कर्म- ज्ञान की बात गीता अध्याय तीन में और अध्याय पञ्च में कर्म-योग एवं कर्म- संन्यास की बातें हैं और कर्म की परिभाषा अध्याय आठ में दी जा रही है । इस स्थिति में अर्जुन कैसे समझ सकते हैं की कर्म क्या है ?कर्म- योग क्या है ? ज्ञान क्या है ? और कर्म-संन्यास क्या है ?
गीता की एक सीधी सी बात है -------
जिसके होनें के पीछे कोई चाह हो , वह भोग कर्म है और जो बिना चाह हो , वह योग कर्म है ।
यज्ञ हो , कीर्तन हो , तप हो , ध्यान हो , या कोई और , यदि इनके होनें के पीछे कोई चाह है तो वह योग से सम्बंधित नहीं हो सकते । आइये अब कुछ गीता के सूत्रों को देखते हैं -------
०० आसक्ति रहित कर्म , समत्व- योग है .....गीता - 2.47 - 2.51 , 3.19 - 3.20
०० आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ....गीता --18.49 - 18.50
०० भावातीत की स्थिति में जो होताहै , वह कर्म है .....गीता --8.3
०० सत्य भावातीत है ........गीता ----2.16
अब आप सोचिये की भोग - कर्म क्या है ? और योग- कर्म क्या है ?
======ॐ=======
Monday, January 11, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment