लोकों को -----9.20 - 9.23, 6.41 - 6.45, 2.42 -2.46 तक , यहाँ गीता कहता है .......
स्वर्ग प्राप्ति सफलता नहीं है , यह असफल साधना का फल है और एक अवसर है जहां से भोग में तृप्त हो कर मनुष्य
पुनः जन्म ले कर साधना पूरी करके परम गति प्राप्त कर सकता है ।

गीता आप के सभी समीकरणों को बदलता है और आप अपनें बनाए गए समीकरणों को बदलना नहीं चाहते ।
आज गीता के पूजक अधिक हैं और गीता के उपासक न के बराबर हैं --क्यों ..ऐसा क्यों है ? क्योंकि
गीता जो दवा देता है वह बहुत कदुई दवा है , कोई लेनें वाला नहीं ।

======ॐ======

गीता ज्ञान - 56

गीता श्लोक - 9.2 -9.13
प्रकृति - पुरुष एवं मनुष्य
गीता के दो श्लोक कहते हैं ------
मनुष्यों को दो वर्गों में बाटा जा सकता है ; एक वर्ग वह है जिनका केंद्र भगवान् है और दूसरा वर्ग वह है जिनका केंद्र भोग है । गुणों के आधार पर मनुष्यों की तीन श्रेणियां हैं लेकीन राजस - तामस गुणों वालों को एक श्रेणी में रखा जा सकता है । सात्विक गुण धारी को गीता दैवी प्रकृति वाला कहता है और राजस - तामस गुणों को
जो धारण किये हैं उनको आसुरी प्रकृति वाला कहता है ।

प्रकृति - पुरुष के योग से उत्पन्न मनुष्य सभी जीवों में सर्व संपन्न जीव होते हुए भी सबसे अधिक अतृप्त जीव है ।
आखिर मनुष्य क्या खोज रहा है जिसके मिलनें से वह तृप्त हो सकता है ?
आइन्स्टाइन एक इंच लंबा एक ऐसा सूत्र की तलाश कर रहे थे जो चार प्रकार की ताकतों [forces ] को ब्यक्त करे --इस काम में उनको वह सूत्र तो नहीं मिला लेकीन वे खुद लुप्त हो गए । भोगी - योगी का मार्ग अलग - अलग तो नही है लेकीन लोग इस मार्ग को अलग - अलग देखते हैं जो एक भ्रम है । भोगी कल्पना में जीता है और योगी यथार्थ में ।
योगी भोग तत्वों को समझ कर योग में पहुँच कर योगातीत का आनंद लेता है और भोगी अपनी कभी समाप्त न होने वाली कल्पनाओं के आधार पर कामनाओं में उलझा हुआ अतृप्त अवस्था में एकदिन समाप्त हो जाता है ।
भोगी आवागमन के चक्र में आता - जाता रहता है और गुनातीत योगी आवागमन से मुक्त हो कर प्रभु में होता है ।
ऊपर जो बाते बताई गई हैं उनको आप गीता के निम्न श्लोकों के माध्यम से गीता में देख सकते हैं -------
7.14 - 7.16, 8.6, 15.8, 16.5 - 16.19, 17.4 - 17.22, 18.4 - 18.12, 18.19 - 18.39
गीता के 68 श्लोक जो कहते हैं उसका सारांश आप को ऊपर दिया जा चूका है अब आप उठाइये गीता और एक - एक श्लोक को अपनें साधना का माध्यम बनाइये ।

====ॐ======

Tuesday, January 19, 2010

गीता ज्ञान - 55

परमात्मा से भरना क्या है ? गीता श्लोक - 8.21 - 8.22

गीता के दो श्लोक कह रहे हैं ........
अब्यक्त अक्षर का अब्यक्त भाव ही परम गति है जो परम धाम के रूप में अनन्य भक्तिके माध्यम से मिलती है ।
विज्ञानं के सूत्रों एवं गीता के सूत्रों में समानता है , जो देखनें और सुननें में छोटे हैं लेकीन भावों में इनकी कोई सीमा
नहीं है । आइन्स्टाइन का एक सूत्र है --E = mc2[ energy = mass x square of the speed of light ] जिस पर वैज्ञानिक पिछले एक सौ वर्ष से सोच रहें हैं और गीता के 700 सौ श्लोकों के ऊपर दर्शन शास्त्री पिछले 5000 सालों से सोच रहे हैं और यह सोच चलती रहेगी ।

गीता के दो सूत्र जिनको ऊपर दिया गया है वे क्या कह रहे हैं ? अनन्य भक्ति वह भक्ति है जो समभाव को जागृति करती है , जिसको परा भक्ति का प्रारम्भ कह सकते हैं । अनन्य भक्ति से ह्रदय में अब्यक्त भाव भरता है ।
अब्यक्त भाव में अब्यक्त अक्षर की गूंज ह्रदय में सुनाई पड़ती है । जो साधक इस स्थिति में शरीर छोड़ता है तो उसकी स्थिति को परम गति कहते हैं । परम गति में निर्विकार मन आत्मा को नए शरीर तलाशनें के लिए बाध्य नहीं करता , ऐसे साधक की आत्मा परमात्मा में मिल जाती है । परात्मा का निवास ही परम धाम है ।

भोग से समाधी तक का मार्ग मन- बुद्धि आधारित है जो एक - एक कदम चल कर तय किया जाता है लेकीन
समाधि से परम धाम का मार्ग अब्यक्त मार्ग है ।

उठाइये गीता और जम जाइए , एक न एक दिन परम धाम की यात्रा आनें ही वाली है ।

=====ॐ=====

Monday, January 18, 2010

गीता ज्ञान - 54

गीता श्लोक - 8.16 - 8.20 तक ....भाग - 3
विज्ञानं कहता है -----
[क] लगभग 4.5 billion वर्ष पूर्व पृथ्वी ब्रह्माण्ड के फैलाव के फल स्वरुप एक अग्नि के गोले के रूप में प्रकट हुयी थी ।
[ख] पृथ्वी का अब से आगे का जीवन लगभग 1.5 billion वर्ष का है ।
[ग] अब से लगभग 500million वर्ष तक पृथ्वी पर जीव रहेंगे , इसके बाद यह जीव रहित हो सकती है ।
[घ] अब से लगभग 60 million वर्ष पूर्व तक पृथ्वी पर दैनासुरों का राज्य था ।
[च] पृथ्वी की orbital speed लगभग 30km/second है ।
[छ] पृथ्वी की गति को चन्द्रमा नियंत्रण में रखता है ।

पृथ्वी के संबध में कुछ वैज्ञानिक बातें ऊपर दी गई हैं , आप इन बातों को गौर से समझनें की कोशीश करें ।
आज विज्ञानं एक नयी पृथ्वी को खोज रहा है क्योंकि विज्ञानं सोचता है की पृथ्वी का जीवन संकट मय है ।
पृथ्वी पञ्च महाभूतों में एक तत्त्व है जिसके बिना जीवों का होना असंभव है लेकीन प्रगति के नाम पर पृथ्वी
को किस तरह बर्बाद किया जा रहा है ? यह बात किसी से छिपी नहीं है ।
विज्ञानं यह भी कहनें लगा है की चाँद पृथ्वी से दूर हो रहा है और यदि ऐसा सत्य है तो पृथ्वी की गति अनियंत्रित
हो जायेगी और इस पर रहनें वाले जीव- जंतु , पशु - पंछी एवं मनुष्यों का जीवन भी खतरे में होगा ।
पृथ्वी को अपना तन ढकनें में अरबों वर्ष लगे विज्ञानं पिछले चार सौ वर्षों में इसको निर्वस्त्र कर दिया ।
विज्ञानं का जन्म हुआ प्रकृति की सुरक्षा के लिए लेकीन मनुष्य की कामना मनुष्य को भक्षक बना दिया ।
निर्वस्त्र पृथ्वी कराह रही है लेकीन उसकी आवाज को कौन सुनता है ?

=====ॐ=====

Sunday, January 17, 2010

गीता ज्ञान - 53

जीवन चक्र
गीता श्लोक 8.16 - 8.20 तक ..भाग - 2
यहाँ हम गीता के दो श्लोकों [ श्लोक 8.16 -8.17 ] को ले रहे हैं ।
गीता यहाँ वह सिद्धांत देता है जिसको आइन्स्टाइन संन 1917 में दे कर कोस्मोलोजी की नयी पक्की बुनियाद रखी थी । गीता कहता है -----
कल्प का आधा समय जीव रहित होता है जिसको ब्रह्मा की रात कहते हैं । ब्रह्मा का दिन - रात बराबर अवधि के होते हैं और एक दिन चार युगों की अवधि से हजार गुना बड़ा होता है । ब्रह्मा का दिन वह समय है जिसमें जीव होते हैं , पैदा होते हैं , समाप्त होते हैं और पुनः पैदा होते रहते हैं - यह क्रम चलता रहता है जब तक दिन होता है ।
ब्रह्मा की रात के आगमन पर सभी जीव अलग- अलग उर्जाओं में रूपांतरित हो - हो कर ब्रह्मा के सूक्ष्म रूप में समा जाते हैं । पुनः जब ब्रह्मा का दिन प्रारम्भ होता है तब सभी जीव उर्जाओं से साकार रूपों में आ जाते हैं जैसे पहले होते थे ।

अब गीता की बात पर आप सोचें की यह बात अपनें में कौन सा विज्ञानं समाये हुए है ?-----
[क] साकार बस्तुओं को ऊर्जा में बदलना यहाँ तक की जीवों को भी और पुनः उनको उर्जा से साकार रूप में रूपांतरित करना ।
[ख] चार युगों की समाप्ति के बाद भी ब्रह्मा का दिन होता है जो 999 x चार युगों की अवधी के बराबर का समय होता है । क्या इस लम्बे समय में मनुष्य नहीं होते ? और क्या यह पृथ्वी मानव रहित होती है ? जीवो से परिपूर्ण
मानव रहित पृथ्वी कैसी होती होगी ?

