Thursday, January 28, 2010

गीता ज्ञान - 61

गीता का अर्जुन कोई और नहीं है , हम- आप हैं



गीता का अर्जुन निद्रा को जीत लिया है , दोनों हांथो से तीर चलाता है [गीता - 11.7, 11.33 ] और हम - आप भोग में इतनें मग्न हैं की रात - दिन का पता तक नहीं लग पाताऔर दोनों हांथों से बटोरनें में लगे हैं - अर्जुन और हम में क्या फर्क है ?

अब गीता के अर्जुन को देखते हैं ------अर्जुन महा भारत युद्ध को ब्यापार कहता है [ गीता 1.22] और इस युद्ध को परम धर्म- युद्ध कहते हैं [ गीता 2।31, 2.33 ], यह है दोनों की समझ में मौलिक अंतर ।

अर्जुन कहते हैं - मेरा मन भ्रमित हो रहा है [ गीता- 1.30 ], गीता श्लोक - 1.26 - 1.46 तक में जो कहते हैं , उनसे यह स्पष्ट होता है की अर्जुन मोह में हैं । अर्जुन आगे कहते हैं [ गीता - 2.7 ] - मैं आप का शिष्य हूँ , इस समय भ्रमित हूँ , आप सत - असत से परे परम ब्रह्म हैं [ गीता - 10.12 - 10.17, 11.37 ], आप की बातों से मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है [ गीता - 11.1 - 11.4 ] , और अब मैं स्थीर चित हो गया हूँ [गीता - 11.51 ] , यदि ऎसी बात होती तो गीता का समापन अध्याय 11 तक हो जाना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं । अर्जुन अपनें आखिरी श्लोक [ गीता - 18.73 ] में कहते हैं ---मेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हो गया है मैं अपनी स्मृति
प्राप्त कर ली है औरआप की शरण में हूँ ।


गीता का समापन हुआ , अर्जुन मोह से मुक्त हो कर युद्ध में भाग लिया या मोह के साथ यह बात मैं आप पर छोड़ता हूँ ।

कुछ मैं चलनें की कोशिश में हूँ ---

कुछ आप भी चलें ----

और जब हम - आप मिलेंगे तो वहाँ जो होगा वह होगा ----

गीता



====ॐ=====



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