सकाम भक्ति मुक्ति का द्वार नहीं है ----गीता सूत्र ..9.23 - 9.25
परम श्री कृष्ण कह रहे हैं ------
सकाम भक्ति मुक्ति का द्वार नहीं है लेकीन यदि यह निष्काम भक्ति बन जाए तो मुक्ति का द्वार बन सकती है ।
गीता में कुछ शब्द हैं जैसे सकाम , सगुण , सविकल्प , निष्काम , निर्गुण, निर्विकल्प आदि जिनको समझना जरूरी है । जिसके होनें के पीछे कोई चाह हो वह सकाम , सगुण , सविकल्प कहलाता है और जिसके होनें के पीछे कोई चाह न हो वह है निष्काम, निर्गुण एवं निर्विकल्प --सीधी सी बात है जिसको समझनें में कोई कठिनाई नहीं।
गीता कहता है ......
चाह चाह है चाहे वह सात्विक हो , चाहे वह राजस हो या चाहे वह तामस हो । यदि कोई कुछ पानें के लिए परमात्मा को जपता है तो वह वह भक्ति नहीं है जो परमात्मा मय बना सके , वह भक्ति भी भोग से सम्बंधित ही है ।
आप जरा सोचना --- हम क्यों अभी काशी तो कभी कैलाश की यात्रा करते हैं ?
हम क्यों कभी गंगासागर तो कभी द्वारिका पहुंचते हैं ?
हम क्यों कभी राम को तो कभी कृष्ण को जपते हैं ?
हम क्यों कभी साईं बाबा से तो कभी कृष्णमुर्ती से जुड़ते हैं ?----कोई तो कारण होगा ही , और वह कारण है
भ्रमित मन की ऊर्जा --मन हमें कहीं रूकनें नहीं देता , भगाता रहता है और हम भागते रहते हैं वरना जो है वह
सर्वत्र है , जगह बदलते रहनें से वक्त तो निकल जाता है लेकीन हम वैसे के वैसे रहते हैं ।
गीता कहता है -----
मनुष्य का जीवन जो तुझे मिला है वह एक अवसर है , चाहे तो तूं अपनें को बदल कर उसे देखलें जिस से यह संसार है या फिर बासना के बिषय बदलते रहो और इस में तेरा यह जीवन सरकता चला जाएगा ।
अंत में तूं जब आखिरी श्वास भरेगा तो वह श्वास तनहाई से भरी होगी ।
=====ॐ=========
Saturday, January 23, 2010
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