गीता की दो ऊपर दी गयी बातों पर आप सोचें ।

====ॐ=======

Saturday, January 16, 2010

गीता ज्ञान - 52

गीता का ब्रह्माण्ड रहस्य -भाग- 1
गीता श्लोक - 8.16- 8.17
यहाँ आप गीता के निम्न श्लोकों पर अपना ध्यान केन्द्रित करें .......
3.22, 7.4 - 7.6, 7.14, 13.5 - 13.6, 13.19, 13.33, 14.5 - 14.6, 15.1 - 15.3, 15.6 , 15.16
गीता के सोलह सूत्र क्या कह रहे हैं ? इस बात को हम यहाँ ब्रह्माण्ड रहस्य में आंशिक रूप को देखेंगे और शेष को आगे चल कर देंखेगे ।
गीता कहता है -----
निर्गुण निराकार सीमा रहित सर्वत्र असोचनीय , अब्यक्तनीय परमात्मा से परमात्मा में तीन गुणों की माया है ।
माया से माया में विज्ञानं का टाइम स्पेस है । गीता का ब्रह्माण्ड तीन लोकों में है जो सूर्य से प्रकाशित हैं लेकीन
परमात्मा स्वप्रकाषित है । पृथ्वी को मृत्यु लोक कहते हैं क्यों की यहाँ जीव हैं जो जन्म , जीवन एवं मृत्यु के
चक्र में हैं ।

अपरा प्रकृति एवं परा प्रकृति जब आपस में मिलती हैं और इनके मिलनें से जो ऊर्जा पैदा होती है यदि इस ऊर्जा में
वह क्षमता हो जो आत्मा-परमात्मा को आकर्षित कर सके तब जीव का निर्माण होता है । यह वह सिद्धांत है
जिसके बारे में वैज्ञानिक परेशान हैं ।
जीव परमात्मा का एक परम रहस्य है और विज्ञानं इसे खोजनें में लगा है ।
शेष अगले अंक में

====ॐ=====

Friday, January 15, 2010

गीता ज्ञान - 51

गीता श्लोक - 8.11 ...8.15 तक का वह- कौन है ?

[क] जिसको वेदों में ॐ , ओंकार और परम अक्षर कहा गया है [गीता - 7।8, 10.25, 9.17 ]----
[ख] ब्रह्मचारी जिसमें निवास करते हैं ----
[ग] राग रहित योगी जिसमें प्रवेश करते हैं ----
मैं उस परम पद के बारे में तुमको बताता हूँ ....यह बात परम श्री कृष्ण यहाँ कह रहे हैं , अर्जुन से ।

गीता सूत्र 8.11 - 8.15 तक को समझनें के लिए आप देखें गीता के निम्न सूत्रों को -------
8.14, 12.3-12.4, 13.30, 13.34, 14.19, 14.23, 15.5-15.6, 16.21-16.22, 18.55-18.56
गीता यहाँ कहता है -----
परम धाम , परम पद कोई स्थान या बस्तु नहीं है की जब चाहा उसे हाशिल कर लिया , यह एक अनुभूति है जो भावातीत की स्थितिमें समाधि में मिलती है और ऐसे लोग प्रकृति-पुरुष के सम्बन्ध को समझ कर
धन्य हो जाते हैं ।

काम,कामना , संकल्प, विकल्प ,क्रोध , लोभ , मोह , ममता , भय , आलस्य एवं अहंकार रहित योगी अपनें योग में परम उर्जा में जब आखिरी श्वास भरता है तब वह स्वप्रकाशित परम धाम को प्राप्त करता है

=====ॐ======

Thursday, January 14, 2010

Tuesday, January 12, 2010

गीता ज्ञान - 50

समर्पण भाव , परम का द्वार है --गीता ...8.7
समर्पण भाव कब आता है ? जब -----
[क] अहंकार पिघल कर श्रद्धा में बदलनें लगता है । यह तब होता है जब ------
०० मन- बुद्धि स्थिर हों ।
०० तन , मन , बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा प्रवाहित हो रही हो । लेकीन श्री कृष्ण समर्पण की बात अर्जुन से कह रहे हैं जो --
पुर्णतः मोह में डूबा है ।
गीता श्लोक - 8.7 में श्री कृष्ण कहते हैं ------
तूं अपनें मन-बुद्धि को मेरे ऊपर केन्द्रित करके युद्ध कर, ऐसा करनें से तू मुझे समझेगा ।
अर्जुन मोह में दुखी है क्योंकि वह अपनों को खोना नहीं चाहते , अपनों की ममता अर्जुन के लिए बंधन बन गया है ।
दुःख कब आता है ?
[क] जब अहंकार पर चोट लगती है ।
[ख] जब गुणों के बंधन टूटते हैं , गुणों के बंधन हैं --कामना , क्रोध , लोभ , मोह - ममता । गुणों के बंधन
मनुष्य को संसार से पकड़ कर रखते हैं , संसार को समझनें के लिए गुणों के बंधनों को समझना पड़ता है ।
अब आगे ------
[क] गीता सूत्र 2।22 , 2.31 - 2.32 , श्री कृष्ण महाभारत युद्ध को धर्म युद्ध कहते हैं और अर्जुन इसको ब्यापार समझते हैं , यह है बुनियादी अंतर , श्री कृष्ण की सोच में और अर्जुन की सोच में ।
[ख] गीता श्लोक - 8.7 , 10.9 - 10.11 , 18.62 , 18.65 , 18.66
श्री कृष्ण स्वयं को परमात्मा बताते हुए अर्जुन को कहते हैं , तूं अपनें को मुझे समर्पित कर दो , ऐसा करनें से तेरा कल्याण होगा और तूं मुझको समझ लेगा , और अर्जुन कहते है -----
[ग] गीता श्लोक ...2.7 , 10.12 - 10.13 , 11.1 - 11.4 , 11.51
मैं आप की शरण में हूँ , आप मेरे गुरु हैं , आप मेरे मित्र हैं , मैं अब ओह मुक्त हूँ और आप जो कहेंगे वह मैं करूँगा लेकीन ऎसी बात गीता में देखने को नहीं मिलती । अर्जुन की बातें ऊपर - ऊपर से हैं , अन्दर तो मोह भरा है ।
श्री कृष्ण युद्ध को एक माध्यम के रूप में देखते हैं जिस से अर्जुन को तामस गुण से गुनातीत बनाया जा सके और अर्जुन एक कदम भी आगे नहीं चलना चाहते --जो अर्जुन के अन्दर घटित हो रहा है वैसा हम सब के अन्दर हर पल होता रहता है । परम योगी आते हैं , हमें वह कहते हैं जो श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं लेकीन सुनता कौन है ?

समर्पण किया जाना संभव नहीं , यह तो साधना का फल है जो उनको प्रभु के प्रसाद के रूप में मिलता है जो ----
धन्य भागी हैं ।

====ॐ=====

गीता ज्ञान - 49

यजुर्वेद कहता है -----
मनन किया गया बचनों से ब्यक्त होता है , बचनों से ब्यक्त भाव कर्म का रूप लेता है और कर्म का फल , मनुष्य के जीवन की उर्जा है , और गीता कहता है --------
गीता श्लोक - 2.62 - 2.63 , 6.24 , 2.55 , 2.71 , 6.2 , 6.4 , 7.20 , 18.72 - 18.73
मनन से आसक्ति , आसक्ति से संकल्प , संकल्प से कामना उठती है और कामना में आया अवरोध , क्रोध की जननी है ।
क्रोध का सम्मोहन पाप का कारण होता है । कामना - मोह , अज्ञान की पहचान हैं और इनसे अप्रभावित ब्यक्ति योगी , संन्यासी एवं बैरागी होता है । यहाँ आप जो कुछ भी देखा रहे हैं उनका सम्बन्ध , वर्तमान से है लेकीन वर्तमान तो दौड़ का प्रारम्भ मात्र है , यह दौड़ शरीर समाप्ति के बाद भी रहता है , गीता सूत्र 8.6 कहता है ------
आखिरी श्वास भरते ब्यक्ति में जो भाव भावित रहता है वह भाव उस ब्यक्ति के अगले जन्म को तय करता है लेकीन
ऐसे ब्यक्ति में वही भाव भावित रहता है जो उस ब्यक्ति के जीवन का केंद्र रहा होता है ....यह बात आप को समझनी पड़ेगी
गुणों के प्रभाव में जो शरीर छोड़ता है , उसका अगला जन्म कैसा होता है , देखिये गीता सूत्र -------
6.4 , 6.42 , 7.3 , 7.19 , 14.14
सात्विक गुण धारी
यहाँ दो श्रेणिया हैं -----
[क] जो लोग बैराग्य में पहुँच कर योग से पतित हो जाते हैं , वे योगी कुल में जन्म ले कर अपनी आगे की यात्रा करते हैं और ---
[ख] जो बैराग्य तक नहीं पहुँच पाते , वे पहले स्वर्ग में जा कर ऐश्वर्य - भोगों को भोगते हैं और फिर किसी अच्छे कुल में जन्म ले कर अपनी योग- यात्रा को आगे चलाते हैं ।
राजस गुण धारी
गीता श्लोक - 14.15
ऐसे लोग भोगी कुल में जन्म लेते हैं ।
तामस गुण धारी
गीता श्लोक - 14.15
ऐसे लोग पशु , कीट या मूढ़ जोनी में पैदा होते हैं ।
अगला जन्म क्यों होता है ?
गीता श्लोक - 8.6 + 15.8
अगला जन्म अर्थात वर्तमान , यह एक अवसर है , आवागमन को समझनें का और इस से मुक्त होनें का ।
अतृप्त ब्यक्ति को प्रकृति एक और मौका देती है की इस बार तेरे को प्रकृति - पुरुष के रहस्य को समझ कर मुक्त होना है , जो चुक गया वह पुनः आयेगा और जो इस अवसर का फ़ायदा उठा लिया , वह मुक्त हो गया
परम गति जिनको मिलती है वे ऐसे होते हैं ------
गीता श्लोक - 13.30,13.34,14.19,15.5,15.6,16.21-16.22,18.55-18.56
गीता कहता है -----
जो इस ब्रह्माण्ड को ब्रह्म के फैलाव रूप में देखता है , ब्रह्माण्ड की सूचनाओं को ब्रह्म से ब्रह्म में देखता है , जो सब में
ब्रह्म को मह्शूश करता है , वह परम धाम को जाता है या परगति में पहुंचता है ।
आप क्या चाहते हैं --- यहाँ इतनी सी बात को याद रखें की -----
चाह के साथ प्रभु मय होना असंभव है ।
====ॐ======

Monday, January 11, 2010

गीता ज्ञान - 48

कर्म- ज्ञान की बात गीता अध्याय तीन में और अध्याय पञ्च में कर्म-योग एवं कर्म- संन्यास की बातें हैं और कर्म की परिभाषा अध्याय आठ में दी जा रही है । इस स्थिति में अर्जुन कैसे समझ सकते हैं की कर्म क्या है ?कर्म- योग क्या है ? ज्ञान क्या है ? और कर्म-संन्यास क्या है ?

गीता की एक सीधी सी बात है -------
जिसके होनें के पीछे कोई चाह हो , वह भोग कर्म है और जो बिना चाह हो , वह योग कर्म है ।
यज्ञ हो , कीर्तन हो , तप हो , ध्यान हो , या कोई और , यदि इनके होनें के पीछे कोई चाह है तो वह योग से सम्बंधित नहीं हो सकते । आइये अब कुछ गीता के सूत्रों को देखते हैं -------
०० आसक्ति रहित कर्म , समत्व- योग है .....गीता - 2.47 - 2.51 , 3.19 - 3.20
०० आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ....गीता --18.49 - 18.50
०० भावातीत की स्थिति में जो होताहै , वह कर्म है .....गीता --8.3
०० सत्य भावातीत है ........गीता ----2.16
अब आप सोचिये की भोग - कर्म क्या है ? और योग- कर्म क्या है ?

======ॐ=======

Sunday, January 10, 2010

गीता ज्ञान - 47

अध्यात्म क्या है ?-----गीता....8.1

अर्जुन पूछ रहे हैं , श्री कृष्ण से , अपनें आठवें प्रश्न के माध्यम से ।
श्री कृष्ण कहते हैं ----मनुष्य का स्वभाव - अध्यात्म है .....गीता- 8.3
अब हमें श्री कृष्ण की बात को समझना चाहिए .............
गीता श्लोक 18.59 , श्री कृष्ण कह रहे हैं -------
तूं अहंकार के कारन युद्ध नहीं करना चाहता लेकीन तेरा स्वभाव तुझे युद्ध के लिए विवश कर देगा , और --
गीता श्लोक 18.60 में कहते हैं ........
तूं मोह के कारन युद्ध से बचना चाहते हो लेकीन अंततः स्वभाव के कारन तेरे को उद्ध करना ही पडेगा ।
यहाँ गीता से जो बात मिलाती है वह है ------
[क] मोह में अहंकार होता है ।
[ख] स्वभाव से कर्म होता है , यदि ऐसी बात है तो अब देखिये गीता सूत्र ----2.45 , 3.27 , 3.33 को जो कहते हैं ----
मनुष्य गुणों के सम्मोहन में आ कर भोग कर्म करता है । इन्द्रियों एवं बिषयों के सहयोग से जो कर्म होते हैं , वे गुण आधारित कर्म होते हैं और ऐसे कर्म , भोग कर्म होते हैं ।
गीता सूत्र 14.10 कहता है ------
मनुष्य में तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है । यहाँ बुद्धि के आधार पर आप सोचें ----
जब गुण समीकरण हर पल बदलता रहता है , जिस से स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है फिर
स्वभाव , अध्यात्म कैसे हो सकता है ?
गीता सूत्र 2.49 में जहां श्री कृष्ण समत्व-योग एवं बुद्धि- योग की बातें बता रहे हैं , कहते हैं ----
तूं भोग कर्मों में अपनें बुद्धि को स्थिर करनें के उपायों को खोजो अर्थात ------
भोग भावों से बचना तो मुश्किल है लेकीन अभ्यास से धीरे- धीरे उन कर्मों में भोग- तत्वों के प्रति होश बनाया जा सकता है और इसी का नाम - कर्म- योग है ।

भोग को योग का द्वार बनाओ
भोग को योग का मार्ग समझो
अहंकार को श्रद्धा में ढालो
जब ऐसा करनें में सफल हो जाओगे तब ----
तुम अपनें मूल स्वभाव - अध्यात्म को देख सकते हो ।
गुण आधारित स्वभाव तो मूल स्वभाव का छिलका सा है ।

====ॐ=================

Friday, January 8, 2010

गीता ज्ञान - 46

ब्रह्म क्या है ?
अध्यात्म क्या है ?
कर्म क्या है ?
अधिभूत क्या है ?
अधिदैव क्या है ?
अधियज्ञ क्या है ? और ----
अंत समय में कोई आप को कैसे जानें ?----यह अर्जुन का आठवा प्रश्न है ---गीता..8.1- 8.3 तक ।
यहाँ हम ब्रह्म को ले रहे हैं
जो ब्रह्माण्ड का कारण है , जो अतिशुक्ष्म है , जो सनातन है , जो निराकार - साकार है , जो भावों का कारन है ,
जो भावातीत है , जो सब के अन्दर- बाहर है , जो अविज्ञेय - अज्ञेय है - वह ब्रह्म है ।
आप गीता में अस्सी से कुछ अधिक श्लोक परमात्मा के सम्बन्ध में देख सकते हैं जो लगभग एक सौ पचास
उदाहरणों के माध्यम से गीता के परमात्मा को ब्यक्त करनें की कोशिश करते हैं । गीता अंततः कहता है ---
मन- बुद्धि स्तर पर ब्रह्म को समझना कठिन है और ------
एक समय में एक साथ भोग और भगवन को नहीं रखा जा सकता ।
वह जो द्रष्टा है ....
वह जो साक्षी है ....
वह जो गुनातीत है , वह ब्रह्म को तत्त्व से समझता है ।

======ॐ=====

Thursday, January 7, 2010

गीता ज्ञान - 45

अज्ञानी कौन है ?-----गीता ...7.27
यहाँ देखिये गीता - सूत्र ....7.20 , 18.72 , 18.73
ये सूत्र कहते हैं - कामना - मोह अज्ञान की जननी हैं । गीता सूत्र 7.27 कहता है ----
इच्छा , मोह , द्वेष , द्वंद्व से प्रभावित ब्यक्ति , अज्ञानी होता है ।
इच्छा क्या है ? देखिये गीता सूत्र ....2.55, 2.62, 2.71, 4.10, 4.12, 6.2, 6.4, 6.24, 7.20, 7.27,
14.7, 14.12, 14.19
और मोह के लिए देखिये गीता सूत्र ...1.22 - 1.47, 2.1, 2.52, 2.71, 4.10, 4.23, 7.27, 14.8,
14.17, 18.72, 18.73 तथा इनके साथ इनको भी देखें तो अच्छा रहेगा .......
3.34, 3.37, 6.27, 13.2, 13.7 - 13.11, 18.59

कामना राजस गुण का तत्त्व है और मोह तामस गुण का तत्त्व है । मोह में कामना अन्दर छिपी होती है और बाहर आँखें गीली दिखती हैं । मोह का अहंकार अन्दर होता है और कामना का अहंकार बाहर । मोह कामना का भिखारी-रूप है जिसको पकड़ना अति कठिन होता है ।

राजस और तामस गुण साधना में मजबूत बंधन हैं जो समय- समय पर कामना , क्रोध , राग , लोभ ,मोह , भय और
अहंकार के रूपों में दीखते हैं ।

======ॐ=====

Wednesday, January 6, 2010

गीता ज्ञान - 44

बुद्धिहीन ब्यक्ति कौन है ? ----गीता श्लोक ....7.24

वह बुद्धिहीन ब्यक्ति है जो परमात्मा में आस्था न रखता हो -- गीता श्लोक 7.24 कहता है ।
श्री कृष्ण कहते हैं ----बुद्धिहीन ब्यक्ति मुझे जन्म,जीवन एवं मृत्यु के अधीन साकार रूप में समझते हैं लेकीन मैं ......
मन-बुद्धि सीमा के परे परम अब्यक्त भाव हूँ जो टाइम - स्पेस में भी है और इसके बाहर भी है तथा जो टाइम -स्पेस से प्रभावित नहीं है । अब आप सोचिये की कौन बुद्धिवाला है ?
गीता में परमात्मा को मन-बुद्धि के स्तर पर समझनें केलिए 11 अध्यायों में लगभग 82 श्लोक हैं और आप से अनुरोध है की आप इन सूत्रों को अवश्य देखें , हो सकता है आप के अन्दर बहनें वाली उर्जा का रुख बदल जाए ।
जब आप गीता में दिए गए परमात्मा सम्बंधित सूत्रों को देखेंगे और उन पर गहराई से सोचेंगे तब आप को
जो मिलेगा वह इस प्रकार होगा ------
[क] परमात्मा और भोग को एक साथ एक बुद्धि में एक समय नहीं रखा जा सकता ।
[ख] ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि सीमा में सिमित नहीं है ।
[ग] परमात्मा परम अक्षर , परम अब्यक्त भाव है ।
[ ऊपर दिए गए सत्य के लिए आप देखें गीता सूत्र ----2.42 - 2.44 , 6.21 , 7.24 , 12.3 - 12.4 ]
जब यहाँ तक की यात्रा ठीक तरह से पुरी होती है तब पता चलता है की -----
सत्य भावातीत है और इसके लिए आप देखें गीता के निम्न श्लोकों को .........
2.16 - 2.17 , 8.20 - 8.22 , 9.4 , 10.2 - 10.3 , 13.15 , 7.12 -7.13
सभी भावों का श्रोत प्रभु है लेकीन स्वयं भावातीत है ।

====ॐ=======

Monday, January 4, 2010

गीता ज्ञान --43

कौन परमात्मा मय है ?----गीता श्लोक ...7.19 -7.20

[क] वह कर्म-योगी जिसको निष्कर्मता की सिद्धि मिली है ....
[ख] और ज्ञानी
परमात्मा मय होते हैं ।

ज्ञान क्या है ?......गीता श्लोक - 13.1 - 13.3
ज्ञान वह है जिससे क्षेत्रज्ञ - क्षेत्र का बोध हो ।
ज्ञानी कौन है ?....गीता श्लोक - 13.7 - 13.11
समभाव में रहनें वाला , ज्ञानी है ।
अज्ञान किस से है ?....गीता श्लोक - 7.20 , 18.72 - `8.73
राजस- तामस गुणों के बंधन ,अज्ञान की जननी हैं जैसे - काम ,क्रोध , लोभ , अहंकार , मोह , भय , आलस्य ।
गीता श्लोक 17.4 - 17.6 , 17.14 - 17.22
गीता कहता है .....
गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं और उनका अपना-अपना तप , साधना, पूजा , कर्म , त्याग , बुद्धि ,ध्रितिका और सोच है । सात्विक गुण धारी संसार को परमात्मा के रूप में देखता है , राजस गुण धारी संसार को राग का समुंदर समझता है और तामस गुण धारी संसार से भयभीत रहता है ।
गीता कहता है -गीता --4.38
कर्म-योग सिद्धि से ज्ञान मिलता है जो आत्मा का बोध कराता है अर्थात ----
ज्ञान - योग शास्त्रों से ही नहीं कर्म से भी मिलता है , कर्म के ज्ञान में अहंकार अधिक ताकत वर नहीं होता लेकीन पठन - पाठन से जो ज्ञान मिलता है उसमें अहंकार तीब्र हो सकता है ।
महान वैज्ञानिक आइन्स्टाइन कहते हैं -----
ज्ञान दो तरह का होता है ; एक वह जो किताबों से मिलता है , यह ज्ञान मुर्दा ज्ञान है और दूसरा वह ज्ञान है जो
सजीव ज्ञान है , यह चेतना से बुद्धि में बूँद-बूँद टपकता है ।

====ॐ======

गीता ज्ञान - 42

माया ,गुण और परमात्मा
पहले गीता के छः श्लोकों को देखिये ---
श्लोक - 7.14 -7.15
तीन गुणों का एक माध्यम है जो सनातन है , सीमा रहित है जिसको माया कहते हैं । जो माया से प्रभावित है- वह भोगी है और माया से अप्रभावित ब्यक्ति- परमात्मा तुल्य होता है
श्लोक - 7.12 -7.13 , 10.4 -10.5
सात्विक, राजस और तामस - तीन गुण एवं इनके भाव परमात्मा से हैं लेकीन परमात्मा गुनातीत एवं भावातीत है ।
अब आप गीता के इन सुतों को भी देखें ------
16.4 - 16.5 , 16.8 - 16.10 , 16.12 - 16.18 , 9.12 - 9.15
गीता के इन सूत्रों से जो ज्ञान मिलता है वह इस प्रकार है -------
[क] सुख-दुःख से भरे जीवन के साथ रहनें वाला गुणों का गुलाम , भोगी ब्यक्ति आसुरी सम्प्रदा वाला होता है ।
[ख] योगी वह है , जो भोग तत्वों को समझ कर बौराग्य - अवस्था में आकर भावातीत की अनुभूति प्राप्त करता है ।
गीता-श्लोक 18.40 कहता है --पूरे ब्रह्माण्ड में गुणों से अछूता कुछ भी नहीं है , मात्र एक परमात्मा ऐसा है जो
गुनातीत है ।
अब आप सोचिये ----
निर्गुण ब्रह्म सगुण सूचनाओं का श्रोत है
भावातीत ब्रह्म सभी भावों का श्रोत है
और जो -------
इस स्थिति के प्रति होश मय है वह ------
परम तुल्य है

====ॐ======

Saturday, January 2, 2010

गीता ज्ञान - 41

संसार यदि एक माला है तो परमात्मा उस माले का सूत्र है ----गीता श्लोक ...7.7

आप गीता को ले कर कुछ दिन उसके साथ गुजारे और केवल उन श्लोकों को देखें जिनका सीधा सम्बन्ध
परमात्मा से है । जब आप ऐसा करेंगे तो जो आप को मिलेगा वह कुछ इस प्रकार से होगा -------
[क] लगभग 80 से अधिक श्लोक परमात्मा को स्पष्ट करनें की कोशिश करते हैं ।
[ख] लगभग 150 ऐसे उदाहरण मिलेंगे जो यह बतानें का प्रयत्न करते हैं की परमात्मा क्या है ?
लेकीन जो निष्कर्ष निकलता है वह है -----
[क] परमात्मा की अनुभूति मन - बुद्धि सीमा में नहीं है ।
[ख] भोग-भगवान को एक साथ एक बुद्धि में रखना असंभव है ।
[ग] ब्रहमांड के कण-कण में परमात्मा है ।
[घ] यह ब्रह्माण्ड परमात्मा से परमात्मा में है ।
जो बाते आप को ऊपर बताई गयी हैं उनके समर्थन में आप इन सूत्रों को देखें -----
2.42 - 2.44 , 12.3 - 12.4 , 13.15 , 11.37 , 9.19 , 13.12 , 10.24 - 10.25 , 10.31 ,
गीता द्वैत्य में आस्था रखनें वालों को कहता है ----
हिमालय से सागर तक की यात्रा में तूम गंगा के साथ रहो और जब तूम ऐसा करनें में सफल हो जाओगे तब तेरे को पता चलेगा की सागर की लहरों में जो तूफ़ान है वह सागर के अन्दर छिपी परम शांति से है और वह शांति तेरे अन्दर भी है ।
मनुष्य द्वैत्य में रहना चाहता है और मन दो को एक साथ रख नहीं सकता --यह समस्या मनुष्य को परेशान रखती है । मूर्ती की पूजा करनें वाला पुजारी की पूजा तब तक अधूरी रहती है जबतक वह मूर्ती को देखता रहता है । मूर्ती देखते-देखते जब मूर्ती अब्यत हो जाती है तब उसकी पूजा सफल होती है जिसको वह स्वयं ब्यक्त करनें असफल होता है ।

तोता पूरी जी परम हंस श्री रामकृष्ण के माथे पर चीरा लगा कर , खून निकाल कर क्या किया था ?
श्री रामकृष्ण द्वैत्य में रुके थे और तोता पूरी जी उनको द्वैत्य के माध्यम से अद्वैत्य में पहुंचा दिया ।
मूर्ती और पूजा दोनों साथ -साथ नहीं रह सकते --यह बात तो कुछ अलग सी है पर है सत्य , आप इस पर सोचना । एक आदमी अपनें मन में अपनें घर और मंदिर को एक साथ कैसे रख सकता है ? और यही बात गीता सूत्र 2.42 - 2.44 तक में, गीता कहता है ।

गीता , सूत्र 7.7 में , परमात्मा को सूत्र और संसार को माला कहता है लेकीन यह बात अधूरी है ; माला के हर एटम में परमात्मा है और सच्चाई यह है की माला सूत्र से सूत्र में होता है । माले में सूत्र और मणियों को अलग-अलग नहीं समझना चाहिए ।

=====ॐ======

Friday, January 1, 2010

गीता ज्ञान ---40

जीव निर्माण रहस्य


देखिये गीता सूत्र ---7.4 - 7.6 तक

यहाँ यदि आप गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें तो यह रहस्य और स्पष्ट हो सकता है ----

गीता श्लोक --13.5 - 13.6 , 14.3 - 14.4

जीव रचना में गीता निम्न तत्वों की बात करता है ------

[क] पञ्च महाभूत [ पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि , आकाश ]

[ख] मन , बुद्धि , अहंकार

[ग] चेतना

[घ] आत्मा - परमात्मा

यहाँ [क] + [ख] तत्त्व अपरा प्रकृति में हैं और [ग] परा प्रकृति है । आत्मा देह में परमात्मा है ।



मन जब संसार से जुड़ता है तब इसके निम्न तत्त्व और जुड़ जाते हैं ------

द्वैत्य ; सुख-दुःख

ध्रितिका

इच्छा

द्वेष ...आदि ।



विज्ञानं कहता है ----

पृथ्वी 5.4 billion वर्ष पूर्व जलती हुयी आग का गोला थी जो धीरे- धीरे ठंढी होती गयी और अब से लगभग 200 million वर्ष पूर्व यह ठोस रूप में आयी । वैज्ञानिक अनुमान है की अब से 200million वर्ष पूर्व डायनासोर पृथ्वी पर राज्य करते थे । पृथ्वी पर मनुष्य के जो अवशेष मिले हैं वे 6 million वर्ष पुरानें हैं । वैज्ञानिक यह भी कहते हैं की अब से लगभग 1.5 billion वर्ष बाद पृथ्वी से जीव समाप्त हो सकते हैं ।



प्रकृति - पुरुष योग से जीव का निर्माण जो गीता में है वह प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन को भी आकर्षित करता था ।



====ॐ=====

गीता ज्ञान 39

कौन परमात्मा को तत्त्व से जानता है ?



गीता श्लोक 7.3 में श्री कृष्ण कहते हैं ------

परमात्मा प्राप्ति के लिए हजारों लोग ध्यान करते हैं , उनमें से कुछ का ध्यान फलित भी होता है और जिनका ध्यान सिद्ध होता है उनमें से एकाध लोग परमात्मा को तत्त्व से जान पाते हैं पर ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं ।


अब आप इस श्लोक के साथ संसार पर एक नजर डालिए और देखिये की यहाँ जो योगी दीखते हैं , वे किस श्रेणी के हैं ?

[क] जो पृथ्वी के मानचित्र को नहीं देखे हैं वे स्वर्ग का नक्शा दिखाते हैं ।

[ख] जो अपने को तो जानते नहीं , वे परमात्मा से परिचय कराते हैं ।

[ग] जिनको अपनें पोते में बाल श्री कृष्ण नहीं दीखते , वे कृष्ण- भक्ति में नाचते हैं ।

[घ] जो अपनें गृहस्ती से भागे हैं , वे गृहस्त - धर्म पर प्रवचन करते हैं ।

एक छोटी सी बात आप अपनें संग रखें तो आप को भटकना नहीं पडेगा और वह बात है ------

जो परमात्मा का प्रेमी है वह परमात्मा की परिभाषा नहीं खोजता , वह परमात्मा में बसा हुआ होता है ।


आज मेरे जैसे लोगों की कतारें लगी हैं जो लोग स्वयं तो अंधे हैं ही लोगों को भी भ्रमित कर रहे हैं ।

आनद बुद्ध से एक बार पूछते हैं ------

भंते ! परमात्मा के नाम पर आप चुप क्यों हो जाते हैं ? बुद्ध कहते हैं ----आनंद ! बताया उसको जाता है जो होता है , परमात्मा तो हो रहा है फिर उसको कैसे ब्यक्त किया जा सकता है ? और यही बात बुद्ध को नास्तिक श्रेणी में ला दिया जब की उपनिषद् कहते हैं ------

श्रृष्टि के प्रारम्भ में सत-असत परमात्मा था और वह स्वेक्छा से अनेक बन गया और ऋग्वेद कहता है -----

वह स्थिर था , अपनी मर्जी से गतिमान हो उठा और टाइम स्पेस का निर्माण हुआ ।


गीता श्लोक 7.3 को समझनें के लिए आप गीता के निम्न सूत्रों को भी देखें ------
6.42 , 7.19 , 12.5 , 18.54 - 18.55

गीता कहता है , साधक दो प्रकार के हैं .....सगुण एवं निर्गुण । निर्गुण उपासना अति कठिन उपासना है और

ऐसे उपासक बहुत कम होते हैं क्यों की ऐसे की साधना करना कठिन है जो इन्द्रियों , मन एवं बुद्धि से अछूता हो ।



परमात्मा को तत्त्व से जाननें वाला योगी गीता का गुनातीत योगी होता है जो अपनें स्थूल शरीर में ज्यादा दिनों तक
नहीं रहता , वह परम गति को प्राप्त करता है ।



======ॐ======

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